भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धाराएं 468 से 471 : दंडादेश की प्रक्रिया से संबंधित सामान्य प्रावधान

Himanshu Mishra

19 May 2025 6:17 PM IST

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धाराएं 468 से 471 : दंडादेश की प्रक्रिया से संबंधित सामान्य प्रावधान

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के अध्याय XXXI के अंतर्गत दंडादेश (Sentence) के कार्यान्वयन से संबंधित सामान्य प्रावधानों को समाहित किया गया है।

    इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार आरोपी के खिलाफ पारित किए गए दंडादेशों का क्रियान्वयन किया जाएगा, विशेषकर उस स्थिति में जब आरोपी पहले से किसी अपराध के लिए सजा भुगत रहा हो, या किसी अपराध के लिए हिरासत में रहा हो। इस लेख में हम धारा 468 से लेकर 471 तक के प्रावधानों को सरल भाषा में विस्तारपूर्वक समझेंगे, साथ ही उनसे जुड़ी पूर्व की धाराओं का संदर्भ लेकर इसे और व्यावहारिक बनाएंगे।

    धारा 468 – पूर्व में हिरासत में बिताई गई अवधि को सजा में समायोजित करना

    यह धारा एक अत्यंत मानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती है। इसके अनुसार, यदि किसी आरोपी को दोषी ठहराए जाने पर कारावास की सजा दी जाती है (बशर्ते वह सजा जुर्माने के भुगतान न करने पर दी गई कारावास न हो), तो जांच, पूछताछ या विचारण की प्रक्रिया के दौरान उसने जो भी समय हिरासत में बिताया है, उसे उसके अंतिम दंडादेश में दी गई सजा की अवधि में समायोजित कर दिया जाएगा।

    उदाहरण के रूप में, यदि किसी आरोपी को 2 वर्ष की कारावास की सजा हुई है और उसने मुकदमे की प्रक्रिया के दौरान 6 महीने पहले से जेल में बिताए हैं, तो अब उसे केवल 1 वर्ष 6 महीने की सजा ही भुगतनी होगी।

    पूर्व धाराओं से संबंध

    यह धारा सीधे तौर पर सजा की शुरुआत और अवधि से जुड़ी धारा 466 तथा 467 से संबंधित है। धारा 466 में फरार दोषियों पर सजा के प्रभाव को समझाया गया है और धारा 467 में एक ही व्यक्ति को दो अलग-अलग अपराधों में मिली सजा के कार्यान्वयन के नियम बताए गए हैं।

    इन धाराओं में जहां कारावास की व्यवस्था और उसकी आरंभिक तिथि तय की जाती है, वहीं धारा 468 सजा की गणना में निष्पक्षता लाने का कार्य करती है।

    धारा 475 का संदर्भ

    धारा 468 के साथ एक आवश्यक अपवाद को जोड़ा गया है, जिसमें यह कहा गया है कि जिन मामलों में धारा 475 लागू होती है, उनमें हिरासत में बिताया गया समय उस धारा में वर्णित 14 वर्षों की अवधि में समायोजित किया जाएगा।

    धारा 475 में यह प्रावधान है कि आजीवन कारावास पाए किसी व्यक्ति को 14 वर्षों तक जेल में रहना अनिवार्य है। ऐसे मामलों में यह जरूरी हो जाता है कि पहले से बिताया गया कारावास भी उस 14 वर्षों की न्यूनतम अवधि में गिना जाए।

    धारा 469 – पूर्व या पश्चात की सजा से मुक्ति नहीं

    धारा 469 एक बचाव प्रावधान (saving clause) है जो यह स्पष्ट करता है कि धारा 466 और 467 में दिए गए प्रावधानों को इस रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए जिससे दोषी व्यक्ति किसी भी पूर्व या बाद में मिले दंड से मुक्त हो जाए।

    उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति एक अपराध में सजा काट रहा है और उसे किसी अन्य अपराध में भी दोषी ठहराया गया है, तो दोनों सजाओं की प्रकृति और समयसीमा धारा 467 के अनुसार निर्धारित की जाएगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दोषी एक सजा भुगतकर दूसरे से मुक्त हो जाएगा।

    उप-धारा (2) का महत्व

    धारा 469(2) में एक व्यावहारिक स्थिति की चर्चा की गई है। कभी-कभी किसी व्यक्ति को जेल की सजा के साथ-साथ जुर्माना भी भरने का आदेश दिया जाता है और यदि वह जुर्माना न भरे तो उसे अतिरिक्त कारावास भुगतना होता है। यह उप-धारा कहती है कि यदि ऐसा कोई व्यक्ति उस पहली सजा को काट चुका है और आगे उसे कोई अन्य कारावास भुगतना है, तो तब तक उस 'डिफॉल्ट कारावास' को लागू नहीं किया जाएगा जब तक वह आगे की सभी सजाएं पूरी न कर ले।

    इससे न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि सजाएं व्यवस्थित और तार्किक ढंग से लागू हों।

    धारा 470 – सजा के क्रियान्वयन के बाद वारंट की वापसी

    धारा 470 एक प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा है जो न्याय प्रक्रिया की पारदर्शिता सुनिश्चित करता है। इसके अनुसार, जब किसी दंडादेश का पूर्ण रूप से क्रियान्वयन हो जाता है, तो उस पर अमल करने वाला अधिकारी (जैसे जेल अधीक्षक) उस वारंट को न्यायालय को वापस करता है जिसमें वह प्रमाणित करता है कि दंडादेश किस प्रकार पूरा किया गया।

    इस व्यवस्था से यह सुनिश्चित होता है कि न्यायालय के रिकॉर्ड में यह साफ-साफ दर्ज हो कि दोषी व्यक्ति के खिलाफ पारित आदेश पर पूरी तरह से कार्रवाई हो चुकी है।

    पूर्ववर्ती धारा 465 से संबंध

    धारा 465 में यह व्यवस्था दी गई है कि दंडादेश के कार्यान्वयन हेतु वारंट न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया जा सकता है। धारा 470 इसी प्रक्रिया की अंतिम कड़ी है, जहां उस वारंट को निष्पादन के उपरांत लौटा दिया जाता है।

    धारा 471 – आदेश द्वारा दी गई राशि की वसूली जुर्माने की तरह

    यह धारा उस स्थिति के लिए बनाई गई है जब किसी व्यक्ति को किसी आदेश के तहत किसी को राशि का भुगतान करना होता है (परंतु यह जुर्माना नहीं होता)। ऐसी स्थिति में, उस राशि की वसूली जुर्माने के समान की जाएगी।

    प्रावधान का उद्देश्य

    कई बार न्यायालय या मजिस्ट्रेट किसी आदेश के तहत आरोपी को किसी को मुआवजा, लागत, या अन्य प्रकार की राशि देने को कहता है। यदि कानून में ऐसी राशि वसूलने का विशेष तरीका न बताया गया हो, तो यह धारा काम आती है। इसका अर्थ यह है कि वह राशि ऐसे वसूली जाएगी जैसे कि कोई जुर्माना हो।

    धारा 461 और 400 से संबंध

    इस धारा में विशेष रूप से उल्लेख है कि धारा 461, जो जुर्माने की वसूली की प्रक्रिया बताती है, उसे धारा 400 के तहत पारित आदेशों पर भी लागू किया जाएगा। धारा 400 में मुकदमे के दौरान उठे खर्चों को संबंधित पक्ष से वसूलने की बात की गई है। अतः यदि किसी पक्ष को मुकदमे में आए खर्चों का भुगतान करने को कहा जाए और वह नहीं करता, तो वह जुर्माने के समान वसूल किया जाएगा।

    व्यावहारिक उदाहरण

    मान लीजिए कि किसी व्यक्ति के खिलाफ अपराध सिद्ध होता है और न्यायालय उसे पीड़ित को ₹10,000 मुआवजा देने का आदेश देता है, परंतु वह राशि नहीं देता। यदि उस मुआवजे की वसूली का तरीका स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है, तो अब उस राशि की वसूली धारा 471 के तहत जुर्माने की तरह की जाएगी—अर्थात् उस पर वसूली के लिए गिरफ्तारी वारंट या संपत्ति की कुर्की भी हो सकती है।

    धारा 468 से लेकर 471 तक के प्रावधान भारतीय न्याय संहिता, 2023 में दंडादेशों के निष्पादन और न्याय की व्यावहारिक व्यवस्था से गहराई से जुड़े हुए हैं। ये धाराएं केवल कानून के अक्षरों में नहीं, बल्कि उसके न्यायपूर्ण और मानवीय स्वरूप को भी उजागर करती हैं।

    जहां धारा 468 आरोपी को पहले से बिताए समय का न्यायपूर्ण लाभ देती है, वहीं धारा 469 से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी दोषी अपने कर्मों की पूरी सजा भुगतेगा। धारा 470 न्यायालयी प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करती है और धारा 471 न्यायालय के आदेशों को प्रभावी और बाध्यकारी बनाती है।

    Next Story