एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 17: एनडीपीएस एक्ट से संबंधित अपराधों का दुष्प्रेरण और आपराधिक षड्यंत्र

Shadab Salim

16 Jan 2023 6:38 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 17: एनडीपीएस एक्ट से संबंधित अपराधों का दुष्प्रेरण और आपराधिक षड्यंत्र

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 29 इस एक्ट से संबंधित अपराधों के दुष्प्रेरण एवं आपराधिक षड्यंत्र को कठोर दंडनीय अपराध बनाती है। जैसे कि भारतीय दंड संहिता में उल्लेखित अपराधों का दुष्प्रेरण या उनका आपराधिक षड्यंत्र बनाना भी अपराध की श्रेणी में है इस ही तरह एनडीपीएस एक्ट के तहत अपराध बताए गए सभी कृत्य का दुष्प्रेरण या आपराधिक षड्यंत्र भी धारा 29 के दायरे में अपराध बना दिया गया है। इस आलेख में धारा 29 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है एवं उससे संबंधित अदालतों के निर्णय प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    29. दुष्प्रेरण और आपराधिक षड़यंत्र के लिए दंड- (1) जो कोई इस अध्याय के अधीन दंडनीय किसी अपराध का दुष्प्रेरण करेगा या ऐसा कोई अपराध करने के आपराधिक षड़यंत्र का पक्षकार होगा, वह चाहे ऐसा अपराध ऐसे दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप; या ऐसे आपराधिक षड़यंत्र के अनुसरण में किया जाता है या नहीं किया जाता है और भारतीय दंड संहिता, 1860 (1860 का 45) की धारा 116 में किसी बात के होते हुए भी, उस अपराध के लिए उपबंधित दंड से दंडनीय होगा।

    (2) वह व्यक्ति इस धारा के अर्थ में किसी अपराध का दुष्प्रेरण करता है या ऐसा कोई अपराध करने के आपराधिक षड़यंत्र का पक्षकार होता है जो भारत में, भारत से बाहर और परे किसी स्थान में ऐसा कोई कार्य किए जाने का भारत में दुष्प्रेरण करता है या ऐसे आपराधिक षड्यंत्र का पक्षकार होता है, जो-

    (क) यदि भारत के भीतर किया जाता तो अपराध गठित करता, या

    (ख) ऐसे स्थान की विधियों के अधीन स्वापक औषधियों या मनःप्रभावी पदार्थों से संबंधित ऐसा अपराध है, जिसमें उसे ऐसा अपराध गठित करने के लिए अपेक्षित वैसी ही या उसके समरुप सभी विधिक शर्तें हैं जैसी उसे इस अध्याय के अधीन दंडनीय अपराध गठित करने के लिए अपेक्षित विधिक शर्तें होती यदि ऐसा अपराध भारत में किया जाता।

    विनोद कुमार गुप्ता बनाम कमिश्नर ऑफ कस्टम्स, 2006 (2) क्राइम्स 16 देहली के मामले में लोक सेवक के द्वारा उसके कर्तव्य के निर्वहन में शपथ पत्र संपादित किया गया था। इस पर अविश्वास करने का कोई तर्कपूर्ण कारण नहीं था। यह शपथ पत्र इस आशय का था कि याचिकाकार को मामले में बहस सुनने के उपरांत व संपूर्ण केस फाइल का परिशीलन करने के उपरांत ज्युडिशियल रिमांड पर भेजा गया था। शपथ पत्र पर अविश्वास करने का कोई कारण होना नहीं पाया गया। परिणामतः यह तर्क अमान्य कर दिया गया कि आक्षेपित आदेश उचित नहीं था।

    एक मामले में अभियुक्त का संस्वीकृति कथन था। इस कथन को स्वैच्छिक होना नहीं पाया गया। परिणामतः ऐसी संस्वीकृति को दोषसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता।

    भगवानलाल बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1998 एफएजे 15 राजस्थान के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/29 के तहत आरोप विरचित किया गया था आरोप विरचना के आदेश को आक्षेपित करते हुए पुनरीक्षण प्रस्तुत की गई थी। प्रकरण में आरोप की विरचना न किए जाने के संबंध में निम्न न्याय दृष्टांतों पर निर्भरता व्यक्त की गई थी- हरिचरण बनाम स्टेट ऑफ बिहार, एआईआर 1964 सुप्रीम कोर्ट. 1184, किशनसिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1995 क्रि लॉ रि 176, राजस्थान मोहम्मद नासिर बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1995 क्रि लॉ रि 355 राजस्थान, अदालत द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि एनडीपीएस एक्ट के तहत मामले में अभियुक्त के दोषी होने की उपधारणा होती है जब तक कि अभियुक्त के द्वारा अधिनियम की धारा 35 के प्रावधान अनुसार यह प्रमाणित न कर दिया जाए कि उसने अपराध नहीं किया था। जहां तक संदेह का लाभ देने का भी प्रश्न है अभियुक्त इस संबंध में आरोप विरचना के प्रक्रम पर मांग करने का हकदार नहीं होगा क्योंकि यह बिन्दु आरोप विरचना के समय विचारयोग्य न होकर विचारण के अंत के प्रक्रम पर विचारयोग्य होता है। परिणामतः आरोप को चुनौती देने वाले पुनरीक्षण को निरस्त कर दिया गया।

    सह-अभियुक्त की संस्वीकृति

    आरिफ खान बनाम सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स, 2001 (2) क्राइम्स 221 राजस्थान के मामले में एक से अधिक व्यक्तियों का विचार किया गया हो व इनमें से एक के द्वारा स्वयं को व कतिपय अन्य को प्रभावित करने वाली संस्वीकृति की गई हो तो न्यायालय ऐसी संस्वीकृति को विचार में नहीं ले सकेगा। साक्ष्य अधिनियम की धारा 30 के प्रावधान के विचार से ऐसी संस्वीकृति विचारयोग्य नहीं मानी गई। सह-अभियुक्त के कथन के आधार पर आरोप की विरचना अमान्य की गई।

    पीबी निवास खान बनाम डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंसी जोनल यूनियन बैंगलोर, 2001 क्रिलॉज 798:2001 (2) क्राइम्स 152 कर्नाटक के मामले में आपराधिक कार्यवाही अपास्त करने की प्रार्थना की गई थी। कार्यवाही विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग की कोटि में नहीं आती थी। कार्यवाही अपास्त करने से इंकार किया गया।

    जीतू बनाम नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, 2004 (3) क्राइम्स 559 केरल के मामले में याचिकाकार के विरुद्ध धारा 21 (ग), 22 (क) एवं 29 के तहत के तहत अपराध था। जमानत चाही गई थी। लोक अभियोजक ने इस आधार पर जमानत का विरोध किया था कि याचिकाकार ने अन्य अभियुक्त के साथ षड़यंत्र किया था। जब लोक अभियोजक से इस बाबत पूछा गया कि उसके पास दर्शित करने के लिए क्या सामग्री है कि याचिकाकार ने प्रतिषिद्ध वस्तुओं को लाने में अन्य अभियुक्त के साथ षड़यंत्र किया था तो लोक अभियोजक ने यह निवेदन किया कि अपराध के अन्वेषण के दौरान अभिलिखित कथन हैं। कथन के अलावा अन्य कोई सामग्री यह इंगित करने के लिए नहीं थी कि याचिकाकार ने अन्य अभियुक्त के साथ प्रतिषिद्ध वस्तु को लाने में षड़यंत्र किया था। जमानत स्वीकार करने का उपयुक्त मामला माना गया।

    एम. प्रभूलाल बनाम द असिस्टेंट डायरेक्टर, डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंसी 2003 (4) क्राइम्स 217 सुप्रीम कोर्ट के मामले में तलाशी व जब्ती को स्थल पर नहीं किया गया था अपितु कस्टम ऑफिस में किया गया था। तलाशी व जब्ती दोषपूर्ण होना मानी गई। परंतु उच्चतम न्यायालय के न्याय दृष्टांतु खेतसिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2002 (4) सुप्रीम कोर्ट 380 को संदर्भित किया गया।

    इस मामले में उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के निर्णय पुरनमल बनाम डायरेक्टर ऑफ इन्पेक्शन (इन्वेस्टीगेशन) न्यू देहली, 1974 (1) सुप्रीम कोर्ट 345 में प्रतिपादित इस प्रतिपादना को विचार में लिया गया था कि भारत एवं इंग्लैंड के न्यायालयों ने संगत तौर पर मात्र इस आधार पर सुसंगत साक्ष्य को अपवर्जित कर दिया था कि इसे अविधिमान्य तलाशी अथवा जब्ती के द्वारा अपराध किया गया था। न्यायालय ने उक्त संदर्भित मामले में सुसंगत साक्ष्य को मात्र इस आधार पर अपवर्जित करने से अनिच्छा व्यक्त की कि इसे अविधिमान्य तलाशी अथवा जब्ती के द्वारा प्राप्त किया गया था।

    इसके अलावा कथित मामले में हालांकि महाजर (Mahazar) को स्थल पर तैयार नहीं किया गया था अपितु कस्टम विभाग के कार्यालय में तैयार किया गया था, यह पाया गया था कि अभियुक्त लगातार उपस्थित रहे थे और इस आशय का कोई लांछन अथवा सुझाव नहीं था कि प्रतिषिद्ध वस्तु में किसी रीति में अधिकारीगण के द्वारा विघ्न उत्पन्न किया गया था। वर्तमान मामले में भी समान स्थिति होना पाई गई।

    इस मामले में भी प्रतिषिद्ध वस्तु में विघ्न उत्पन्न किए जाने के बाबत् कोई लांछन नहीं था। वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर न तो इस आधार पर कि स्वतंत्र साक्षीगण का अपरीक्षण था और न ही इस आधार पर कि जब्ती को कस्टम विभाग के कार्यालय में प्रभावी किया गया था, जब्ती को अविधिमान्य होना माना गया। उक्त कमी के कारण अभियुक्त को कोई प्रतिकूलता हुई हो यह प्रमाणित करने में अभियुक्तगण विकल रहे थे। अपराध प्रमाणित माना गया।

    डिप्टी डायरेक्टर नारकोटिक्स कन्ट्रोल बनाम सेन्ना केशवन, 2002 (2) क्राइम्स 276 मद्रास के मामले में अभियुक्त क्रमांक 1 की अपराध की संस्वीकृति थी इसे एनडीपीएस अधिकारियों के समक्ष किया गया था। अभियुक्त क्रमांक 1 को दोषी माना गया। परंतु जहां तक अभियुक्त क्रमांक 2 का संबंध था कि उसके विरुद्ध लांछन यह था कि उसने अभियुक्त क्रमांक 1 के द्वारा विदेश में भेजे जाने वाले पत्र को टाइप किया था उसे दोषमुक्त किया जाना उचित माना गया।

    मुंबई के एक अन्य मामले में अभियुक्त के विरुद्ध आरोप यह था कि उसके द्वारा माल के लोडर को डुप्लीकेट टेग उपलब्ध कराने में सहायता पहुंचायी थी। मामले मे माल का लोडर फरार होना पाया गया। इन बेगों में मैक्स गोलियाँ होना पायी गयी थी किसी भी यात्री ने इन बेगों पर आधिपत्य होने का दावा नहीं किया था।

    अभियुक्त का कस्टम अधिनियम, 1962 की धारा 108 का कथन इस आशय का था कि हालांकि उसे बेग की अन्तर्वस्तु के बाबत संदेह था परन्तु फिर भी उसने टेग उपलब्ध कराए थे। इस कथन का निर्वचन इस रूप में नहीं किया जा सकता है कि अभियुक्त को इन बेगों की अन्तर्वस्तु के बाबत भानपूर्वक जानकारी थी। अभियुक्त के विरुद्ध अपराध अप्रमाणित माना गया।

    लालदेव बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, 2010 क्रि लॉ ज (एनओसी) 881 कलकत्ता के मामले में अभियुक्त के पास पाए जाने वाले प्लास्टिक बैग में छापादल द्वारा तलाशी करने पर हेरोईन होना पाई गई थी। अभियुक्त की धारा 50 के पालन में अभियुक्त को लिखित में सूचना दी गई थी। परिणामतः दोषसिद्धि का मामला माना गया।

    विनोद कुमार गुप्ता बनाम कमिश्नर ऑफ कस्टम, 2006 (1) क्राइम्स 441 देहली के मामले में न्यायिक कृत्य व पदीय कृत्य सही व नियमित तौर पर किए जाने की उपधारणा सभी न्यायिक कृत्य व पदीय कृत्य सही व नियमित तौर पर किए जाने की उपधारणा की जाती है। न्यायालय से न्यायिक रिमाण्ड के संबंध में विस्तृत आदेश पारित करने की प्रत्याशा नहीं की जाती है।

    विनोद कुमार के मामले में ही यह प्रश्न कि क्या केस डायरी को प्रस्तुत किया गया था अथवा नहीं किया गया था तथ्य का प्रश्न माना गया। हालांकि यह स्पष्ट किया गया कि रिमांड की प्रार्थना के साथ केस डायरी को भेजा जाना आदेशात्मक अपेक्षा है आगे स्पष्ट किया गया कि न्यायिक कृत्यों को सही तौर पर व नियमित तौर पर संपादित किए जाने की उपधारणा की जाती है। हालांकि न्यायालय से अभियुक्त को न्यायिक रिमांड पर प्राधिकृत करने के दौरान विस्तृत आदेश पारित करने की प्रत्याशा नहीं की जाती है।

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