जानिए सिविल मुक़दमे कहां दायर किए जा सकते हैं?

Idris Mohammad

25 July 2021 11:31 AM GMT

  • जानिए सिविल मुक़दमे कहां दायर किए जा सकते हैं?

    मुकदमा दायर करने के दौरान सर्व प्रथम यह निर्धारित करना आवश्यक है कि "मुकदमा कहाँ एवं किस कोर्ट / न्यायालय में दाखिल किया जायेगा?" कोई भी मुकदमा किसी भी स्थान / न्यायालय में दाखिल नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक न्यायालय को कुछ निश्चित प्रकार के मुक़दमे तय करने का अधिकार होता है।

    आमतौर पर मुक़दमे उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे संपत्ति, अनुबंध, अपकार, वैवाहिक कार्यवाही, आदि। किसी मुकदमे का विचार करने, निर्णय लेने और निर्णय लेने का न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र वाद की परिस्थितियों के आधार पर निर्भर होता है। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 से 20 मुकदमा दाखिल करने के स्थान एवं निर्धारित मंच/न्यायालय से संबंधित है।

    न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र:

    अधिकार-क्षेत्र एक न्यायालय की किसी मुक़दमे को सुनने और निर्धारित करने की न्यायिक शक्ति है।

    अधिकार-क्षेत्र मुख्य रूप से के आधार पर निम्न तीन विषयों पर तय किया जाता है:

    (1) मुक़दमे का आर्थिक मूल्य (आर्थिक मूल्य सम्बन्धी अधिकार-क्षेत्र)

    (2) मुक़दमे की प्रकृति (क्षेत्र-सीमा सम्बन्धी अधिकार-क्षेत्र)

    (3) न्यायालय की क्षेत्रीय सीमाएं (विषय वस्तु सम्बन्धी अधिकार-क्षेत्र)

    अतः किसी भी न्यायालय को किसी भी मुक़दमे पर सुनवाई शुरू करने से पहले उपरोक्त तीनों बिंदुओं पर गौर करना आवश्यक होता है एवं तीनों बिंदुओं पर संतुष्ट होने पर ही किसी मुक़दमे पर सुनवाई शुरू की जा सकती है।

    सर्वोच्च न्यायालय ने अब्दुल गफूर बनाम उत्तराखंड राज्य [2008 (10) एससीसी 97] के मामले में निर्धारित किया कि धारा 9 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार, सभी प्रकार के सिविल (दीवानी) विवादों में, सिविल न्यायालयों में अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र होता है जब तक कि उस अधिकार-क्षेत्र या उसके एक हिस्से को किसी अन्य ट्रिब्यूनल या प्राधिकरण को प्रदान नहीं किया गया हो।

    इस प्रकार, कानून प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पसंद के सिविल (दीवानी) प्रकृति का एक मुकदमें को अपने जोखिम पर, चाहे दावा कितना ही तुच्छ क्यों ना हो, दाखिल करने का एक अंतर्निहित अधिकार प्रदान करता है, जब तक कि यह किसी क़ानून द्वारा वर्जित न हो।

    धारा 9 सिविल प्रक्रिया संहिता - दीवानी न्यायालय (सिविल कोर्ट) का अधिकार क्षेत्र:

    धारा 9 के अनुसार दीवानी अदालतों के पास दीवानी प्रकृति के सभी मामलों से निपटने का अधिकार क्षेत्र है जब तक यह स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित नहीं है।

    धारा 9 कहीं पर भी "दीवानी (सिविल)" शब्द को परिभाषित नहीं करती है। किन्तु शाब्दिक व्याख्या के अनुसार यह आपराधिक और राजनीतिक से अलग निजी अधिकारों और उपचारों को शामिल करता है।

    दीवानी प्रकृति के किसी वाद को ऐसे वाद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें मामले में निर्धारण के लिए मौलिक प्रश्न नागरिकों के निजी अधिकारों से संबंधित हो। एक वाद को स्पष्ट रूप से वर्जित तब कहा जाता है जब कोई अधिनियम स्पष्ट रूप से लागू होता है जो स्पष्ट रूप से कुछ मामलों पर दीवानी न्यायालय की न्यायिक शक्ति को छीन लेता है।

    विधायिका (संसद और विधानसभा) भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति के दायरे में खुद को रखते हुए एक विशेष वर्ग के मुकदमे के संबंध में दीवानी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगा सकती है।

    सर्वोच्च न्यायालय ने अब्दुल गफूर बनाम उत्तराखंड राज्य [2008 (10) एससीसी 97] के मामले में निर्धारित किया कि धारा 9 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार, सभी प्रकार के सिविल (दीवानी) विवादों में, सिविल न्यायालयों में अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र होता है जब तक कि उस अधिकार-क्षेत्र या उसके एक हिस्से को किसी अन्य ट्रिब्यूनल या प्राधिकरण को प्रदान नहीं किया गया हो।

    इस प्रकार, कानून प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पसंद के सिविल (दीवानी) प्रकृति का एक मुकदमें को अपने जोखिम पर, चाहे दावा कितना ही तुच्छ क्यों ना हो, दाखिल करने का एक अंतर्निहित अधिकार प्रदान करता है, जब तक कि यह किसी क़ानून द्वारा वर्जित न हो।

    सर्वोच्च न्यायालय ने सी टी निकम बनाम अहमदाबाद नगर निगम [AIR 2002 SC 997] के मामले में निर्धारित किया कि औद्योगिक विवादों का निस्तारण दीवानी अदालतों में नहीं किया जा सकता है। यह औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत वर्जित है।

    माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हर्षद चमनलाल मोदी बनाम डीएलएफ यूनिवर्सल एंड अन्य, सिविल अपील संख्या 2726/2000, के मामले में कहा कि पार्टियों के समझौते से, उस अदालत को अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं किया जा सकता है जो अन्यथा उसके पास नहीं है।

    वाद के आर्थिक मूल्य से सम्बंधित अधिकार-क्षेत्र (धारा 15, सिविल प्रक्रिया संहिता):-

    सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 आर्थिक अधिकार-क्षेत्र के बारे में बताती है। हर मामला निचली अदालत में शुरू होना चाहिए। आर्थिक मूल्य के साथ निम्नतम श्रेणी का न्यायालय प्रथम दृष्टया मामले से निपटेगा।

    न्यायालय शुल्क (कोर्ट फीस) के प्रयोजनों के लिए मूल्य न्यायालय शुल्क अधिनियम, 1870 (संशोधित रूप में) द्वारा निर्धारित किया जाता है, और दावा मूल्यांकन अधिनियम, 1887 और उसके तहत बनाए गए नियमों द्वारा अधिकार क्षेत्र के प्रयोजनों के लिए निर्धारित किया जाता है।

    एक वाद का मूल्यांकन कैसे निर्धारित किया जाएगा?

    वादी अदालत के आर्थिक क्षेत्राधिकार का निर्धारण करने के उद्देश्य से वाद का मूल्यांकन करता है जब तक कि न्यायालय को प्रथम दृष्टया यह प्रतीत न हो कि मूल्यांकन सही ढंग से नहीं किया गया था।

    यदि अदालत को पता चलता है कि मूल्यांकन ठीक से नहीं किया गया था, तो अदालत इसे महत्व देगी और अदालत पक्ष को उचित मंच से संपर्क करने का निर्देश देगी।

    क्षेत्र सम्बन्धी अधिकार-क्षेत्र:-

    सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 16 से 20 क्षेत्र सम्बन्धी अधिकार-क्षेत्र के बारे में बताती है। क्षेत्र सम्बन्धी अधिकार-क्षेत्र तीन भागों में विभाजित है।

    वे इस प्रकार हैं:-

    (1) अचल संपत्ति से संबंधित वाद (धारा 16 से 18)

    (2) चल संपत्ति से संबंधित वाद (धारा 19)

    (3) अन्य वाद (मुक़दमे) (धारा 20)

    (1) अचल संपत्ति से संबंधित वाद (धारा 16 से 18)

    धारा 16 में कहा गया है कि अचल संपत्ति से संबंधित मामलों को वहां शुरू किया जाना चाहिए जहां ऐसी अचल संपत्ति स्थित है।

    धारा 16 मुख्य रूप से निम्नलिखित के संबंध में वाद की शुरुआत के बारे में बताती है: -

    (a) अचल संपत्ति की वसूली (मुनाफे या किराए के साथ या बिना)

    (b) अचल संपत्ति का बंटवारा

    (c) अचल संपत्ति पर प्रभार या बंधक के मामले में बिक्री या मुक्ति

    (d) अचल संपत्ति के लिए किए गए गलतियों के मुआवजे के लिए

    (e) अचल संपत्ति से संबंधित किसी भी अधिकार का निर्धारण

    (f) चल संपत्ति की जब्ती

    जहां 'X' स्थान पर स्थित बैंक द्वारा प्रतिवादी को दिए गए ऋण के लिए संपार्श्विक प्रतिभूति के रूप में संपत्ति गिरवी रखी गई हो तो बैंक द्वारा सम्पति सम्बंधित कार्यवाही के लिए मुकदमा केवल 'X' स्थान पर स्थित सिविल कोर्ट के समक्ष दायर किया जा सकता है।

    {सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया बनाम एलीना फस्टर्नर्स प्रा. लिमिटेड, AIR 1999 HP 104] धारा 17 बताती है कि जब दो या दो से अधिक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में स्थित अचल संपत्ति से संबंधित मुआवजा या राहत प्राप्त करने के लिए मुकदमा दायर किया जाता है, तो किसी भी अदालत में मुकदमा दायर किया जा सकता है जिसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र में संपत्ति का एक हिस्सा स्थित है। लेकिन वाद की विषय वस्तु के मूल्य के संबंध में, ऐसे न्यायालय द्वारा संपूर्ण दावा संज्ञेय है।

    जब न्यायालयों की स्थानीय सीमाओं का क्षेत्राधिकार अनिश्चित हो :

    धारा 18 बताती है कि जब न्यायालयों के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के संबंध में अनिश्चितता होती है, और कोई भी न्यायालय संतुष्ट हो जाता है कि अनिश्चितता का एक स्वीकार्य आधार है, तो वह मामले पर विचार कर सकता है और उसका निपटारा कर सकता है। ऐसे न्यायालय द्वारा पारित डिक्री का वही प्रभाव होगा जैसे कि संपत्ति उसके अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित थी।

    (2) चल संपत्ति से संबंधित वाद (धारा 19)

    इस धारा के तहत "व्यक्ति या व्यक्तिगत संपत्ति के लिए किए गए गलत के मुआवजे के लिए एक मुकदमा वादी के विकल्प पर लाया जा सकता है जहां या तो गलत किया गया है या जहां प्रतिवादी रहता है या व्यवसाय करता है या व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिए काम करता है।"

    पीपी प्रभारन बनाम चिकित्सा कार्यालय प्रभारी, [1984 एसीजे 747] में गुजरात उच्च न्यायालय ने माना है कि जिस स्थान पर किसी गलत के परिणामी प्रभावों को महसूस किया जाता है, वहां की अदालत को भी मुकदमा चलाने का अधिकार क्षेत्र है।

    धारा 19 "गलत किया गया" द्वारा उपयोग किये जाने वाले शब्द स्पष्ट रूप से न केवल शिकायत की प्रारंभिक कार्रवाई को देखेगी बल्कि इसके परिणामी प्रभाव और यातना से होने वाली क्षति भी कार्रवाई का को भी ध्यान में करेगी।

    (3) अन्य वाद (मुक़दमे) (धारा 20)

    धारा 20 यह सुनिश्चित करता है कि न्याय को हर आदमी के करीब लाया जा सके और प्रतिवादी को अपनी प्रतिरक्षा के लिए लंबी दूरी की यात्रा करने की परेशानी ना उठानी पड़े और व्यर्थ खर्च न उठाना पड़े।

    धारा 20 के खंड (क) और (ख) के प्रावधानों के पीछे सिद्धांत यह है कि मुकदमा उस स्थान पर स्थापित किया जाता है जहां प्रतिवादी बिना किसी परेशानी के मुकदमे का बचाव करने में सक्षम होता है।

    सुप्रीम कोर्ट ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य, [AIR 2014 SC 3519] के मामले में मुकदमा करने के स्थान के सवाल में सामंजस्य बिठाया है और यह निर्धारित किया है कि यह अदालत का प्रयास होना चाहिए कि वह उस स्थान का पता लगाए जहां कार्रवाई का कारण काफी हद तक उत्पन्न हुआ हो।

    यह भी माना गया है कि यदि प्रतिवादी निगम का अधीनस्थ कार्यालय उस स्थान पर है जहां कार्रवाई का कारण उत्पन्न होता है, तो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 में उल्लिखित विकल्पों की परवाह किए बिना, केवल उसी स्थान पर मुकदमेबाजी की जानी चाहिए।

    सुप्रीम कोर्ट ने किरण सिंह एवं अन्य बनाम चमन पासवान एवं अन्य AIR 1954 SC 340 के मामले में निर्धारित किया कि जब न्यायालय आर्थिक या क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार के संबंध में वाद को स्वीकार करने में कोई त्रुटि करता है तो ऐसे न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय अमान्य नहीं होगा बल्कि अधिकार क्षेत्र का अवैध प्रयोग माना जाएगा।

    यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम लाडूलाल जैन, [AIR 1963 SC 1681] के ममले में सुप्रीम कोर्ट ने सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20, खंड (क) और (ख) के प्रावधानों को सरकार की गतिविधि के संदर्भ में विचार किया और यह पाया गया कि अभिव्यक्ति "स्वेच्छा से रहता है" या "व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिए काम करता है" सरकार के मामले में उचित रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।

    हालाँकि, सरकार व्यवसाय कर सकती है और रेलवे की गतिविधि व्यवसाय चलाने का एक ऐसा कार्य है। इसलिए, भारत संघ पर उस न्यायालय में मुकदमा चलाया जा सकता है जिसके क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में संघ द्वारा संचालित रेलवे का मुख्यालय संबंधित पाया जाता है।

    अधिकार क्षेत्र से सम्बंधित आपत्ति:

    धारा 21 सिविल प्रक्रिया संहिता बताती है कि अदालत के अधिकार क्षेत्र में सभी आपत्तियों को जल्द से जल्द संभव अवसर पर ट्रायल कोर्ट (विचरण न्यायलय) में दर्ज किया जाना है। धारा 21 की उप धारा (1) और (2) क्रमशः सिविल न्यायालयों के क्षेत्रीय और आर्थिक क्षेत्राधिकार से संबंधित है।

    कोई भी अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय क्षेत्राधिकार पर किसी भी आपत्ति पर विचार नहीं करेगा, जब तक कि आपत्ति या तो प्रथम दृष्टया न्यायालय में दर्ज नहीं की जाती है या फिर जल्द से जल्द संभव समय पर।

    किसी भी मामले में, मामले के निपटारे से पहले आपत्ति दर्ज करनी होगी। अपीलीय न्यायालय आपत्ति पर तभी विचार कर सकता है जब गलत अधिकार-क्षेत्र के कारण गंभीर पूर्वाग्रह हुआ हो।

    अधिकार क्षेत्र सम्बन्धी दोष/आपत्ति किसी भी डिक्री/आदेश को पारित करने के न्यायालय के अधिकार पर सवालिया निशान खड़ा करती है और इस तरह के दोष को पक्षकारों की सहमति से भी ठीक नहीं किया जा सकता है।

    सर्वोच्च न्यायालय ने चीफ इंजीनियर हैडल प्रोजेक्ट बनाम रविंद्र नाथ, [AIR 2008 SC 1315], के मामले में निर्धारित किया कि एक बार मूल डिक्री / आदेश को अधिकार क्षेत्र के बिना पारित करने और कोरम नॉन जुडिस (Doctrine of Coram Non Judice) के सिद्धांत से प्रभावित होने के बाद, केवल इस आधार पर इसे बनाए रखने का कोई सवाल ही नहीं होगा कि अधिकार-क्षेत्र सम्बन्धी आपत्ति प्रारंभिक स्तर पर, प्रथम अपीलीय या द्वितीय अपीलीय चरण में नहीं लिया गया था।

    जब अधिकार-क्षेत्र को प्रतिबन्ध करने वाला कानून कोई वैकल्पिक उपचार न प्रदान करता हो:

    कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बार कौंसिल ऑफ़ वेस्ट बंगाल बनाम अजंता ऑगस्टिन [AIR 1979 Cal 35] में निर्धारित किया कि जब अधिकार क्षेत्र को प्रतिबंधित करने वाला क़ानून वैकल्पिक उपाय प्रदान नहीं करता है तो दीवानी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को बाहर नहीं किया जा सकता है।

    इस प्रकार एक निश्चित व्यवस्था तैयार की गयी है जिस से आम जान को सुविधा भी रहे और अस्तव्यस्तता भी उत्पन्न न हो। साथ ही विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग न्यायालयों को अधिकार-क्षेत्र प्रदान कर नागरिकों को शीघ्र न्याय प्रदान करना भी ध्यान में रखा गया है। श्रम न्यायलय, उपभोक्ता आयोग, पारिवारिक न्यायालय, आदि कुछ प्रमुख उदहारण है।

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