हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9-10: दांपत्य अधिकारों की बहाली और Judicial Separation
Himanshu Mishra
11 July 2025 11:20 AM

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) केवल विवाह के नियमों को ही परिभाषित नहीं करता, बल्कि यह उन स्थितियों से निपटने के लिए भी कानूनी प्रावधान (Legal Provisions) प्रदान करता है जब वैवाहिक संबंध (Marital Relationship) में तनाव आ जाता है।
धारा 9 (Section 9) का उद्देश्य पति-पत्नी के बीच सहवास (Cohabitation) को बहाल करना है, जबकि धारा 10 (Section 10) तलाक (Divorce) के एक विकल्प के रूप में न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation) की अवधारणा (Concept) प्रस्तुत करती है, जिससे पति-पत्नी कानूनी रूप से अलग रह सकते हैं जबकि उनका विवाह अभी भी बरकरार (Intact) है। ये धाराएँ वैवाहिक विवादों (Matrimonial Disputes) को सुलझाने और कभी-कभी विवाह को बचाने के लिए महत्वपूर्ण उपकरण (Important Tools) प्रदान करती हैं।
9. दांपत्य अधिकारों की बहाली (Restitution of Conjugal Rights)
जब पति या पत्नी में से किसी ने, उचित कारण (Reasonable Excuse) के बिना, दूसरे के समाज से खुद को अलग कर लिया हो (Withdrawn from the Society), तो पीड़ित पक्ष (Aggrieved Party) जिला न्यायालय (District Court) में याचिका (Petition) द्वारा दांपत्य अधिकारों की बहाली (Restitution of Conjugal Rights) के लिए आवेदन कर सकता है।
और न्यायालय, ऐसी याचिका में किए गए बयानों (Statements) की सच्चाई से संतुष्ट होने पर (Satisfied of the truth) और यह कि आवेदन को स्वीकार न करने का कोई कानूनी आधार (Legal Ground) नहीं है, तदनुसार दांपत्य अधिकारों की बहाली का decree (अदालती आदेश) दे सकता है।
स्पष्टीकरण (Explanation): जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या समाज से अलग होने का कोई उचित कारण रहा है, वहाँ उचित कारण साबित करने का भार (Burden of Proving Reasonable Excuse) उस व्यक्ति पर होगा जिसने समाज से खुद को अलग किया है।
स्पष्टीकरण: यह धारा उन मामलों से संबंधित है जहाँ एक पति या पत्नी बिना किसी वैध या पर्याप्त कारण के दूसरे से अलग हो जाता है और सहवास (Cohabitation) से इनकार करता है। इस धारा का उद्देश्य पति-पत्नी को फिर से एक साथ लाना और वैवाहिक संबंध (Marital Relationship) को पुनर्जीवित करना (Revive) है।
यदि न्यायालय संतुष्ट होता है कि अलग होने का कोई उचित कारण नहीं था, तो वह अलग हुए पक्ष को दूसरे के साथ फिर से रहने का आदेश दे सकता है। यह एक नागरिक उपचार (Civil Remedy) है, न कि आपराधिक (Criminal)। स्पष्टीकरण यह स्पष्ट करता है कि जिस व्यक्ति ने खुद को अलग किया है, उसे ही यह साबित करना होगा कि उसके पास ऐसा करने का उचित कारण था।
उदाहरण: यदि रवि अपनी पत्नी प्रिया को बिना किसी झगड़े या वैध कारण के छोड़कर अपने माता-पिता के साथ रहने चला जाता है, तो प्रिया दांपत्य अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर कर सकती है। यदि रवि यह साबित नहीं कर पाता कि उसके अलग होने का कोई उचित कारण था (जैसे प्रिया का दुर्व्यवहार - Misconduct), तो न्यायालय रवि को प्रिया के साथ वापस रहने का आदेश दे सकता है।
महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law): सरोज रानी बनाम सुदर्शन चड्ढा (Saroj Rani v. Sudarshan Chadha), 1984: सुप्रीम कोर्ट ने इस ऐतिहासिक मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 की संवैधानिक वैधता (Constitutional Validity) को बरकरार रखा।
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट (Andhra Pradesh High Court) ने पहले इसे संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार - Right to Life and Personal Liberty) का उल्लंघन करने वाला माना था, यह तर्क देते हुए कि यह पति या पत्नी को शारीरिक रूप से सहवास के लिए मजबूर करता है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि धारा 9 का उद्देश्य जबरन सहवास कराना नहीं है, बल्कि वैवाहिक Harmony (सामंजस्य) और सहवास को प्रोत्साहित करना है। इसका उद्देश्य वैवाहिक संबंध को संरक्षित करना और एक टूटने वाले विवाह को सुलह (Reconciliation) का अवसर देना है। यह पति या पत्नी के बीच सामंजस्यपूर्ण रिश्ते को बढ़ावा देता है।
10. न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation)
(1) विवाह का कोई भी पक्ष, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ (Commencement) से पहले या बाद में solemnize किया गया हो, न्यायिक पृथक्करण के लिए decree हेतु याचिका (Petition) प्रस्तुत कर सकता है, जो धारा 13 की उप-धारा (1) (Sub-section (1) of Section 13) में निर्दिष्ट (Specified) किसी भी आधार (Grounds) पर हो सकता है, और पत्नी के मामले में धारा 13 की उप-धारा (2) (Sub-section (2) thereof) में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर भी हो सकता है, जिन आधारों पर तलाक के लिए याचिका प्रस्तुत की जा सकती थी।
(Either party to a marriage, whether solemnised before or after the commencement of this Act, may present a petition praying for a decree for judicial separation on any of the grounds specified in sub-section (1) of section 13, and in the case of a wife also on any of the grounds specified in sub-section (2) thereof, as grounds on which a petition for divorce might have been presented.)
न्यायिक पृथक्करण तलाक से भिन्न (Different from Divorce) है। यह विवाह को भंग (Dissolve) नहीं करता है, बल्कि यह पति-पत्नी को कानूनी रूप से अलग रहने (Live Separately) की अनुमति देता है जबकि वे अभी भी विवाहित हैं। इसका मतलब है कि सहवास करने का दायित्व (Obligation to Cohabit) निलंबित (Suspended) हो जाता है। इस प्रावधान का उद्देश्य जोड़ों को सुलह के लिए एक "कूलिंग-ऑफ पीरियड" (Cooling-off Period) देना है।
न्यायिक पृथक्करण के लिए वही आधार (Grounds) होते हैं जो तलाक के लिए होते हैं (जैसा कि धारा 13 में विस्तृत है), जैसे क्रूरता (Cruelty), परित्याग (Desertion), व्यभिचार (Adultery), मानसिक विकार (Mental Disorder), आदि। पत्नी के पास धारा 13(2) में कुछ अतिरिक्त आधार (Additional Grounds) भी होते हैं।
उदाहरण: यदि पति अपनी पत्नी के साथ क्रूरता करता है, तो पत्नी तुरंत तलाक के लिए जाने के बजाय न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकती है। इससे उसे पति से अलग रहने की कानूनी अनुमति मिल जाएगी, जबकि वह अभी भी कानूनी रूप से विवाहित रहेगी। यह उसे स्थिति पर विचार करने या पति को अपना व्यवहार सुधारने का मौका दे सकता है।
(2) जहाँ न्यायिक पृथक्करण का decree पारित किया गया है, वहाँ याचिकाकर्ता (Petitioner) के लिए प्रतिवादी (Respondent) के साथ सहवास करना अब अनिवार्य नहीं रहेगा, लेकिन न्यायालय, किसी भी पक्ष द्वारा याचिका द्वारा आवेदन (Application by Petition) करने पर और ऐसी याचिका में किए गए बयानों की सच्चाई से संतुष्ट होने पर, decree को रद्द (Rescind the Decree) कर सकता है यदि वह ऐसा करना उचित और तर्कसंगत (Just and Reasonable) समझता है। (Where a decree for judicial separation has been passed, it shall no longer be obligatory for the petitioner to cohabit with the respondent, but the court may, on the application by petition of either party and on being satisfied of the truth of the statements made in such petition, rescind the decree if it considers it just and reasonable to do so.)
यह उप-धारा स्पष्ट करती है कि एक बार न्यायिक पृथक्करण का decree पारित हो जाने के बाद, पति-पत्नी को एक साथ रहने की आवश्यकता नहीं होती है। हालांकि, यह धारा सुलह की संभावना (Possibility of Reconciliation) को खुला रखती है। यदि पति या पत्नी में से कोई भी न्यायालय में आवेदन करता है और न्यायालय संतुष्ट होता है कि परिस्थितियाँ बदल गई हैं और दोनों को फिर से साथ रहना उचित है, तो न्यायालय न्यायिक पृथक्करण के decree को रद्द कर सकता है।
उदाहरण: सीमा को उसके पति अजय से न्यायिक पृथक्करण का decree मिला था। कुछ समय बाद, अजय ने पश्चाताप व्यक्त किया और अपने व्यवहार में सुधार किया। सीमा और अजय दोनों सहमत हैं कि वे फिर से साथ रहना चाहते हैं। वे न्यायालय में एक संयुक्त याचिका दायर कर सकते हैं, और यदि न्यायालय संतुष्ट होता है, तो वह न्यायिक पृथक्करण के decree को रद्द कर देगा।
महत्वपूर्ण केस लॉ: वी. भगत बनाम श्रीमती डी. भगत (V. Bhagat v. Mrs. D. Bhagat), 1994: हालांकि यह एक तलाक का मामला था, सुप्रीम कोर्ट ने क्रूरता (Cruelty) के आधार पर गहन चर्चा की, जो न्यायिक पृथक्करण के लिए भी एक आम आधार है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि "क्रूरता" में केवल शारीरिक हिंसा (Physical Violence) ही नहीं, बल्कि ऐसी मानसिक क्रूरता (Mental Cruelty) भी शामिल है जो दूसरे पति या पत्नी के लिए वैवाहिक जीवन जारी रखना असंभव बना देती है। यह निर्णय उन परिस्थितियों को समझने में मदद करता है जिनके तहत न्यायिक पृथक्करण का decree प्राप्त किया जा सकता है।
ये धाराएँ विवाह को तत्काल भंग किए बिना वैवाहिक विवादों को संभालने के लिए महत्वपूर्ण कानूनी तंत्र (Legal Mechanisms) प्रदान करती हैं, जिससे सुलह की गुंजाइश बनी रहती है या कम से कम एक कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त अलग रहने की स्थिति मिलती है।