मानसिक रूप से अस्वस्थता के बाद ठीक हुए आरोपी की सुनवाई और न्यायिक प्रक्रिया : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 372

Himanshu Mishra

26 Feb 2025 12:43 PM

  • मानसिक रूप से अस्वस्थता के बाद ठीक हुए आरोपी की सुनवाई और न्यायिक प्रक्रिया : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 372

    भारत की न्याय व्यवस्था (Justice System) यह सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई है कि हर व्यक्ति को निष्पक्ष (Fair) और न्यायसंगत (Just) सुनवाई मिले, चाहे वह मानसिक रूप से स्वस्थ हो या नहीं।

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) में ऐसे मामलों के लिए विस्तृत प्रावधान दिए गए हैं, जहां आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ (Unsound Mind) होने के कारण मुकदमे की सुनवाई में असमर्थ हो। लेकिन जब वही व्यक्ति मानसिक रूप से ठीक हो जाता है, तो उसके खिलाफ कानूनी प्रक्रिया (Legal Process) कैसे आगे बढ़ेगी, यह धारा 372 में स्पष्ट किया गया है।

    यह धारा तब लागू होती है जब कोई आरोपी, जो पहले मानसिक रूप से अस्वस्थ था, अब सुनवाई के समय मानसिक रूप से स्वस्थ प्रतीत होता है। इस स्थिति में मजिस्ट्रेट (Magistrate) को यह देखना होता है कि क्या आरोपी ने ऐसा कोई कृत्य (Act) किया था, जो अगर एक मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति द्वारा किया जाता, तो वह अपराध (Offense) माना जाता। यदि ऐसा है, तो मामला आगे बढ़ाया जाता है और यदि अपराध गंभीर हो तो उसे सत्र न्यायालय (Court of Session) के समक्ष भेजा जाता है।

    यह लेख धारा 372 की पूरी व्याख्या करेगा और इसे पहले की धाराओं—धारा 367, 368, 369, 370 और 371—के साथ जोड़कर समझाएगा ताकि इसकी पूरी प्रक्रिया स्पष्ट हो सके।

    पृष्ठभूमि (Background): पहले की धाराओं का महत्व

    धारा 372 को पूरी तरह समझने के लिए, पहले की धाराओं को संक्षेप में समझना आवश्यक है।

    • धारा 367: जब मजिस्ट्रेट को यह संदेह (Doubt) होता है कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ हो सकता है, तो वह जांच (Inquiry) करता है कि क्या आरोपी अपना बचाव (Defense) कर सकता है या नहीं।

    • धारा 368: यदि आरोपी को मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है, तो मुकदमा स्थगित (Postponed) कर दिया जाता है और उसे मानसिक चिकित्सा (Psychiatric Treatment) के लिए भेजा जाता है।

    • धारा 369: यदि आरोपी को गंभीर मानसिक बीमारी (Mental Illness) हो और वह उपचार (Treatment) के लिए अस्पताल में भर्ती करने योग्य हो, तो उसे सरकारी मानसिक स्वास्थ्य संस्थान (Mental Health Facility) भेजा जाता है।

    • धारा 370: यदि आरोपी इलाज के बाद ठीक हो जाता है, तो मुकदमे की सुनवाई फिर से शुरू की जा सकती है।

    • धारा 371: जब आरोपी को फिर से अदालत (Court) में लाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उसकी मानसिक स्थिति (Mental Condition) की दोबारा जांच करता है। यदि आरोपी स्वस्थ प्रतीत होता है, तो मुकदमा आगे बढ़ाया जाता है।

    इन सभी धाराओं के बाद धारा 372 लागू होती है, जिसमें यह निर्धारित किया जाता है कि जब आरोपी मानसिक रूप से ठीक हो गया हो, तो कानूनी प्रक्रिया कैसे आगे बढ़ेगी।

    धारा 372 का विस्तृत विश्लेषण (Detailed Analysis of Section 372)

    धारा 372 कहती है कि यदि सुनवाई के समय आरोपी मानसिक रूप से स्वस्थ प्रतीत होता है और मजिस्ट्रेट को सबूतों (Evidence) के आधार पर यह विश्वास हो जाता है कि आरोपी ने कोई ऐसा कृत्य किया था, जो अगर एक मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति करता, तो वह अपराध माना जाता, तो मजिस्ट्रेट मामले को आगे बढ़ाएगा।

    हालांकि, यह भी ध्यान देना होगा कि जब आरोपी ने अपराध किया था, तब वह मानसिक रूप से अस्वस्थ था और उसे यह समझ नहीं थी कि वह जो कर रहा है वह गलत है या कानून के विरुद्ध (Contrary to Law) है। लेकिन अगर वह अब मानसिक रूप से स्वस्थ है, तो उसका मुकदमा जारी रहेगा।

    यदि अपराध गंभीर (Serious Offense) हो और उसकी सुनवाई मजिस्ट्रेट के क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) से बाहर हो, तो वह मामला सत्र न्यायालय (Court of Session) में भेजा जाएगा।

    आरोपी की मानसिक स्थिति और अपराध का संबंध (Mental Condition and Nature of the Offense)

    धारा 372 का मुख्य आधार यह है कि किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति और उसके किए गए कार्य के बीच सीधा संबंध होता है। यदि आरोपी को अब मानसिक रूप से स्वस्थ माना जाता है, तो न्यायालय का ध्यान इस बात पर जाता है कि क्या उसने ऐसा कोई कृत्य किया था, जो एक सामान्य व्यक्ति द्वारा किया जाता तो वह अपराध माना जाता।

    उदाहरण के लिए:

    मान लीजिए अर्जुन नाम का व्यक्ति सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने (Vandalism) के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। जब उसने यह कृत्य किया, तब वह मानसिक रूप से अस्वस्थ था। इसलिए मुकदमे को रोक दिया गया और उसे मानसिक उपचार (Mental Treatment) के लिए भेजा गया।

    कुछ महीनों के बाद, डॉक्टरों ने उसे मानसिक रूप से ठीक घोषित कर दिया और उसे अदालत में पेश किया गया। इस स्थिति में, यदि मजिस्ट्रेट को यह विश्वास हो जाता है कि अर्जुन ने जो किया, वह अपराध की श्रेणी में आता है, तो उसका मुकदमा आगे बढ़ाया जाएगा।

    मजिस्ट्रेट की भूमिका (Role of the Magistrate)

    धारा 372 के तहत मजिस्ट्रेट की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। उसे निम्नलिखित दो पहलुओं (Aspects) पर ध्यान देना होता है:

    1. क्या आरोपी मानसिक रूप से स्वस्थ है? – मजिस्ट्रेट को आरोपी की वर्तमान मानसिक स्थिति को देखने के लिए विशेषज्ञों की राय (Expert Opinion) और अन्य सबूतों का विश्लेषण करना होगा।

    2. क्या आरोपी ने ऐसा कृत्य किया, जो अपराध माना जाएगा? – मजिस्ट्रेट को यह देखना होगा कि अगर आरोपी मानसिक रूप से स्वस्थ होता, तो क्या उसका कृत्य एक अपराध के रूप में स्वीकार्य होता।

    यदि इन दोनों शर्तों को पूरा किया जाता है, तो मुकदमा फिर से शुरू कर दिया जाता है। यदि अपराध गंभीर होता है, तो आरोपी को सत्र न्यायालय में भेज दिया जाता है।

    सत्र न्यायालय को मामला सौंपना (Committing the Case to the Court of Session)

    यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अपराध ऐसा है, जिसकी सुनवाई मजिस्ट्रेट कोर्ट में नहीं हो सकती, तो वह मामला सत्र न्यायालय को सौंप देगा।

    उदाहरण के लिए:

    नीरज नाम का व्यक्ति एक बड़े आर्थिक अपराध (Economic Offense) में शामिल था। जब उसने यह अपराध किया, तब वह मानसिक रूप से अस्वस्थ था। उसका इलाज होने के बाद, जब उसे अदालत में लाया गया, तो मजिस्ट्रेट ने पाया कि यदि यह अपराध किसी मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति द्वारा किया जाता, तो यह एक गंभीर अपराध होता। इसलिए, मजिस्ट्रेट ने नीरज को सत्र न्यायालय में भेज दिया।

    धारा 372 यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी व्यक्ति मानसिक अस्वस्थता का दुरुपयोग (Misuse) करके अपराध से बच न सके। यह धारा कहती है कि यदि आरोपी मानसिक रूप से ठीक हो जाता है और उसने ऐसा कृत्य किया था, जो अपराध की श्रेणी में आता है, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई (Legal Action) की जाएगी।

    इसके साथ ही, यह धारा यह भी सुनिश्चित करती है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को सही उपचार (Proper Treatment) मिले और उसके साथ न्याय किया जाए। इस प्रकार, धारा 372 एक संतुलन (Balance) बनाए रखती है—मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपियों के अधिकारों की रक्षा भी करती है और न्याय प्रणाली (Judicial System) को दुरुपयोग से बचाती है।

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