भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 458, 459 और 460: कारावास की सज़ा के निष्पादन की प्रक्रियाएँ

Himanshu Mishra

13 May 2025 9:32 AM

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 458, 459 और 460: कारावास की सज़ा के निष्पादन की प्रक्रियाएँ

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के अध्याय XXXIV में दंड निष्पादन (Execution of Sentences) से संबंधित विस्तृत प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय के अंतर्गत धारा 458, 459 और 460 विशेष रूप से कारावास की सजा के निष्पादन (Execution of Sentence of Imprisonment) से जुड़ी हुई हैं।

    इन धाराओं में यह स्पष्ट किया गया है कि जब किसी अभियुक्त को आजीवन कारावास या किसी निश्चित अवधि के कारावास की सजा दी जाती है, तो उसे जेल भेजने की प्रक्रिया क्या होगी, संबंधित वारंट किसे दिया जाएगा, और उसे कहां रखा जाएगा।

    इस लेख में हम इन तीनों धाराओं को क्रमवार, सरल भाषा में समझेंगे, उनका व्यावहारिक महत्व बताएंगे, प्रासंगिक उदाहरण देंगे और आवश्यकतानुसार संहिता की अन्य धाराओं से इनके संबंध को भी स्पष्ट करेंगे।

    धारा 458 – कारावास की सजा का निष्पादन (Execution of Sentence of Imprisonment)

    धारा 458(1): सजा सुनाए जाने के तुरंत बाद वारंट भेजने की प्रक्रिया

    इस उपधारा के अनुसार, जब किसी अभियुक्त को आजीवन कारावास या किसी अवधि के कारावास की सजा दी जाती है (बशर्ते वह धारा 453 के अंतर्गत न आता हो), तो न्यायालय को तत्काल एक वारंट उस जेल या स्थान को भेजना होता है, जहाँ पर अभियुक्त को बंदी बनाकर रखा जाना है। यदि अभियुक्त उस समय पहले से ही जेल में नहीं है, तो न्यायालय को उसे वारंट के साथ उस जेल या स्थान पर भेजना होता है।

    यहाँ यह जानना आवश्यक है कि धारा 453 उन मामलों से संबंधित है जिनमें मृत्युदंड दिया जाता है और वह उच्च न्यायालय की पुष्टि के अधीन होता है। ऐसे मामलों में अलग प्रक्रिया अपनाई जाती है, जो धारा 453 में बताई गई है।

    इस उपधारा में एक अपवाद भी दिया गया है—यदि किसी अभियुक्त को “कोर्ट के उठने तक की सजा” दी जाती है, तो जेल भेजने का वारंट तैयार करना आवश्यक नहीं है। ऐसी स्थिति में न्यायालय अभियुक्त को न्यायालय परिसर के भीतर या किसी अन्य निर्दिष्ट स्थान पर बंदी बनाकर रख सकता है।

    उदाहरण

    मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को धोखाधड़ी के मामले में पाँच वर्ष के कारावास की सजा दी जाती है। उस स्थिति में न्यायालय को उसी समय जेल अधीक्षक को एक वारंट भेजना होता है और अभियुक्त को जेल भेजा जाता है। लेकिन अगर किसी को अदालत उठने तक की सजा दी जाती है – जैसा कि मामूली अवमानना के मामलों में देखा जाता है – तो जेल का वारंट भेजने की आवश्यकता नहीं होती।

    धारा 458(2): अभियुक्त की अनुपस्थिति में सजा का निष्पादन

    इस उपधारा में कहा गया है कि यदि अभियुक्त सजा सुनाए जाने के समय न्यायालय में उपस्थित नहीं है, तो न्यायालय को उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करना होगा ताकि उसे उस जेल या स्थान पर भेजा जा सके, जहाँ उसे बंदी बनाकर रखा जाना है। ऐसी स्थिति में कारावास की अवधि उसकी गिरफ्तारी की तिथि से प्रारंभ मानी जाएगी।

    यह प्रावधान उन मामलों में अत्यंत महत्वपूर्ण है जहाँ अभियुक्त ज़मानत पर था और सजा सुनाए जाने से पहले अनुपस्थित हो गया। ऐसे मामलों में सजा की अवधि तभी से गिनी जाती है जब उसे गिरफ्तार करके जेल में भेजा जाता है।

    उदाहरण

    यदि किसी अभियुक्त को तीन साल के कारावास की सजा दी गई, लेकिन वह सुनवाई के समय अदालत में मौजूद नहीं था, तो न्यायालय उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करेगा। अब जब वह गिरफ्तार होकर जेल जाएगा, तो वही दिन उसकी सजा का प्रारंभिक दिन माना जाएगा, न कि जब उसे सजा सुनाई गई थी।

    धारा 459 – सजा के निष्पादन के लिए वारंट किसे निर्देशित किया जाएगा (Direction of Warrant for Execution)

    इस धारा में यह स्पष्ट किया गया है कि कारावास की सजा के निष्पादन हेतु जो भी वारंट तैयार किया जाएगा, वह उस जेल या स्थान के प्रभारी अधिकारी को निर्देशित किया जाएगा, जहाँ अभियुक्त को बंदी बनाकर रखा जाना है।

    यह प्रावधान प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायालय का आदेश सीधे उस अधिकारी को मिले जो बंदी के संरक्षण और रखरखाव के लिए जिम्मेदार है।

    प्रभाव

    इस धारा के माध्यम से न्यायालय और जेल प्रशासन के बीच सीधा संपर्क स्थापित किया जाता है। यह प्रक्रिया सजा के प्रभावी और त्वरित क्रियान्वयन को सुनिश्चित करती है।

    धारा 460 – वारंट कहाँ जमा किया जाएगा (Warrant with Whom to be Lodged)

    इस धारा में यह कहा गया है कि जब अभियुक्त को जेल में बंद किया जाना हो, तो वह वारंट जेल अधीक्षक (Jailor) के पास जमा किया जाएगा। यह प्रशासनिक आवश्यकता है ताकि जेल प्रशासन के पास अभियुक्त को बंदी बनाए रखने का वैधानिक आधार रहे।

    वारंट के बिना जेल अधीक्षक किसी व्यक्ति को बंदी बनाकर नहीं रख सकता, चाहे उसे कोई भी सजा क्यों न दी गई हो। यह नियम प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को अनावश्यक रूप से बाधित किए जाने से रोकता है।

    उदाहरण

    कोर्ट ने एक व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। कोर्ट ने वारंट तैयार किया और उस व्यक्ति को जेल भेजा। अब वह वारंट जेलर के पास जमा किया जाएगा और जेलर उसी के आधार पर उस व्यक्ति को बंद रखेगा।

    सम्बंधित धाराओं से संबंध

    धारा 457, जिसकी हमने पहले व्याख्या की थी, इस बात से संबंधित थी कि किसी व्यक्ति को किस स्थान पर बंदी बनाया जाएगा, और यदि वह सिविल जेल में है तो आपराधिक जेल में कैसे भेजा जाएगा। वहीं, धारा 458 से 460 में उस स्थिति को संबोधित किया गया है जब अभियुक्त को वास्तव में जेल भेजा जाना है और उस प्रक्रिया की औपचारिकताओं का पालन करना है।

    धारा 453, जो विशेष रूप से मृत्युदंड की पुष्टि और निष्पादन से संबंधित है, उसमें अभियुक्त को जेल भेजने की प्रक्रिया अलग है। वहां सत्र न्यायालय उच्च न्यायालय की पुष्टि के बाद निष्पादन का आदेश देता है। धारा 458 इन मामलों को छोड़कर अन्य सभी कारावास की सजाओं पर लागू होती है।

    व्यावहारिक महत्व

    धाराएँ 458 से 460 दंड प्रक्रिया प्रणाली का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा हैं क्योंकि ये सुनिश्चित करती हैं कि:

    1. सजा सुनाए जाने के तुरंत बाद अभियुक्त को विधिवत जेल भेजा जाए,

    2. यदि अभियुक्त अनुपस्थित हो तो उसकी गिरफ्तारी के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएँ,

    3. न्यायालय के आदेश को उचित अधिकारी तक पहुँचाया जाए और,

    4. उस आदेश को विधिवत पंजीबद्ध किया जाए ताकि कोई भी व्यक्ति अवैध रूप से बंद न किया जाए।

    ये धाराएँ न्यायिक आदेशों की कार्यान्वयन प्रक्रिया को नियमित और पारदर्शी बनाती हैं।

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धाराएँ 458, 459 और 460 अभियुक्तों को कारावास की सजा देने के पश्चात न्यायालय और जेल प्रशासन के बीच तालमेल स्थापित करती हैं। यह सजा की निष्पादन प्रक्रिया को प्रभावी, पारदर्शी और विधिसम्मत बनाती हैं। इन धाराओं के माध्यम से यह सुनिश्चित होता है कि सजा केवल न्यायालय के आदेश के अनुरूप ही लागू हो और अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन न हो।

    इन प्रक्रियाओं का पालन करने से न्यायिक निर्णयों को लागू करने में सहायता मिलती है और न्यायिक आदेशों की विश्वसनीयता बनी रहती है। इससे न केवल पीड़ित पक्ष को संतोष मिलता है, बल्कि दंड प्रक्रिया का उद्देश्य – सुधार, निवारण और दमन – भी पूर्ण होता है।

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