क्या CrPC की धारा 207 के तहत अभियुक्त को संरक्षित गवाहों के संशोधित बयान की प्रति दी जा सकती है?

Himanshu Mishra

22 Jan 2025 12:12 PM

  • क्या CrPC की धारा 207 के तहत अभियुक्त को संरक्षित गवाहों के संशोधित बयान की प्रति दी जा सकती है?

    हमारे न्याय तंत्र में यह एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न है कि गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए अभियुक्त (Accused) को निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) का अधिकार कैसे दिया जाए। आतंकवाद और संगठित अपराध (Organized Crime) जैसे मामलों में यह मुद्दा और जटिल हो जाता है, क्योंकि गवाहों की सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

    Waheed-ur-Rehman Parra v. Union Territory of Jammu & Kashmir (2022) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन जटिलताओं पर प्रकाश डाला और दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure - CrPC), गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (Unlawful Activities (Prevention) Act - UAPA) और राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम, 2008 (National Investigation Agency Act - NIA Act) के प्रावधानों की व्याख्या की।

    गवाह सुरक्षा से संबंधित कानूनी प्रावधान (Statutory Provisions on Witness Protection)

    गवाह सुरक्षा (Witness Protection) के प्रावधान मुख्यतः CrPC की धारा 173(6), UAPA की धारा 44 और NIA Act की धारा 17 में निहित हैं। ये प्रावधान न्यायालय को यह अधिकार देते हैं कि वह गवाहों की पहचान और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठा सके।

    UAPA की धारा 44 यह अनुमति देती है कि सुनवाई (Proceedings) को कैमरे (In Camera) में किया जाए और गवाह की पहचान छिपाने के उपाय किए जाएं, यदि उनके जीवन को खतरा हो।

    इसी तरह, CrPC की धारा 173(6) पुलिस को यह अधिकार देती है कि गवाहों के बयान (Statements) के कुछ हिस्सों को छिपा दिया जाए, यदि उनके खुलासे से सार्वजनिक हित (Public Interest) या न्याय बाधित हो सकता है।

    इस मामले में, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये प्रावधान गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं और इनका उद्देश्य है कि गवाह सुरक्षित रहें और न्याय प्रक्रिया (Justice Process) प्रभावित न हो।

    CrPC की धारा 207 के तहत निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार (Right to a Fair Trial under Section 207 of the CrPC)

    CrPC की धारा 207 यह अनिवार्य करती है कि अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट और गवाहों के बयान की प्रतियां दी जाएं ताकि वह प्रभावी बचाव (Effective Defense) तैयार कर सके। यह प्रावधान प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत पर आधारित है कि बिना सुने किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

    हालांकि, यह अधिकार पूर्ण (Absolute) नहीं है। कानून यह अनुमति देता है कि गवाहों के बयानों के उन हिस्सों को छिपा दिया जाए, जिनसे उनकी सुरक्षा को खतरा हो सकता है।

    इस मामले में, अभियुक्त ने तर्क दिया कि गवाहों के संशोधित (Redacted) बयानों तक पहुंच न देना उनके निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है।

    निचली अदालत ने यह दलील स्वीकार की और अभियोजन पक्ष (Prosecution) को निर्देश दिया कि गवाहों की पहचान छिपाते हुए संशोधित बयान अभियुक्त को प्रदान किए जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने इस व्याख्या का समर्थन किया और यह सुनिश्चित किया कि गवाह सुरक्षा और अभियुक्त के अधिकारों के बीच संतुलन बना रहे।

    महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय (Judicial Precedents)

    इस निर्णय में कई पूर्ववर्ती मामलों (Prior Cases) का हवाला दिया गया। Mohd. Hussain v. State (GNCTD) (2012) में कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त को साक्ष्य (Evidence) तक पहुंचने का अधिकार है ताकि वह उचित बचाव कर सके।

    Sidhartha Vashisht @ Manu Sharma v. State (NCT of Delhi) (2010) में भी इसी प्रकार की बात कही गई कि अभियुक्त को सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ (Relevant Documents) प्रदान करना आवश्यक है।

    हालांकि, कोर्ट ने यह भी माना कि गवाह सुरक्षा कानून (Witness Protection Laws) विशेष परिस्थितियों (Exceptional Circumstances) में लागू होते हैं। Atul Shukla v. State of Madhya Pradesh (2019) में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गवाहों की सुरक्षा के लिए बयानों का खुलासा रोकना उचित है, बशर्ते यह अभियुक्त की रक्षा को कमजोर न करे।

    विरोधी हितों में सामंजस्य (Reconciling Competing Interests)

    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में प्रतिस्पर्धी कानूनी हितों के बीच संतुलन साधने का उत्कृष्ट कार्य किया। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ट्रायल (Trial) के दो चरण होते हैं—पहला चरण, जिसमें गवाह सुरक्षा के आदेश जारी किए जाते हैं, और दूसरा चरण, जिसमें अभियुक्त के साक्ष्यों तक पहुंच का अधिकार लागू होता है।

    कोर्ट ने कहा कि ये चरण अलग-अलग कानूनी सिद्धांतों (Legal Principles) से संचालित होते हैं और एक चरण में दिए गए आदेश दूसरे चरण को प्रभावित नहीं करते।

    कोर्ट ने यह भी माना कि संशोधित बयान (Redacted Statements) दोनों पक्षों के अधिकारों का सम्मान करते हैं। ये बयानों की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं लेकिन गवाहों की पहचान और सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।

    भविष्य के मामलों के लिए प्रभाव (Implications for Future Cases)

    Parra का यह निर्णय UAPA जैसे विशेष कानूनों (Special Statutes) से जुड़े मामलों के लिए महत्वपूर्ण है। यह न्यायालय की इस भूमिका को पुनः पुष्टि करता है कि संविधानिक अधिकारों (Constitutional Rights) की रक्षा करते हुए व्यावहारिक चुनौतियों (Practical Challenges) का समाधान किया जाए।

    यह निर्णय निचली अदालतों (Trial Courts) के लिए भी एक मार्गदर्शक (Guide) है, जो इसी प्रकार के मामलों को संभाल रही हैं। यह पारदर्शिता (Transparency) और गोपनीयता (Confidentiality) के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

    सुप्रीम कोर्ट का Waheed-ur-Rehman Parra में निर्णय इस बात का प्रमाण है कि चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में भी न्यायालय कानून के शासन (Rule of Law) को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।

    गवाह सुरक्षा और अभियुक्त के अधिकारों को संतुलित करके, कोर्ट ने एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individual Liberty) और सामूहिक सुरक्षा (Collective Security) दोनों का सम्मान करता है। यह निर्णय आने वाले वर्षों में भारत में गवाह सुरक्षा कानूनों की व्याख्या और अनुप्रयोग को प्रभावित करेगा।

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