संविधान के 75 साल बीत गए लेकिन समाज ने अभी तक जाति के 'अवांछित विचार' को नहीं छोड़ा: मद्रास हाईकोर्ट ने विशेष उपजाति से मंदिर ट्रस्टी नियुक्त करने से इनकार किया

Avanish Pathak

14 Feb 2025 6:53 AM

  • संविधान के 75 साल बीत गए लेकिन समाज ने अभी तक जाति के अवांछित विचार को नहीं छोड़ा: मद्रास हाईकोर्ट ने विशेष उपजाति से मंदिर ट्रस्टी नियुक्त करने से इनकार किया

    मद्रास हाईकोर्ट के समक्ष एक याचिक दायर की गई थी, जिसमें अरुलमिघु वरथराजा पेरुमल और सेनराया पेरुमल मंदिर में प्रशासन के लिए एक योजना तैयार करने की मांग की गई थी, जिसके लिए एक विशेष जाति से गैर-वंशानुगत ट्रस्टी नियुक्त किया जाना था, जिसे हाईकोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह प्रार्थना सार्वजनिक नीति और संवैधानिक लक्ष्यों के विरुद्ध है।

    जस्टिस भरत चक्रवर्ती ने दुख व्यक्त करते हुए कहा कि संविधान के 75 साल बीत जाने के बावजूद समाज के कुछ वर्गों ने अभी तक अवांछित किस्म के ‌विचारों को नहीं छोड़ा है। न्यायालय ने कहा कि अगर ऐसी प्रार्थनाओं की अनुमति दी जाती है, तो संवैधानिक योजना का संचालन ही विफल हो जाएगा। न्यायालय ने कहा कि कोई भी प्रार्थना जिसका प्रभाव जाति को बनाए रखने पर पड़ता है, न केवल असंवैधानिक है, बल्कि सार्वजनिक नीति के भी विरुद्ध है।

    कोर्ट ने कहा,

    “हमारे संविधान के पचहत्तर साल बीत जाने के बावजूद समाज के कुछ वर्गों ने अभी तक इस अवांछित विचार को नहीं छोड़ा है। संवैधानिक योजना का संचालन ही विफल हो रहा है, और जाति व्यवस्था समाज के लक्ष्यों और मूल्यों को विकृत कर रही है। इस प्रकार, कोई भी प्रार्थना जो जाति को कायम रखने की प्रकृति की हो या जिसका प्रभाव जाति को कायम रखने पर हो, न केवल असंवैधानिक होगी बल्कि सार्वजनिक नीति के विरुद्ध होगी। इस न्यायालय के लिए यह स्पष्ट रूप से घोषित करने का समय आ गया है।”

    न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि जाति एक सामाजिक बुराई है और इसे कायम रखने पर न्यायालय कभी विचार नहीं कर सकते। न्यायालय ने कहा कि जाति का निर्धारण इस बात से नहीं होता कि व्यक्ति जीवन में क्या सीखता है या क्या करता है, बल्कि यह उसके जन्म से तय होता है जो समाज के इस मूल सिद्धांत के विरुद्ध है कि सभी मनुष्य समान जन्म लेते हैं।

    कोर्ट ने कहा,

    “जाति एक सामाजिक बुराई है। जातिविहीन समाज हमारा संवैधानिक लक्ष्य है। जाति को कायम रखने की दिशा में किसी भी न्यायालय द्वारा कभी भी विचार नहीं किया जा सकता। इसका कारण बहुत सरल है। सबसे पहले, यह इस बात से तय नहीं होता कि व्यक्ति जीवन में क्या सीखता है या क्या करता है। यह जन्म से तय होता है। इस प्रकार, यह समाज के इस मूल सिद्धांत पर प्रहार करता है कि सभी मनुष्य समान जन्म लेते हैं। इसके अलावा, यह समाज को विभाजित करता है, भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा देता है और विकास के विरुद्ध है।”

    अशोक कुमार ठाकुर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर चर्चा करते हुए न्यायालय ने दोहराया कि संविधान जातिविहीन समाज के बारे में नहीं सोचता, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी जाति के कारण भेदभाव न हो। इस प्रकार, न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा था कि संविधान के सपने के अनुरूप अंतिम लक्ष्य जातिविहीन और वर्गविहीन समाज है।

    न्यायालय ए राजेंद्रन की ओर से दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें कोयंबटूर के मानव संसाधन एवं सामाजिक न्याय विभाग के संयुक्त आयुक्त को एक आवेदन में समयबद्ध तरीके से जांच करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। लंबित आवेदन में कहा गया था कि मंदिर एक विशेष जाति का है और एक विशेष उप-जाति के व्यक्तियों के बीच गैर-वंशानुगत ट्रस्टी नियुक्त करके प्रशासन की योजना बनाने की मांग की गई थी।

    न्यायालय ने कहा कि आमतौर पर, यदि किसी मंदिर के लिए कोई योजना बनानी होती है, जिसके लिए आवेदन लंबित है, तो न्यायालय योजना बनाने का निर्देश देते हैं। हालांकि, इस विशेष मामले में, न्यायालय ने कहा कि आवेदन में पूरी प्रार्थना जाति पर आधारित है।

    न्यायालय ने स्वामी विवेकानंद के शब्दों को उधार लिया, जहां उन्होंने कहा कि धर्म और पूजा आत्मा के लाभ के लिए हैं और आत्मा में न तो लिंग होता है, न जाति और न ही अपूर्णता। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए जाति-आधारित प्रार्थनाओं पर विचार करना संविधान के प्रति हिंसा होगी।

    अदालत ने इस प्रकार कहा कि विभाग द्वारा आवेदन पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है और तदनुसार याचिका को खारिज कर दिया।

    केस टाइटलः ए राजेंद्रन बनाम संयुक्त आयुक्त

    साइटेशन: 2025 लाइव लॉ (मद्रास) 58

    केस नंबर: W.P.No. 3838 of 2025

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