Constitution में डायरेक्टिव प्रिंसिपल क्या हैं?
Shadab Salim
13 Dec 2024 9:03 AM IST
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के भाग 3 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है, इसके ठीक बाद भाग 4 में राज्य की नीति के निदेशक तत्व का उल्लेख किया गया है। भाग 4 के आर्टिकल 36 से लेकर आर्टिकल 51 तक राज्य की नीति के निदेशक तत्व समाविष्ट किये गए हैं। राज्य की नीति के निदेशक तत्व से आशय संविधान द्वारा राज्य को निर्देश दिया गया है कि राज्य किस प्रकार के तत्वों पर अपनी नीतियों का निर्धारण करेगा। राज्य इन तत्वों को ध्यान में रखकर अपनी नीतियां बनाता है और उन नीतियों से इस देश का संचालन करता है।
मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व आपस में सहवर्ती है अर्थात एक तरफ नागरिकों को अधिकार दिए गए हैं तो दूसरी तरफ राज्य को नीति बनाने का निदेश दिया गया है। जिन अधिकारों का उल्लेख भाग 3 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों में किया गया है उन्हीं अधिकारों को पूरा करने के लिए दायित्व भाग 4 के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व में दिया गया है। इसलिए यह माना जा सकता है कि अगर राज्य अपनी नीतियों को बनाने में इन तत्व की सहायता ले तो नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार स्वतः ही प्राप्त हो जाएंगे।
संविधान के भाग 4 में उल्लेखित राज्य के नीति निदेशक तत्व आयरलैंड के संविधान से लिए गए हैं। नीति निदेशक तत्व जिनका पालन करना राज्य का लक्ष्य और उद्देश्य है।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के अंतर्गत नीति निदेशक तत्व उल्लेखित किए गए हैं और इन तत्वों को राज्य का कर्तव्य बनाया गया है। विचार का प्रश्न यह है कि इस परिभाषा के अंतर्गत राज्य कौन होगा राज्य के नीति निदेशक तत्वों से आशय केवल और केवल भारत की केंद्र सरकार नहीं है केवल भारत के विभिन्न प्रांतों की सरकार नहीं है अपितु राज्य का अर्थ हर वह सरकारी अधिकारी है जिसे सरकार द्वारा नियुक्त किया गया है।
इसके अंतर्गत केंद्र सरकार प्रांतों की सरकार स्थानीय मुंसिपल कॉरपोरेशन और समस्त सरकारी अधिकारी आते हैं जो जन कल्याण हेतु कार्य कर रहे हैं और राज्य के नीति निदेशक के अंतर्गत आर्टिकल 36 राज्य की परिभाषा प्रस्तुत करता है। आर्टिकल में स्पष्ट कह दिया गया है कि राज्य का वही अर्थ जो अर्थ मूल अधिकारों के संबंध में होता है।
नीति निर्देशक सिद्धांतों का मुख्य उद्देश्य विधानमंडल और कार्यपालिका तथा क्षेत्रीय और अन्य अधिकारियों के समक्ष एक मानदंड रखना है जिस पर उनकी सफलता और असफलता की जांच की जा सके। यह भी आशा की गई है कि जो इन निर्देशों को कार्यान्वित करने में सफल रहे हैं आम चुनाव के समय में उनको उचित शिक्षा मिल सकती है। यह ध्यान देने की बात है कि नीति निदेशक तत्व आर्थिक और सामाजिक आदर्श के किसी निश्चित प्रारूप का उल्लेख नहीं करते हैं विभिन्न लक्ष्यों की स्थापना करते हैं, जो समय-समय पर लागू की गई विधियों द्वारा विभिन्न तरीकों से प्राप्त किए जा सकते हैं।
डॉक्टर अंबेडकर ने यह स्पष्ट कहा था कि राज्य अपने नीति निदेशक तत्व को अपनी नीतियों में लागू नहीं करती है तो आम चुनाव में राज्य को इसका परिणाम भुगतना होगा। कोई भी जनता ऐसी सरकार को सत्ता में नहीं रहने देगी जो सरकार नागरिकों के कल्याण में कार्य नहीं करती। राज्य के नीति निर्देशक तत्व किसी कोर्ट द्वारा प्रवर्तनीय है नहीं होते हैं परंतु जनता इस प्रकार के तत्वों का पालन नहीं करने के परिणामस्वरूप सरकार को बदल सकती है।
नीति के निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वे लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करें जिनमें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हो, यह वह निर्देश है जो संविधान की प्रस्तावना में अंतर्निहित थे जिनके अनुसार राज्य का कर्तव्य अपने नागरिकों के लिए सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करें।
राज्य की नीति के निदेशक तत्व आर्टिकल 39 के अंतर्गत राज्य को विशेष रूप से अपनी नीति का कुछ इस प्रकार संचालन करने का निर्देश देते हैं कि पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो और समुदाय की भौतिक संपदा का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हितों का सर्वोत्तम साधन बन सके। इस खंड के अधीन जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्य उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण कर सकता है। आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधन का सर्वसाधारण के हित के लिए केंद्र न हो।
कर्मचारियों के स्वास्थ्य शक्ति का और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगार में न जाना पड़े जो उनकी उम्र और शक्ति के अनुकूल नहीं हो।
बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं और बाल को तथा अल्प आयु वाले व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक प्रत्यक्ष रक्षा की जाए।
बालकों के मामले में एमसी मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य 1996 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय समझौतों का हवाला देते हुए केंद्रीय और राज्य सरकारों को यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि बालक श्रम को तत्काल समाप्त करें और उनके पुनर्वास व कल्याण की व्यवस्था करें। कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि 14 वर्ष की आयु के बालक को किसी भी कारखाने या फैक्ट्री और अन्य संकटपूर्ण कार्य में नियुक्त नहीं किया जाएगा।
उन्हें निर्देश दिया कि उनके स्थान पर उनके परिवार के किसी सदस्य को काम दिया जाएगा। नियोजक प्रत्येक बालक को बीस हज़ार देगा जो बालक श्रम पुनर्वास कल्याण खाते में जमा करेगा यदि सरकार काम नहीं दे सकती तो वह पांच हजार खाते में जमा करेगी, ऐसा होने पर बालक को संकट पूर्ण काम से हटा लिया जाएगा और उसे इस रकम के ब्याज से 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा दिलाई जाएगी।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 39 के अनुसरण में संसद में सामान परिश्रमिक अधिनियम 1976 पारित किया है। रणधीर सिंह बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि समान कार्य के लिए समान वेतन संविधान के अधीन एक मूल अधिकार नहीं है पर एक नीति निदेशक तत्व है किंतु निश्चित ही यह एक संविधानिक लक्ष्य है, यदि राज्य इस मामले में विभेद करता है तो कोर्ट पालन करने के लिए आर्टिकल 32 के अधीन अपनी अधिकारिता का प्रयोग कर सकता है। स्त्री और पुरुषों में एक जैसे कार्य के लिए एक जैसा वेतन दिया जाएगा। लिंग के आधार पर वेतन देने में कोई भेदभाव नहीं होगा।
आर्टिकल 43 का राज्य से यह अपेक्षा करता है कि राज्य उपयुक्त विधान द्वारा एक किसी अन्य प्रकार से किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों व संस्थापकों अथवा अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मचारियों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएगा।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का आर्टिकल 41 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह अपनी सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर प्रत्येक व्यक्ति के लिए काम पाने शिक्षा पाने तथा बेकारी बुढ़ापा बीमारी अंग हानि तथा अयोग्यता अभाव की दशाओं में सार्वजनिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का कार्य साधक उपबंध करेगा।
आर्टिकल 42 राज्य को काम की न्याय संगत मनोविचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए प्रसूति सहायता का उपबंध करने के लिए निर्देश देगा।
आर्टिकल 46 राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह कर्मचारियों के काम निर्वाह मजदूरी शिष्ट जीवन और उसका संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करेगा विशेष रूप से ग्रामों में कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।
आर्टिकल 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक न्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी समीक्षा करेगा।
इस संशोधन द्वारा राज्य आर्टिकल 45 के स्थान पर नया आर्टिकल रखा गया है। आर्टिकल उपबंधित करता है कि राज्य 6 वर्ष की आयु के सभी बालकों के पूर्व बाल्य काल की देखरेख को शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करने के लिए उपबंध करेगा।
आर्टिकल 45 के अधीन राज्य को यह प्रथम कर्तव्य दिया गया है कि वह लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने के लिए लोक स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करें तथा विशिष्ट रूप से मादक पदार्थ और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के औषधि प्रयोजन को छोड़कर उपयोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करें। इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत की संसद द्वारा एनडीपीएस एक्ट 1985 बनाया गया है।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का आर्टिकल 40 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो। आर्टिकल 40 का उद्देश्य लोकतांत्रिक प्रणाली को ग्राम और नगर स्तर पर प्रारंभ करना है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का विचार यही था उन्होंने ग्राम राज्य की कल्पना की थी। संविधान लागू होने के पश्चात प्रदेश में ग्राम पंचायतों का गठन किया गया।
अनेक राज्यों ने इनके संगठन सुचारू रूप से संचालन के लिए कानून बनाया किंतु दुर्भाग्यवश पंचायत राज प्रणाली का कार्य संतोषजनक नहीं रहा। इनके चुनाव कभी भी समय पर नहीं हुए। पंचायती राज संस्थाओं का पूर्ण गठन सख्त करने के उद्देश्य से कांग्रेसी सरकार द्वारा 1990 में एक संविधान संशोधन विधेयक संसद में लाया गया किंतु वह पारित न हो सका। विपक्ष का यह आरोप था कि उत्तर विधायक कतिपय उपबंधों से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप होता है। 73 वें संशोधन अधिनियम 1992 को पारित करके पूरा किया गया है।
73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों के गठन निर्वाचन शक्तियां उत्तरदायित्व के लिए उपबंध किए गए। संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा नगर पालिकाओं के गठन, संरक्षण, शक्तियां और उत्तरदायित्व के बारे में आवश्यक उपबंध किए गए। उपर्युक्त नगर पालिकाओं के निर्वाचन को सुनिश्चित करने और लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई के रूप में विकसित किए गए।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का आर्टिकल 44 राज्य से अपेक्षा करता है कि वे नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करें जिससे देश में अखंडता की भावना का निर्माण हो। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक महत्व के निर्णय सरला मुदगल बनाम भारत संघ में प्रधानमंत्री से यह निवेदन किया कि संविधान में सभी नागरिकों के लिए एक समान सहिंता बनाने का निर्देश दिया गया और यह कहा गया कि ऐसा करना पीड़ित व्यक्ति की रक्षा तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता की अभिवृद्धि दोनों दृष्टि से आवश्यक है इसलिए इस पर शीघ्र से शीघ्र काम किया जाए।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का आर्टिकल 48 राज्य को निर्देश देता है कि वह कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों पर संगठित करने का प्रयास करेगा तथा विशेष रूप से गायों व बछड़ों और अन्य दुधारू और वाहक दोनों की नस्ल के परीक्षणों और सुधारने के लिए और उनके वध को प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।
आर्टिकल 48 यह अपेक्षा करता है कि राज्य देश के पर्यावरण की सुरक्षा तथा उसमें सुधार करने का और वन्यजीवों की रक्षा का प्रयास करेगा।
एम सी मेहता बनाम भारत संघ के मामले में यह कहा गया है कि आर्टिकल 48 ए निर्देश तत्व के अधीन केंद्र और राज्य सरकार का यह कर्तव्य है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए उचित कदम उठाए। पालन के लिए आदेश देने की शक्ति है
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया में यह सब नीति के निदेशक तत्व शामिल किए गए हैं। आर्टिकल 37 में स्पष्ट उल्लेख है कि नीति निदेशक तत्व सिद्धांत कोर्ट द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। इसलिए लोगों ने आलोचना की है कि नीति निदेशक तत्व केवल पवित्र घोषणाएं हैं इनमें कोई कानूनी बल नहीं है। हालांकि यह आलोचना तर्क के आधार पर निराधार है और इसका कोई अर्थ नहीं है। आर्टिकल से 37 का दूसरा भाग स्पष्ट कर देता है इसमे निहित तत्व देश के प्रशासन में मूलभूत हैं। विधि बनाने में इन तत्वों का प्रयोग राज्य का कर्तव्य होगा।
आज भारत की संसद और प्रांतों के विधान मंडल और नगर पालिकाओं द्वारा जितने भी कानून बनाए जा रहे हैं वह सभी कानून इन्हीं निदेशक तत्वों के अधीन बनाए जा रहे हैं। कोई भी कानून इन निदेशक तत्वों के खिलाफ होता है तो न्यायपालिका द्वारा उन कानूनों को अवैध घोषित कर दिया जाता है। इस बात का हमें ध्यान देना चाहिए कि भले ही यह निदेशक तत्व कोर्ट द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है परंतु जो भी कानून बनाया गया है वह तो इन निदेशक तत्वों के अधीन ही बनाया गया है क्योंकि यह कानून बनाने की ओर इशारा इंगित कर रहे हैं।
यह कहना सही नहीं है कि इन के पीछे कोई बल नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमत सबसे बड़ी शक्ति है। संसदीय प्रणाली में सरकारों की निरंतर आलोचना होती है। संसद में जनता के प्रतिनिधियों का तथा विशेष रूप से विपक्षी दलों के सदस्यों को सरकार द्वारा किए गए कार्यों का मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है। यदि कोई सरकारी निर्देशों की अपेक्षा करती है तो उसे चुनाव के समय जनता के समक्ष इसका उत्तर देना पड़ता है।
जनता के निर्देशों की उपेक्षा करने वाली सरकार को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती है क्योंकि निदेशक तत्व संविधान में निहित है इसलिए सरकार का यह कर्तव्य है कि इनको लागू करें। यह सच है कि इसके पीछे कोई बल नहीं है किंतु अप्रत्यक्ष शक्ति ज़रूर है। कोई भी सरकार जो अपना भविष्य अंधकार में नहीं बनाना चाहती इन निर्देशों की उपेक्षा करने का साहस नहीं करेगी।