मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने बाल बलात्कार मामले में मृत्युदंड की सजा कम की, कहा- 'यह कृत्य क्रूर था, लेकिन क्रूरता से नहीं किया गया'
Shahadat
20 Jun 2025 10:03 AM IST

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने गुरुवार (19 जून) को अनुसूचित जनजाति के 20 वर्षीय व्यक्ति की मृत्युदंड की सजा कम की, जिसे 4 वर्षीय बच्चे के साथ बलात्कार करने का दोषी पाया गया था। निचली अदालत ने यह देखते हुए मृत्युदंड दिया था कि बच्चा स्थायी रूप से दिव्यांग हो गया था। हाईकोर्ट ने अपराध की गंभीरता स्वीकार करते हुए कहा कि यद्यपि यह कृत्य निर्विवाद रूप से क्रूर था, लेकिन इसे क्रूरता से नहीं किया गया।
खंडपीठ ने सजा आजीवन कारावास में बदलते हुए दोषी के इतिहास, उसकी शिक्षा की कमी और आदिवासी पृष्ठभूमि जैसे कुछ कम करने वाले कारकों को ध्यान में रखा।
जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस देवनारायण मिश्रा की खंडपीठ ने कहा,
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपीलकर्ता का कृत्य क्रूर था, क्योंकि उसने चार साल और तीन महीने की पीड़िता के साथ बलात्कार किया और बलात्कार करने के बाद उसका गला घोंटकर उसे मृत घोषित कर दिया। पीड़िता को ऐसी जगह फेंक दिया, जहां उसकी तलाशी न ली जा सके और मौके से चला गया, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उसने क्रूरता नहीं की है।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, दोषी शिकायतकर्ता की झोपड़ी में घुसा और सोने के लिए खाट मांगी। बाद में उस रात उसने कथित तौर पर पास के एक घर का गेट खोला, जहां पीड़िता और उसके माता-पिता रह रहे थे, उसका अपहरण किया और उसके साथ बलात्कार किया। इसके बाद उसने कथित तौर पर बच्ची को मरा हुआ समझकर आम के बगीचे में बेहोशी की हालत में छोड़ दिया। घटना के समय पीड़िता की उम्र 4 साल और 3 महीने थी, जबकि अपीलकर्ता की उम्र 20 साल थी। निचली अदालत ने दोषी को मौत की सजा सुनाई। इससे व्यथित होकर उसने सजा के आदेश को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
दोषी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील समर सिंह राजपूत ने तर्क दिया कि पीड़िता और कथित रूप से आपत्तिजनक सामग्री खुले क्षेत्र से बरामद की गई थी, जिससे बरामदगी की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा होता है। यह भी तर्क दिया गया कि मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित है और इसमें किसी प्रत्यक्षदर्शी की गवाही का अभाव है।
वकील राजपूत ने आगे जोर देकर कहा कि घटना के परिणामस्वरूप पीड़ित को स्थायी दिव्यांगता या गंभीर चोट लगने का कोई सबूत नहीं है। यह आरोप लगाया गया कि गिरफ्तारी के बाद सबूत गढ़े गए। उन्होंने कहा कि दोषी की कम उम्र, साफ-सुथरी पृष्ठभूमि और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को देखते हुए- अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय का एक अशिक्षित सदस्य होने के कारण - मृत्युदंड अनुचित है।
राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले डिप्टी एडवोकेट जनरल यश सोनी ने अपील का कड़ा विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे दोषी के अपराध को स्थापित किया। यह भी प्रस्तुत किया गया कि चूंकि पीड़ित एक 4 वर्षीय बच्चा था, जिसे एक बगीचे में मरने के लिए छोड़ दिया गया, इसलिए दोषी को कोई नरमी नहीं दी जानी चाहिए।
इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि दोषी ने बलात्कार का अपराध किया तथा भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 450, 363, 376 (ए), 376एबी, 307 तथा धारा 201 और POCSO Act की धारा 5 तथा 6 के तहत उसका अपराध सिद्ध होता है।
मृत्युदंड की पुष्टि के संबंध में निचली अदालत ने पाया कि अपराध ने पीड़िता को स्थायी रूप से दिव्यांग बना दिया। हालांकि, हाईकोर्ट ने इस अनुमान से असहमति जताते हुए कहा कि इस बात को निर्णायक रूप से स्थापित करने के लिए मेडिकल साक्ष्य का अभाव है कि स्थायी दिव्यांगता घटना के कारण हुई थी।
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि निचली अदालत ने केवल डॉ. राकेश शुक्ला की गवाही पर भरोसा किया, लेकिन यह भी पाया कि डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से यह निर्दिष्ट नहीं किया कि शरीर का कौन-सा हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ था या क्या चोट ऐसी प्रकृति की थी, जिससे आजीवन दिव्यांगता हो सकती थी। इसलिए हाईकोर्ट ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष को खारिज कर दिया।
हाईकोर्ट ने माना कि इस मामले की गंभीर परिस्थिति पीड़िता और दोषी की उम्र थी।
खंडपीठ ने कहा,
"गंभीर परिस्थितियां हैं कि पीड़िता चार साल की थी और बलात्कार इतनी छोटी बच्ची के साथ किया गया। अपराध इस तरह से किया गया कि पीड़िता का गुप्तांग फट गया और अपराध करने के बाद पीड़िता को एकांत स्थान पर फेंक दिया गया। उसके ऐसा व्यवहार किया गया कि वह मर गई।"
हालांकि, खंडपीठ ने मामले के कम करने वाले कारकों को भी स्वीकार किया, जिसमें दोषी की पृष्ठभूमि भी शामिल है।
न्यायालय ने कहा,
"अपीलकर्ता लगभग 20 वर्ष की आयु का आदिवासी समुदाय का युवक है। उसके आचरण के बारे में कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं है। ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है कि उसने पहले इस तरह का कोई अपराध किया हो और उसकी माँ के बयान के अनुसार, उसने बहुत कम उम्र में ही माता-पिता का घर छोड़ दिया था और ढाबे में काम करके अपना पेट पाल रहा था। वह ठीक से शिक्षित नहीं है।"
भग्गी बनाम मध्य प्रदेश राज्य [(2024) 5 एससीसी 782] के मामले का हवाला देते हुए अदालत ने बलात्कार के कृत्य के बीच अंतर किया, जो बर्बर और क्रूर दोनों है। एक ऐसा कृत्य जो बर्बर है, लेकिन जरूरी नहीं कि क्रूर हो।
खंडपीठ ने कहा कि मौजूदा मामला बर्बर है लेकिन क्रूर नहीं है।
मनोहरन बनाम राज्य [(2019) 7 एससीसी 716] और धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य [(1994) 2 एससीसी 2020] के मामलों का हवाला देते हुए खंडपीठ ने कहा कि दोषी का कृत्य क्रूर था, लेकिन यह क्रूरता के साथ नहीं किया गया था।
अदालत ने कहा कि दोषी आदिवासी समुदाय से संबंधित अशिक्षित व्यक्ति है, जिसे सड़क किनारे भोजनालय (ढाबा) में काम करने के लिए उसके घर से दूर भेज दिया गया था। इस प्रकार, अदालत ने उसकी मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में बदलना उचित समझा।
खंडपीठ ने कहा,
"अतः भारतीय दंड संहिता की धाराओं 363, 450, 307, 201 के तहत दंडनीय अपराध के लिए अपीलकर्ता पर लगाई गई सजा बरकरार रखी जाती है, लेकिन POCSO Act की धाराओं 6 के तहत दंडनीय अपराध के लिए उसकी सजा को मृत्युदंड से परिवर्तित कर 25 वर्ष के कठोर कारावास के साथ 10,000 रुपये का जुर्माना किया जाता है और जुर्माना राशि न चुकाने की स्थिति में (दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 और 433 के तहत छूट/आयोग के बिना वास्तविक कारावास), अपीलकर्ता को एक वर्ष का अतिरिक्त कठोर कारावास भुगतना होगा।"
Case Title: Rajaram @ Rajkumar v The State Of Madhya Pradesh And Others (2025:MPHC-JBP:25649)

