अजमानतीय अपराध की दशा में कब जमानत मिलती है

Shadab Salim

27 Oct 2022 8:43 AM GMT

  • अजमानतीय अपराध की दशा में कब जमानत मिलती है

    अजमानतीय अपराधों में अभियुक्त जमानत का एक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता है। ऐसे मामलों में जमानत देना या नहीं देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। अपराधों को दो प्रकार में बांटा गया है पहला जमानतीय अपराध और अजमानतीय अपराध। जमानतीय अपराधों में अधिकारपूर्वक जमानत मिलती है जबकि अजमानतीय अपराध की दशा में जमानत देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। इस आलेख में अजमानतीय अपराधों की दशा में कानून के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है।

    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 437 में इस संबंध में प्रावधान किया गया है। उपधारा (1) में यह कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति, जिस पर अजमानतीय अपराध का अभियोग है या जिस पर यह संदेह है कि उसने अजमानतीय अपराध किया है, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार या निरुद्ध किया जाता है या उच्च न्यायालय अथवा सेशन न्यायालय से भिन्न न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है तब वह जमानत पर छोड़ा जा सकता है-

    उपधारा (1) से यह स्पष्ट होता है कि जब पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा

    (i) किसी व्यक्ति को अजमानतीय अपराध में गिरफ्तार किया जाता है

    (ii) वारंट के बिना गिरफ्तार किया जाता है, या

    (ii) निरुद्ध किया जाता है,

    (iv) सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय के समक्ष लाया जाता है, तब ऐसे न्यायालय द्वारा उसे जमानत पर छोड़ा जा सकेगा।

    लेकिन ऐसे मामलों में जमानत से इन्कार किया जा सकेगा, यदि अपराध

    (क) मृत्यु दण्ड, अथवा

    (ख) आजीवन कारावास से दण्डनीय है।

    अभिप्राय यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय एवं सेशन न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा मृत्यु दण्ड अथवा आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराधों में अभियुक्त को सामान्यतः जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकेगा।

    साथ ही साथ ऐसे मामलों में भी अभियुक्त को जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकेगा, यदि

    (i) ऐसा अपराध संज्ञेय अपराध है

    (ii) अभियुक्त मृत्यु आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिए पहले दोषसिद्ध किया जा चुका है, या

    (ii) तीन वर्ष से अधिक किन्तु सात वर्ष से कम अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध में दो या अधिक बार दोषसिद्ध किया जा चुका है।

    लेकिन इसका भी एक 'अपवाद' है अर्थात् उपरोक्त मामलों में भी अभियुक्त को जमानत पर छोड़ा जा सकेगा यदि अभियुक्त

    (क) 16 वर्ष से कम आयु का है या

    (ख) स्त्री है; या

    (ग) रोगी अथवा शिथिलांग है।

    फिर ऐसे किसी मामले में जमानत का आदेश देने से पूर्व 'लोक अभियोजक' को सुना आवश्यक होगा जिसमें

    (i) मृत्युदण्ड.

    (ii) आजीवन कारावास, अथवा

    (iii) सात वर्ष से अधिक की सजा हो सकती है।

    उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय से भिन न्यायालयों की अजमानतीय अपराधों में जमानत स्वीकार किये जाने की शक्तियाँ सीमित हैं।

    विचारणीय बिन्दु- धारा 437 के अन्तर्गत जमानत के प्रार्थना पत्र पर विचार करते समय न्यायालय द्वारा निम्नांकित बातों पर ध्यान दिया जाना अपेक्षित है-

    (i) अपराध की गम्भीरता;

    (ii) दण्ड की मात्रा;

    (iii) साक्षियों को तोड़ने की आशंका

    (iv) प्रथम दृष्टया मामला, आदि।

    लोकेश सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि धारा 437 के अन्तर्गत जमानत के प्रार्थनापत्र के निस्तारण के समय न्यायालय को निम्नांकित बातों पर विचार करना चाहिये-

    (i) आरोप की प्रकृति,

    (ii) दण्ड की गंभीरता,

    (iii) साक्षियों को बहकाने फुसलाने की आशंका, तथा

    (iv) आरोप के समर्थन में न्यायालय का प्रथमदृष्टया समाधान ।

    जमानत के प्रार्थनापत्र पर विचार करते समय साक्ष्य के गुणागुण पर नहीं जाना चाहिये। जमानत के प्रार्थना पत्र के स्वीकार या अस्वीकार करने के कारण बता देना मात्र पर्याप्त है अभियुक्त का लम्बे समय से कारागार में होना अथवा मामले में समझौता होने की संभावना होना, जमानत के प्रार्थनापत्र को स्वीकार किये जाने का आधार नहीं हो सकता।

    वस्तुतः जमानत का आदेश देने या न देने से पूर्व न्यायालय को

    (1) व्यक्ति की स्वतंत्रता, एवं

    (2) समाज के हित; में संतुलन बनाये रखने का प्रयास करना चाहिये।

    जमानत का मुख्य उद्देश्य विचारण के दौरान अभियुक्त की उपस्थिति को सुनिश्चित करना है।

    इनका उद्देश्य

    (क) न तो दण्डात्मक है, और

    (ख) न ही निवारणात्मक है

    जमानत का आदेश निम्नांकित शर्तों के अध्यधीन हो सकेगा

    (i) यह कि अभियुक्त बन्धपत्र की शर्तों के अनुसार उपस्थित होता रहेगा,

    (ii) यह कि अभियुक्त अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करेगा, एवं

    (iii) यह कि अभियुक्त साक्षी को धमकी, लालच आदि के द्वारा तोड़ने का प्रयास नहीं करेगा।

    जमानत की उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय की विशेष शक्तियाँ -

    संहिता की धारा 439 में उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय की जमानत को विशेष शक्तियों का उल्लेख किया गया है।

    सेशन न्यायालय एवं उच्च न्यायालय ऐसे सभी मामलों में जमानत ले सकेगा जिनका उल्लेख धारा 437 में किया गया है।

    सामान्यत: जब धारा 437 के अन्तर्गत जमानत से इंकार कर दिया जाता है तब सेशन न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में जमानत के लिए आवेदन किया जाता है। धारा 439 के अन्तर्गत जमानत के प्रार्थनापत्र पर विचार करते समय न्यायालय से न्यायिक तौर पर कार्य करने की अपेक्षा की जाती है, स्वच्छन्द रूप से नहीं है।

    साथ ही जमानत का आदेश स्पष्ट एवं कारणयुक्त होना अपेक्षित है। जमानत का प्रार्थनापत्र स्वीकार करते समय युक्तियुक्त कारणों पर विचार किया जाना वांछनीय है। फिर जमानत की राशि का युक्तियुक्त होना भी आवश्यक है। जमानत की राशि इतनी हो कि अभियुक्त उसके लिए सक्षम नहीं हो। अत्यधिक राशि की अपेक्षा किया जाना जमानत से इंकार किये जाने के तुल्य है।

    जमानत स्वीकार करने का यह कारण भी नहीं हो सकता-

    (i) विचारण में विलम्ब होने की सम्भावना है,

    (ii) विचारण का मुकाबला करने वाला अन्य कोई व्यक्ति नहीं है, अथवा

    (iii) वह अस्वस्थ है।

    जमानत का निरस्त किया जाना

    धारा 439 की उपधारा (2) में जमानत को निरस्त किये जाने के बारे में प्रावधान किया गया है। इसमें यह कहा गया है कि "उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे इस अध्याय के अधीन जमानत पर छोड़ा जा चुका है, गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है और उसे अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है।

    सामान्यतः ऐसा तब किया जाता है, जब

    (i) अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित नहीं हो रहा हो, अथवा

    (ii) साक्षियों को तोड़ने का प्रयास कर रहा हो है

    असलम बाबालाल देसाई बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में जमानत निरस्त किये जाने के निम्नांकित आधार बताये गये हैं-

    (क) जब अभियुक्त अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर आपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त हो जाये,

    (ख) जब अभियुक्त अन्वेषण में बाधा उत्पन्न करे,

    (ग) जब अभियुक्त साक्षियों को तोड़ने लग जाये,

    (घ) जब अभियुक्त साक्षियों को धमकी देने लग जाये,

    (क) जब अभियुक्त के देश छोड़कर चले जाने की आशंका बन जाये

    (च) जब अभियुक्त अन्वेषण से बचने के उपाय करने लग जाये, जैसे छिप जाये, भूमिगत हो जाये, आदि।

    जेठा भाई ओड्रेदरा बनाम गंगा मालदे ओड्रेदरा के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ऐसे मामलों में जमानत को निरस्त नहीं किया जाना चाहिये, जिनमें अभियुक्त द्वारा-

    (1) साक्षियों को तोड़ने का प्रयास नहीं किया जा रहा हो, अथवा

    (2) ऐसा कोई कार्य नहीं किया जा रहा हो जिससे ऋतु विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो।

    Next Story