जमीन विवाद में मजिस्ट्रेट द्वारा उठाए जाने वाले कदम

Shahadat

24 Jun 2024 4:02 AM GMT

  • जमीन विवाद में मजिस्ट्रेट द्वारा उठाए जाने वाले कदम

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145, 146, 147 के अंतर्गत किसी ज़मीन और मकान के विवाद से तत्कालीन रूप से निपटने हेतु एक्ज़ीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को पॉवर्स दिए गए हैं। यह पॉवर्स किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने के लिए तो नहीं दिए गए हैं किंतु मजिस्ट्रेट इन पॉवर्स को इस्तेमाल करके तत्काल रूप से शांति ज़रूर स्थापित कर सकता है।

    धारा 145 में स्थावर संपत्ति विषयक विवादों के संबंध में जिससे लोक शांति भंग होने की संभावना हो निस्तारण की प्रक्रिया का उल्लेख है। धारा 145 की उपधारा (1) के अनुसार कार्यपालक मजिस्ट्रेट को इस संबंध में रिपोर्ट पर या किसी अन्य प्रकार से प्राप्त इत्तिला के आधार पर स्वयं का समाधान हो जाने पर की जा सकेगी।

    इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए यह आवश्यक होगा कि भूमि या जल से संबंधित कोई विवाद ऐसा हो जिससे लोग शांति भंग होने की संभावना है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट अपनी शक्ति का उपयोग उस समय ही कर सकता है जिस समय उस भूमि या जल से संबंधित किसी विवाद के कारण लोक शांति भंग हो जाने का बड़ा खतरा है।

    ऐसे मामले में कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा कोई न्यायिक निर्णय नहीं दिया जाता है असल में या एक निवारक कार्य है जिसके माध्यम से कार्यपालक मजिस्ट्रेट विवाद के कारण उत्पन्न होने वाली अशांति और लोक व्यवस्था के खराब होने के दुष्परिणाम से बचने के लिए उपयोग करता है।

    फकीर चंद्र बनाम मानाराम एआईआर 1957 पंजाब 304 के मामले में कहा है -इस धारा का मूल उद्देश्य ऐसे विवादों का शीघ्रता से निपटारा करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित करना है जो कि भूमि या जल से संबंधित है तथा जिनसे लोक शांति भंग होना संभव है।

    यह धारा मुख्य रूप से दो करणों से बनायी गयी है-

    1) विवाद किसी स्थावर संपत्ति भूमि या जल से संबंधित होना चाहिए।

    2) उस विवाद से लोक शांति भंग होने की संभावना हो।

    यदि कोई विवाद ऐसा है जिसमें लोक शांति भंग होने की संभावना नगण्य है तो ऐसी परिस्थिति में धारा 145 का उपयोग नहीं किया जा सकता। धारा 145 का उपयोग तब ही किया जा सकता है जब किसी भूमि या स्थावर संपत्ति के विवाद से प्रबल लोक शांति भंग हो जाने का खतरा है।

    समाज में किसी स्थावर संपत्ति को लेकर अनेक ऐसे विवाद सामने आते है जिनके कारण लोक शांति भंग हो जाने की प्रबल संभावना होती है। जैसे किसी खेत के कब्जे को लेकर दो पक्षकार आपस में भिड़ गए और भिड़ंत से समाज में भय फैल जाना तथा हिंसा हो जाना तय है तो एसी विपत्ति से निपटने के लिए ही कार्यपालक मजिस्ट्रेट को यह शक्ति दी गयी है।

    महंत राम सुमेर पूरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एआईआर 1985 उच्चतम न्यायालय 477 के मामले में यह कहा गया है यदि विवाद किसी स्थावर संपत्ति से संबंधित है परंतु उससे लोक शांति भंग होने की कोई संभावना नहीं है तो ऐसी परिस्थिति में धारा 145 की कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।

    भारत संघ बनाम अजीमुन्निसा खातून एआईआर 2001 गुवाहाटी के मामले में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने धारा 145 की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि इस धारा के अंतर्गत चलायी जाने वाली कार्यवाही का मुख्य उद्देश्य शांति भंग के खतरे का निवारण करना है ना कि स्वत्व (टाइटल) के प्रश्न को तय करना है।

    कोई भी कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास यदि किसी विवाद से संबंधित कोई ऐसी सूचना जाती है जो भूमि या किसी अन्य अचल संपत्ति से संबंधित से है तो ऐसी परिस्थिति में कार्यपालक मजिस्ट्रेट यदि कोई आदेश पारित करता है तो यह उसका न्यायिक निर्णय नहीं होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इस आदेश की शक्ति किसी सिविल न्यायालय के आदेश की शक्ति के बराबर है। किसी भूमि से संबंधित विवाद का निपटारा सिविल न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा परंतु तत्कालीन परिस्थिति में शांति भंग होने से रोकने के लिए कार्यपालक मजिस्ट्रेट अपनी शक्ति का उपयोग करता है।

    कुंज बिहारी दास बना खेत्रपाल सिंह के मामले में कहा गया है कि इस धारा के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया आदेश केवल अस्थाई प्रकृति का होता है तथा तब तक अस्तित्व में रहता है जब तक कि सक्षम अधिकार वाले न्यायालय द्वारा विवाद का निस्तारण नहीं किया जाता है।

    संपत्ति के कब्जे को लेकर इस धारा के अंतर्गत कार्यवाही की जाती है। केशव सिंह बनाम जगपाल सिंह एआईआर 1972 इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मामले में यह कहा गया है कि जहां पर विवाद कब्जे से संबंधित ना होकर मात्र उपभोग से संबंधित हो तो इस धारा के अधीन कार्यवाही ना कि जाकर धारा 147 के अधीन की जाएगी।

    सुखलाल शेख बनाम ताराचंद के वाद में यह बात कही गयी है की धारा 145 के अधीन की जाने वाली कार्यवाही वस्तुतः दीवानी प्रकृति के है इसे सिविल तथा दीवानी कार्यपालिकिय कार्य माना जा सकता है।

    इस धारा 145 के अधीन पारित आदेश केवल पुलिस आदेश होता है तथा इसके अधीन टाइटल (हक़) विषय स्थिति का विनिश्चय नहीं किया जाता है।

    ज्ञानदेव शर्मा बनाम बिहार राज्य के बाद में पक्षकारों के बीच भूमि संबंधी हक तथा कब्जे का विवाद सिविल न्यायालय में लंबित होने के कारण मजिस्ट्रेट ने उनके प्रकरण में धारा 145 (5) के अधीन कार्यवाही करने से इंकार कर दिया जो उच्च न्यायालय द्वारा न्यायोचित ठहराया गया परंतु न्यायालय ने स्पष्ट स्थिति करते हुए कहा कि यदि विवाद इन से भिन्न मुद्दों पर आधारित हो तो मजिस्ट्रेट धारा 145 (5) के अंतर्गत आवश्यक आदेश पारित कर सकता है।

    उड़ीसा राज्य का एक महत्वपूर्ण मामला है, जिसे कुमार प्रधान तथा अन्य बनाम हाराभोई एवं अन्य का मामला कहा जाता है। यह 1971 का मामला है। इस मामले में भूमि से संबंधित एक ही परिवार के वारिसों के बीच विवाद था। इस प्रकरण में धारा 145 के संदर्भ में कुछ विधि के सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है।

    धारा 145 के अधीन जांचकर्ता कार्यपालक दंडाधिकारी को स्पष्ट रूप से तय करना चाहिए कि प्रथमिक आदेश के दिन यह प्रथमिक आदेश पारित किए जाने के पूर्व के 2 माह की अवधि में कौन सा पक्षकार अधिपत्य में था। अधिपत्य का प्रश्न अधिपत्य धारण करने के अधिकार की वैधता से परे हटकर वास्तविक आधिपत्य होने के आधार पर हल किया जाना चाहिए।

    धारा 145 की जांच में कार्यपालक दंडाधिकारी को प्रकरण में प्रस्तुत सभी दस्तावेजों एवं शपथ पत्रों का अच्छे से परीक्षण अपने विवेक का पूर्ण प्रयोग करते हुए करना चाहिए।

    जहां विवादित भूमि या जल के संबंध में पक्षकारों के मध्य कोई विवाद सिविल न्यायालय में लंबित हो ऐसी दशा में धारा 145 के अधीन कार्यवाही कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। जहां अचल संपत्ति के कब्जे के बारे में पक्षकारों में कोई विवाद किसी न्यायालय में लंबित हो तो उस दशा में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अधीन कार्यवाही विधि के अनुकूल नहीं है।

    इस सिद्धांत का अर्थ यह है कि अचानक से उत्पन्न होने वाले विवाद में ही कार्यपालक मजिस्ट्रेट ऐसे किसी आदेश को धारा 145 के अंतर्गत जारी करें। यदि कोई विवाद पहले से ही न्यायालय में चल रहा है और उसके लिए सिविल प्रकरण लंबित है तो ऐसी परिस्थिति में कार्यपालक मजिस्ट्रेट को धारा 145 की कार्यवाही करना ठीक नहीं है। यदि फिर भी वह वैसी कार्यवाही करता है तो यह विधि के अनुकूल नहीं होगी।

    धारा 145 के अंतर्गत जारी आदेश को न्यायालय में चुनौती-

    धारा 145 के अंतर्गत पारित किसी आदेश को किसी भी सेशन न्यायालय में अथवा उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाती है तो ऐसी चुनौती पुनरीक्षण के लिए रखी जाएगी। पीड़ित पक्षकार सिविल न्यायालय में सिविल वाद दायर करके भी उपचार प्राप्त कर सकता है।

    संपत्ति पर रिसीवर नियुक्त करना-

    किसी स्थावर संपत्ति के विवाद में कभी-कभी ऐसी परिस्थिति का जन्म होता है कि कार्यपालक मजिस्ट्रेट के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होता है की पक्षकारों में धारा 145 की शक्ति का उपयोग करते समय कब्जा किसका था। कार्यपालक मजिस्ट्रेट कब्जे के हकदार व्यक्तियों के बारे में कोई विनिश्चय नहीं कर पाता है। यह धारा 146 धारा 145 की अनुपूरक है।

    तब ऐसी परिस्थिति में धारा 146 से काम लिया जाता है। धारा 146 के अंतर्गत कार्यपालक मजिस्ट्रेट किसी स्थावर संपत्ति पर रिसीवर नियुक्त कर देता है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा नियुक्त किए गए रिसीवर को वही शक्तियां प्राप्त होती है जो सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अधीन रिसीवर को प्राप्त होती है।

    रिसीवर नियुक्त करने के कुछ आधार है जो निम्न हो सकते है-

    यदि मामला आपातिक हो (emergent)

    मजिस्ट्रेट इस बात का विनिश्चय करें कि विषय वस्तु पक्षकार कब्जे में नहीं है। या मजिस्ट्रेट यह भी निश्चित नहीं कर पाता है कि कौन व्यक्ति संपत्ति पर काबिज है। इस तथ्य को रूपा जीना बनाम तपाई स्वपन जैन के मामले में माना गया है।

    कार्यपालक मजिस्ट्रेट संपत्ति को कुर्क कर लेता है। संपत्ति को कुर्क करने के बाद वह उस पर किसी रिसीवर की नियुक्ति कर देता है। धारा 146 की उपधारा (2) के अधीन मजिस्ट्रेट को धारा 146 की उपधारा (2) के अधीन मजिस्ट्रेट को यह शक्ति प्रदान की गयी है कि वह इस तरह से क्रुक की गयी संपत्ति के बाबत रिसीवर की नियुक्ति कर सकता है। इस प्रकार नियुक्त किए गए रिसीवर को वह सभी शक्तियां प्राप्त होंगी जो दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 40 एवं नियम (1) के अधीन नियुक्त रिसीवर को प्राप्त होगी।

    मथुरा लाल बनाम भंवरलाल के वाद में एक मकान का विवाद था। इस मामले में न्यायालय ने कहा है कि कुर्की के बाद भी मामले में मजिस्ट्रेट की अधिकारिता समाप्त नहीं हुई होती है तथा उसके द्वारा जांच की कार्यवाही की जाना उचित है। कोई भी कार्यपालक मजिस्ट्रेट कुर्की के बाद भी जांच की कार्यवाही कर सकता है तथा धारा 145 के अधीन फिर कोई निर्णय पारित कर सकता है।

    धारा 146 के अधीन किसी संपत्ति को कुर्क कर लेने के कारण धारा 145 का अधिकार कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास से समाप्त नहीं होता है व धारा 146 के अंतर्गत संपत्ति को कुर्क करके उस पर रिसीवर की नियुक्ति करने के बाद अपनी जांच को जारी रख कर धारा 145 के अंतर्गत आदेश पारित कर सकता है।

    हालांकि जवाहरलाल बनाम अवध बिहारी के बाद में कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही प्रारंभ करने के पश्चात 2 वर्ष बाद कुर्की का आदेश दिया गया, इस आदेश को कोर्ट ने अनुचित माना। कुर्की का आदेश इतना शीघ्र होना चाहिए कि धारा 145 के आदेश पारित करने के लिए कार्यपालक मजिस्ट्रेट कोई समय ले रहा हो।

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