एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 23: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत वारंट जारी करने की शक्ति

Shadab Salim

4 March 2023 10:01 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 23: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत वारंट जारी करने की शक्ति

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 41 एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत होने वाले अपराधों के संबंध मजिस्ट्रेट और महानगर मजिस्ट्रेट को वारंट जारी करने की शक्ति देती है। मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट के पास जब विश्वास करने का यह कारण हो कि किसी व्यवस्था के कब्जे में कोई प्रतिबंधित प्रदार्थ है तब वह मजिस्ट्रेट उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर सकता है, इस हेतु धारा 41 मजिस्ट्रेट को शक्तिसंपन्न करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 41 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 41

    वारंट जारी करने की शक्ति और प्राधिकार- महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट या इस निमित्त राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से सशक्त द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए, जिसके बारे में उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसने इस अधिनियम के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध किया है, या किसी ऐसे भवन, प्रवहण या स्थान की, दिन में या रात में, तलाशी के लिए जिसके बारे में उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि वहां कोई ऐसी स्वापक औषधि या मनःप्रभावी पदार्थ या नियंत्रित पदार्थ जिसकी बाबत इस अधिनियम के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध किया गया है, या कोई ऐसी दस्तावेज या अन्य वस्तु, जो ऐसे अपराध के किए जाने का साक्ष्य हो सकती है, या अविधिमान्य रुप से अर्जित कोई संपत्ति या कोई ऐसा दस्तावेज या अन्य वस्तु जो ऐसी अविधिमान्य तौर पर अर्जित संपत्ति को जो कि इस अधिनियम के अध्याय 5क के अधीन जब्ती अथवा रोक अथवा समपहरण के लिए दायी हो को धारित करने का साक्ष्य हो सकती है, रखी या छिपाई गई है वारंट जारी कर सकेगा।

    (2) केन्द्रीय उत्पाद शुल्क, स्वापक, सीमाशुल्क, राजस्व आसूचना या केन्द्रीय सरकार के किसी अन्य विभाग का या सीमा सुरक्षा बल का राजपत्रित पंक्ति का ऐसा कोई अधिकारी जिसे केन्द्रीय सरकार द्वारा, साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त सशक्त किया जाता है, अथवा किसी राज्य सरकार के राजस्व, औषधि नियंत्रण, उत्पाद शुल्क, पुलिस या किसी अन्य विभाग का कोई अधिकारी, जिसे राज्य सरकार के साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त सशत किया जाता है यदि उसके पास व्यक्तिगत जानकारी या किसी व्यक्ति द्वारा दी गई और लिखी गई इतिला से यह विश्वास करने का कारण है कि किसी व्यक्ति ने इस अधिनियम के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध किया है, अथवा कोई ऐसी स्वापक औषधि या मनःप्रभावी पदार्थ अथवा नियंत्रित पदार्थ जिसके बाबत इस अधिनियम के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध किया गया है या कोई ऐसा दस्तावेज या अन्य वस्तु जो ऐसी अविधिमान्य अर्जित संपत्ति धारण करने का साक्ष्य हो सकती हैं जो कि इस अधिनियम के अध्याय 5क के अधीन जब्ती अथवा रोक अथवा समपहरण के लिए दायी है उसको किसी भवन, प्रवहण या स्थान में रखी या छिपाई गई है, अपने अधीनस्थ किंतु किसी चपरासी, सिपाही या कांस्टेबल की पंक्ति से वरिष्ठ किसी अधिकारी को ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए अथवा किसी भवन, प्रवहण या स्थान की, दिन या रात में, तलाशी लेने के लिए प्राधिकृत कर सकेगा अथवा स्वयं ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकेगा या ऐसे भवन, प्रवहण या स्थान की तलाशी ले सकेगा।

    (3) ऐसे अधिकारी को, जिसको उपधारा (1) के अधीन वारंट संबोधित किया जाता है और ऐसे अधिकारी को, जो गिरफ्तारी या तलाश को प्राधिकृत करता है, या ऐसे अधिकारी को, जिसे उपधारा (2) के अधीन इस प्रकार प्राधिकृत किया जाता है, धारा 42 के अधीन कार्य करने वाले अधिकारी की सभी शक्तियां होंगी।

    एक प्रकरण में इस आशय का तर्क दिया गया था कि गिरफ्तारी वांरट जारी करने की शक्ति मात्र मजिस्ट्रेट में विहित हैं न कि विशेष न्यायालय में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनियम की धारा 41 विशेष न्यायालय में अधिनियम की धारा 36क के द्वारा विहित शक्तियों को परे नहीं करती है। अतः उक्त तर्क को स्वीकार योग्य नहीं माना गया।

    कमलचंद बनाम स्टेट, 2005 क्रिलॉज 95 उत्तरांचल 2001 के मामले में संशोधित अधिनियम की प्रयोज्यता लंबित अपीलों में नहीं वर्ष 2001 के संशोधित अधिनियम की प्रयोज्यता लंबित अपीलों में नहीं मानी गयी।

    हालांकि मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 22 के मामले में जहाँ 20 वर्ष के सश्रम निरोध व 2 लाख रुपए जुर्माने को अधिरोपित किया गया था उसे घटाकर न्यूनतम दंडादेश 10 वर्ष के सश्रम निरोध व 1 लाख रुपए के जुर्माने के रुप में घटा दिया गया।

    एक प्रकरण में इस आशय का तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 41 व 42 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। एएसआई जिसके द्वारा जानकारी प्राप्त की गयी थी वह नाम अभिलिखित करने में विफल रहा था। इस तथ्य को उसने न्यायालय के समक्ष दिए गए कथन में मंजूर किया था।

    अभियुक्त के अधिवक्ता के द्वारा न्याय दृष्टांत स्टेट ऑफ बिहार बनाम कपिल सिंह, एआईआर 1969 सुप्रीम कोर्ट 53 के पद 10 पर निर्भरता व्यक्त करते हुए यह तर्क दिया गया कि ढाबा में प्रविष्ट होने के पूर्व पुलिसजन ने एवं तलाशी दल में साथ होने वाले साक्षीगण ने उनकी खुद की तलाशी नहीं दी थी। श्री आर. एस. सिंह, अमरसिंह व मुख्य आरक्षक की साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त को मिथ्या लिप्त किए जाने की संभावना को दूर करने के लिए परिकल्पित विधिक अपेक्षाओं का पालन नहीं किया गया था।

    यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 50 के तहत तलाशी संचालित करने वाले पुलिस अधिकारी के लिए यह आबद्धकारी था कि वह अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करवाए जाने के विकल्प को चुनने के अधिकार से अवगत कराता।

    अभियोजन साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त को ऐसी कोई सूचना नहीं दी गई और इस कारण वह कथित प्रावधान के अधीन उसके विकल्प का उपयोग नहीं कर सका था। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि आक्षेपित दोषसिद्धि करने में गंभीर दुर्बलता थी। परिणामतः दोषसिद्धि व दंडादेश स्थिर रखने योग्य नहीं है।

    गुरुचरणसिंह बनाम स्टेट ऑफ एमपी., 1992 (1) म.प्र.वी. नो. 63 म.प्र के मामले में इन लचरताओं को स्पष्ट नहीं किया जा सका था। अभियोजन का मामला किसी एक दुर्बलता से ग्रसित नही था अपितु अधिनियम की धारा 41, 42 व 50 के प्रावधान के उल्लंघन के रुप में गंभीर दुर्बलताएँ थीं। महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि अभियुक्त के पेंट की जेब से प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी हुई थी परन्तु यह तथ्य जब्ती पत्रक में वर्णित नहीं था।

    उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि इस तरह के मामलों में जहां कि 10 वर्ष के निरोध की सजा हो व 1,00,000 रुपए के जुर्माने को अधिरोपित किया जा सकता हो, जांच करने वाले अधिकारी से प्रक्रियात्मक आबद्धताओं के प्रति पूरी तौर पर सजग व निष्ठापूर्ण होने की प्रत्याशा की जाती है। ऊपर इंगित दुर्बलताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि अभियुक्त को उसकी प्रतिरक्षा में सारवान प्रतिकूलता हुई थी। परिणामतः अभियुक्त को दोषी माने जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    एक अन्य मामले में अधिकृत व्यक्ति के द्वारा की गई बरामदगी व तलाशी की कार्यवाही के आधार पर संस्थित कार्यवाही त्रुटिपूर्ण मानी गई। आरोप निरस्तीयोग्य माना गया।

    अक्षम अधिकारी के द्वारा की गई तलाशी व जब्ती की कार्यवाही अक्षम अधिकारी के द्वारा की गई तलाशी व जब्ती की कार्यवाही के आधार पर दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं होगी।

    अधिनियम की धारा 41(2) एवं धारा 42 (1) में यथादर्शित मात्र सशक्त अधिकारीगण अथवा सम्यक तौर पर कार्यरत अधिकारीगण ही ऐसी तलाशी अथवा गिरफ्तारी की कार्यवाही कर सकते हैं। यदि ऐसी गिरफ्तारी अथवा तलाशी ऐसे अधिकारीगण के अलावा किसी अन्य के द्वारा हो तो यह विधिक नहीं होगी।

    महेश चन्द बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1991 (1) म.प्र.वी. नो. 213 म.प्र के मामले में एक प्रकरण में अभियुक्त से पर्याप्त मात्रा में स्मैक की बरामदगी की गई थी। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त से 8 किलोग्राम अफीम भी बरामद हुई थी। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त से 4 किलोग्राम अफीम की बरामदगी हुई थी।

    आक्षेपित आदेश के द्वारा इन तीनों प्रकरणों का निराकरण किया गया। यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 41, 42, 50 व 52 में प्रावधानित तलाशी एवं गिरफ्तारी आदि की प्रक्रिया के प्रावधानों का पूर्ण पालन किए जाने के अभाव में अभियुक्त को जमानत पर निर्गुक्त कर देना चाहिए क्योंकि इन प्रावधानों की प्रकृति आदेशात्मक है।

    इस संबंध में निम्न न्याय दृष्टांत पर निर्भरता व्यक्त की गई थी-

    मरिप्पा वाला मामला, 1990 म.प्र. लॉज. 621 हाईकोर्ट ने व्यक्त किया कि मरिप्पा वाले निर्णय के पद 26 के विचार से यह प्रतीत होता है कि अधिनियम के अधीन प्रावधानित प्रक्रियात्मक संरक्षण का पालन होना अथवा अन्यथा होना अभियोजन के परिणाम पर सारवान प्रभाव डालेगा और इस आधार पर यह विश्वास गठित करने में सहायता उपलब्ध होगी कि क्या अभियुक्त आरोपित अपराध का दोषी नहीं है।

    उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त किया कि मरिप्पा वाले न्याय दृष्टांत में यह अभिनिर्धारित नहीं किया गया है कि प्रक्रियात्मक संरक्षण को अनुसरित करने में विफलता का परिणाम जमानत प्रदान करने के अधिकार के रुप में हो जाएगा।

    अधिनियम की धारा 37 के अधीन जमानत प्रदान करने के संबंध में मस्तिष्क निर्मित करने हेतु प्रक्रियात्मक संरक्षण को अनुसरित करने में विफलता को विचारयोग्य एक कारण माना जा सकता है। मामले के जो तथ्य व परिस्थितियां थीं उनके आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकलता था कि अभियुक्त अधिनियम की धारा 8/18 के संबंध में दोषी नहीं हो सकता है। परिणामतः जमानत प्रदान किए जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई। इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया कि अभी रासायनिक परीक्षण की रिपोर्ट आना शेष थी और अन्वेषण जारी था।

    स्वर्णकी बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2006 क्रिलॉज 65 केरल के मामले में उपलब्ध साक्ष्य की विवेचना की गई। उपलब्ध साक्ष्य की विवेचना से यह निष्कर्ष निकलता था कि तलाशी व जब्ती की कार्यवाही विधि अनुसार की गई थी। इन परिस्थितियों में अभियुक्त को दोषसिद्ध किए जाने का निष्कर्ष दिया गया।

    सनत कुमार बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 2005 क्रिलॉज 2272 म.प्र के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/22 के तहत दोषसिद्ध किया था। इस संबंध में इस पर 10 वर्ष का सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया था। अपीलांट अभियुक्त ने दोषसिद्धि को इस आधार पर चुनौती दी थी कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52 एवं 57 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि इस संबंध में अभियुक्त के एडवोकेट द्वारा लगाया गया आरोप सही व उचित होना पाया जाता है।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने यह बताया था कि उसने अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी करने के उसके अधिकार बाबत अवगत करा दिया था। एस.डी.ओ.पी. अभियोजन साक्षी 6 ने यह नहीं बताया था कि उसने अभियुक्त को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी द्वारा तलाशी करवाने के अभियुक्त के अधिकार को अभियुक्त को बता दिया था।

    एस.डी.ओ.पी. अभियोजन साक्षी 6 ने यह बताया था कि उससे यह कहा गया था कि वह एक राजपत्रित अधिकारी है और वह तलाशी या तो स्टेशन हाउस ऑफीसर को दे सकता है अथवा राजपत्रित अधिकारी को दे सकता है। उपरोक्त कथित खंडन के आधार पर यह स्पष्ट था कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाए जाने के अधिकार बाबत अवगत कराया गया था।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि उसने रोजनामचा में गोपनीय सूचना अभिलिखित की थी व गोपनीय सूचना को आरक्षक के माध्यम से एस.डी.ओ.पी, आगर को भेजा गया था। इसके उपरांत एस.डी.ओ.पी. आगर पुलिस स्टेशन पर आ गया था। मामले में अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से एस.डी.ओ.पी. आगर के लिए गोपनीय सूचना प्राप्त की थी।

    एस.डी.ओ.पी. ने भी यह नहीं बताया था कि उसने आरक्षक के माध्यम से सूचना प्राप्त हुई थी। इसके विपरीत उसने बताया था कि स्टेशन हाउस ऑफीसर के द्वारा उसे टेलीफोन पर अवगत कराया गया था कि अभियुक्त के बाबत गोपनीय सूचना प्राप्त हुई थी। इस प्रकार यह प्रमाणित होना नहीं माना गया कि स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 में आरक्षक के माध्यम से वरिष्ठ प्राधिकारियों को सूचित किया था।

    इस प्रकार अधिनियम की धारा 42 का पालन भी संदेहास्पद माना गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियोजन ने यह दर्शित करने के लिए कोई साक्षी अथवा दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की थी कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के उपरांत उसके आधिपत्य से स्मैक की बरामदगी के संबंध में अधिनियम की धारा 57 में यथाप्रावधानित अनुसार सूचना को वरिष्ठ प्राधिकारियों को भेजी गई थी।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने अधिनियम की धारा 57 के पालन के संबंध में एक शब्द भी नहीं बताया था। इस प्रकार अधिनियम की धारा 57 के प्रावधानों का भी अपालन होना पाया गया। स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि जप्त प्रतिषिद्ध वस्तु को नमूनों के साथ पुलिस स्टेशन के मालखाना में रखा गया था। अभियोजन ने मालखाना के मुख्य आरक्षक को यह प्रमाणित करने के लिए परीक्षित नहीं कराया था कि इसे सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था। मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि भी प्रस्तुत नहीं की गई थी।

    अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण भी नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से फोरेंसिक साइंस लेबोटरी इंदौर के लिए नमूना प्राप्त किया था यह दर्शित करने की कोई साक्ष्य नहीं थी कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरी को नमूना भेजने के पूर्व इसे पुलिस स्टेशन में सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था एवं नमूना अक्किल व सीलयुक्त बना रहा था।

    म.प्र. हाई कोर्ट ने स्वापक औषधि अधिनियम के तहत होने वाले गंभीर दंडादेश को दृष्टिगत रखते हुए यह व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52, 55 एवं 57 के प्रावधान का उल्लंघन जप्ती की साखता एवं उचितता पर संदेह उत्पन्न करता है। अधिनियम की धारा 42, 50, 52, 55 एवं 57 के प्रावधान के अपालन के आधार पर तलाशी व जप्ती दूषित होना मानी गई। अभियुक्त की दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं मानी गई।

    सैय्यद मोहम्मद बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 1995 (3) सुप्रीम कोर्ट केस. 610 के मामले में जब अधिकारी के द्वारा यह साक्ष्य नहीं दी गई हो कि उसने आदेशित प्रक्रिया का अनुसरण किया था तो न्यायालय यह निष्कर्ष निकालने के लिए कर्तव्यबद्ध होगा कि अभियुक्त को अधिनियम के तहत संरक्षण का लाभ उपलब्ध नहीं कराया गया था और इसलिए अधिनियम के अधीन उसका वस्तुओं पर आधिपत्य प्रमाणित नहीं किया गया है। अभियुक्त दोषमुक्ति का हकदार होगा।

    बालू बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2004 (3) क्राइम्स 143 राजस्थान के मामले में यदि वह व्यक्ति जिसकी तलाशी ली जाना है, यदि अपेक्षा करता है तो यह अधिकारी जो कि अधिनियम की धारा 41 एवं धारा 42 के प्रावधानों के अधीन उसकी तलाशी करने वाला हो बिना किसी अनावश्यक विलंब के अधिनियम की धारा 42 में वर्णित विभागों के किसी नजदीकी राजपत्रित अधिकारी को अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट से जाएगा। राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट जिसके समक्ष ऐसे व्यक्ति को लाया जाता है यदि तलाशी के कोई युक्तियुक्त आधार नहीं देखता है तो उसे तत्काल उन्मोचित कर देगा।

    आयस बनाम स्टेट, 2005 क्रिलॉज. एन.ओ.सी. 96 उत्तरांचल के मामले में 500 ग्राम चरस के मामले में अभियुक्त पर 10 वर्ष के सश्रम निरोध को अधिरोपित किया गया था। क्या मामले में 2001 के अधिनियम क्रमांक 9 के प्रावधान प्रयोज्य होंगे अथवा नहीं यह बिन्दु विचारणीय था। अपितु अपील को संशोधित अधिनियम के प्रधानों के प्रभावी होने के उपरांत फाइल किया गया था। यह माना गया कि संशोधित अधिनियम की धारा 41 के प्रावधान के विचार से 2001 के अधिनियम संशोधित अधिनियम के प्रावधान प्रयोज्य होंगे। 500 ग्राम चरस की मात्रा इस मामले में थी।

    वर्तमान मामले में 500 ग्राम चरस था जो कि अल्प मात्रा व व्यवसायिक मात्रा के मध्य था। ऐसी स्थिति में 10 वर्ष के सश्रम निरोध व 1,00,000 रामर मनि के दण्डादेश को समुचित नहीं माना गया अपितु पूर्व में व्यतीत निरोध की अवधि व 10,000 पर जुर्माना समुचित माना गया। इस मामले में अभियुक्त लगभग 7 वर्ष निरोध में रहा था।

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