भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 523 से 526 : हाईकोर्ट द्वारा नियम बनाने की शक्ति
Himanshu Mishra
16 Jun 2025 6:51 PM IST

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 का अंतिम अध्याय, अध्याय 39 (मिश्र विषय – Miscellaneous), ऐसे विविध और व्यावहारिक विषयों को शामिल करता है जिनका संबंध न्यायिक प्रशासन, नैतिकता, और संस्थागत मर्यादा से है।
इस लेख में हम विशेष रूप से धारा 523 से धारा 526 तक का गहराई से सरल हिंदी में अध्ययन करेंगे। ये धाराएँ न्यायालयों के संचालन में पारदर्शिता, निष्पक्षता और नैतिक शुचिता बनाए रखने हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनमें याचिका लेखक (Petition-writers) के लिए नियम बनाने से लेकर न्यायाधीशों और वकीलों की भूमिका को परिभाषित करने तक के प्रावधान शामिल हैं।
धारा 523 – हाईकोर्ट द्वारा नियम बनाने की शक्ति
धारा 523 यह प्रावधान करती है कि प्रत्येक हाईकोर्ट, राज्य सरकार की पूर्व अनुमति से, कुछ विशिष्ट विषयों पर नियम बना सकता है। यह शक्ति इस उद्देश्य से दी गई है कि अधीनस्थ आपराधिक न्यायालयों (subordinate criminal courts) की कार्यप्रणाली व्यवस्थित, पारदर्शी और नियंत्रित हो।
उपधारा (1)(a): याचिका लेखकों को अनुमति
हाईकोर्ट यह तय कर सकता है कि किन व्यक्तियों को आपराधिक अदालतों में याचिका लेखक (petition-writer) के रूप में काम करने की अनुमति दी जाए। यह नियंत्रण इसलिए जरूरी है ताकि कोर्ट परिसर में अनधिकृत या अयोग्य व्यक्तियों द्वारा जनता को भ्रमित या ठगा न जा सके।
उपधारा (1)(b): लाइसेंस, कार्य-आचरण और फीस का निर्धारण
यह प्रावधान याचिका लेखकों को लाइसेंस जारी करने, उनके कार्य आचरण को नियंत्रित करने और जनता से ली जाने वाली फीस की सीमा तय करने से संबंधित है। उदाहरण के तौर पर, कोई याचिका लेखक अगर सामान्य ज़मानत याचिका के लिए ₹100 से अधिक शुल्क लेता है जबकि नियमों में ₹50 तय है, तो वह नियम का उल्लंघन कर रहा होगा।
उपधारा (1)(c): नियमों के उल्लंघन पर दंड
यदि कोई याचिका लेखक बनाए गए नियमों का उल्लंघन करता है, तो उसके लिए दंड तय करने का अधिकार भी हाईकोर्ट के पास रहेगा। इसके साथ यह भी निर्धारित किया जा सकता है कि किस अधिकारी द्वारा इस प्रकार के उल्लंघन की जांच की जाएगी और दंड आरोपित किया जाएगा।
उपधारा (1)(d): अन्य विषय जिनके लिए नियम बनाए जा सकते हैं
यह एक व्यापक प्रावधान है, जो हाईकोर्ट को अन्य उन मामलों में भी नियम बनाने की शक्ति देता है जो या तो इस संहिता में अपेक्षित हैं या राज्य सरकार द्वारा उपयुक्त माने जाते हैं।
उपधारा (2): नियमों का प्रकाशन
जो भी नियम उपर्युक्त उपधाराओं के तहत बनाए जाएंगे, उन्हें राज्य के राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित किया जाएगा। इससे इन नियमों को औपचारिक कानूनी दर्जा प्राप्त होता है और वे जनता तथा वकीलों के लिए बाध्यकारी बन जाते हैं।
धारा 524 – कार्यपालिका मजिस्ट्रेट के स्थान पर न्यायिक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति
यह धारा एक विशेष परिस्थिति को संबोधित करती है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी राज्य की विधान सभा एक प्रस्ताव द्वारा अनुमति दे, तो राज्य सरकार हाईकोर्ट से परामर्श करने के बाद एक अधिसूचना द्वारा निर्देश दे सकती है कि कुछ धाराओं (127, 128, 129, 164, 166) में जहां “कार्यपालिका मजिस्ट्रेट” (Executive Magistrate) शब्द का उल्लेख है, वहाँ “प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट” (Judicial Magistrate of First Class) को पढ़ा जाए।
इसका उद्देश्य प्रशासनिक कार्यपालिका मजिस्ट्रेट के स्थान पर न्यायिक स्वतंत्रता के संरक्षण हेतु न्यायिक मजिस्ट्रेट को अधिकृत करना है। यह व्यवस्था विशेषकर तब उपयोगी होती है जब यह महसूस किया जाता है कि कार्यपालिका के अधीन मजिस्ट्रेट निष्पक्षता या न्यायिक संतुलन नहीं बनाए रख पा रहे हैं।
उदाहरण: धारा 164 के अंतर्गत, अपराध स्वीकारोक्ति दर्ज करने का कार्य होता है। यह एक गंभीर न्यायिक कार्य है जिसमें निष्पक्षता अत्यंत आवश्यक होती है। यदि कार्यपालिका मजिस्ट्रेट की बजाय न्यायिक मजिस्ट्रेट इसे दर्ज करें, तो यह न्याय की प्रक्रिया को अधिक सुरक्षित बनाता है।
धारा 525 – न्यायिक निष्पक्षता का सिद्धांत: न्यायाधीश स्वयं अपने मामले की सुनवाई नहीं करेगा
यह धारा न्यायिक नैतिकता और निष्पक्षता की रक्षा के लिए एक मूलभूत प्रावधान करती है। इसके अनुसार, कोई भी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उस मामले की सुनवाई नहीं करेगा या उसे विचारण हेतु नहीं सौंपेगा जिसमें वह स्वयं पक्षकार हो, या व्यक्तिगत रूप से उसमें रुचि रखता हो।
साथ ही, वह न्यायाधीश स्वयं के द्वारा पारित निर्णय या आदेश के विरुद्ध अपील की सुनवाई भी नहीं कर सकता।
व्याख्या:
यह स्पष्ट किया गया है कि कोई न्यायाधीश केवल इस आधार पर कि उसने किसी अपराध स्थल का निरीक्षण किया है या उसने उस स्थान का अवलोकन किया है, को मामले में “पक्षकार” नहीं माना जाएगा। इसी तरह, यदि वह किसी सार्वजनिक क्षमता में उससे जुड़ा हो, तब भी वह व्यक्तिगत रूप से रुचि रखने वाला नहीं माना जाएगा।
उदाहरण:
माना किसी मजिस्ट्रेट ने एक मामले में प्रथमदृष्टया सबूतों के आधार पर चार्जशीट की अनुमति दी है, अब वही व्यक्ति यदि उस मामले की अंतिम सुनवाई करता है, तो यह पक्षपात हो सकता है। ऐसे मामलों में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए दूसरे न्यायाधीश को कार्यभार दिया जाना चाहिए।
धारा 526 – किसी न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाला अधिवक्ता उसी न्यायालय में मजिस्ट्रेट नहीं बन सकता
यह धारा बहुत ही व्यवहारिक और नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार, कोई भी अधिवक्ता (advocate) जो किसी मजिस्ट्रेट की अदालत में प्रैक्टिस करता हो, वह उसी अदालत या उसकी स्थानीय सीमा में आने वाले किसी अन्य न्यायालय में मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य नहीं कर सकता।
यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि हितों का टकराव (conflict of interest) न हो और न्याय की प्रक्रिया में निष्पक्षता बनी रहे।
उदाहरण:
मान लीजिए एक अधिवक्ता किसी कस्बे की मजिस्ट्रेट अदालत में नियमित रूप से जमानत, चार्ज, और ट्रायल में वकालत करता है। यदि उसी व्यक्ति को उसी अदालत का मजिस्ट्रेट नियुक्त कर दिया जाए, तो उसके पुराने संबंध, अनुभव और पक्षपात का खतरा न्याय की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकता है।
धारा 523 से 526 तक की ये चारों धाराएँ भारतीय न्याय प्रणाली की संस्थागत शुचिता, कार्यप्रणाली की पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। ये प्रावधान दर्शाते हैं कि केवल अपराध और दंड के नियम ही नहीं, बल्कि न्यायिक संरचना की आंतरिक नैतिकता और विधिक अनुशासन भी कानून का अभिन्न हिस्सा है।
इन धाराओं के माध्यम से उच्च न्यायालयों को सीमित परंतु महत्वपूर्ण नियम बनाने की शक्ति दी गई है, सशक्त और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिकाओं को पुनर्परिभाषित किया गया है, और न्यायिक कार्यपालिका की निष्पक्षता को संरक्षित किया गया है।
यदि इन प्रावधानों का कठोरता से पालन किया जाए, तो यह न केवल न्याय प्रणाली में लोगों का विश्वास बढ़ाएगा, बल्कि यह सुनिश्चित करेगा कि भारत का आपराधिक न्याय तंत्र सक्षम, निष्पक्ष, और संविधान सम्मत बना रहे।

