BNSS 2023 की धारा 444 और 445: पुनरीक्षण के दौरान पक्षकारों की सुनवाई और आदेशों का प्रमाणन
Himanshu Mishra
3 May 2025 1:31 PM

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अध्याय 32 में पुनरीक्षण (Revision) से संबंधित विस्तृत प्रावधान दिए गए हैं। इस अध्याय की धारा 444 और धारा 445 दो ऐसे महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो पुनरीक्षण की प्रक्रिया में पक्षकारों की सुनवाई और हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय के निर्णयों के अमल से संबंधित हैं। ये धाराएं प्रक्रिया की पारदर्शिता, न्यायिक व्यवस्था की कार्यकुशलता और न्याय के निष्पादन की दिशा में अत्यंत उपयोगी भूमिका निभाती हैं।
इस लेख में हम धारा 444 और 445 को क्रमशः विस्तारपूर्वक और सरल हिंदी में समझेंगे। हम इनका विश्लेषण करेंगे, संबंधित उदाहरणों के माध्यम से स्पष्टीकरण देंगे, और इनका संबंध अन्य प्रावधानों जैसे धारा 438, 440, 442 और 429 से जोड़कर देखेंगे।
धारा 444 : पुनरीक्षण की सुनवाई के लिए पक्षकारों को सुनने का विकल्प
यह धारा यह स्पष्ट करती है कि जब कोई न्यायालय पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, तब सामान्यतः किसी भी पक्षकार को यह अधिकार नहीं है कि वह अनिवार्य रूप से व्यक्तिगत रूप से या वकील के माध्यम से सुना जाए। हालांकि, यदि न्यायालय को उचित प्रतीत हो, तो वह किसी पक्षकार को स्वयं या उसके अधिवक्ता को सुनने का विकल्प अपना सकता है।
इस धारा का उद्देश्य
पुनरीक्षण की प्रक्रिया अपील जैसी नहीं होती। अपील में तो पक्षकारों को पूर्ण अवसर मिलता है कि वे तर्क रखें, सबूतों की व्याख्या करें और न्यायालय को निर्णय के गलत पक्षों पर ध्यान आकर्षित करें। लेकिन पुनरीक्षण केवल न्यायिक त्रुटियों, विधिक गलतियों, या न्याय के गंभीर उल्लंघन की स्थिति में किया जाता है।
इसलिए, इस प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से लंबा करने से बचाने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि कोई पक्षकार स्वाभाविक रूप से सुनवाई का अधिकारी नहीं है, परंतु यदि न्यायालय उपयुक्त समझे तो उसे सुन सकता है।
एक उदाहरण द्वारा समझना
मान लीजिए कि एक व्यक्ति को चोरी के अपराध में दोषी ठहराया गया और वह अपील में नहीं गया। बाद में वह पुनरीक्षण याचिका दाखिल करता है। अब, हाईकोर्ट उस याचिका पर पुनरीक्षण की प्रक्रिया शुरू करता है। यदि न्यायालय को दस्तावेज देखकर लगता है कि यह याचिका विधिक दृष्टि से गंभीर नहीं है और इसमें कोई ऐसी त्रुटि नहीं है जो न्याय की अवहेलना करती हो, तो वह याचिका को खारिज कर सकता है बिना याचिकाकर्ता को सुने।
परन्तु यदि न्यायालय को लगता है कि कुछ बिंदुओं पर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है, तो वह याचिकाकर्ता या उसके वकील को सुनने का विकल्प अपना सकता है।
धारा 444 का संबंध धारा 442 से
धारा 442 में यह स्पष्ट किया गया है कि हाईकोर्ट को पुनरीक्षण में वही शक्तियां प्राप्त हैं जो अपील न्यायालय को धारा 427, 430, 431, 432 के अंतर्गत प्राप्त हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि आरोपी के खिलाफ कोई आदेश बिना उसे सुने पारित नहीं किया जा सकता। वहीं धारा 444 यह स्पष्ट करती है कि सामान्यतः पक्षकारों को सुनवाई का अधिकार नहीं है, परंतु न्यायालय सुनने का विकल्प अपना सकता है।
संक्षेप में, धारा 444 यह सुनिश्चित करती है कि पुनरीक्षण न्यायालयों की प्रक्रिया लचीली रहे, लेकिन जहां आवश्यक हो, न्याय सुनिश्चित करने हेतु सुनवाई का अवसर भी दिया जा सके।
धारा 445 : हाईकोर्ट या सत्र न्यायाधीश के निर्णय को अधीनस्थ न्यायालय को प्रमाणित करना
यह धारा हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय द्वारा किए गए किसी भी पुनरीक्षण निर्णय के बाद की प्रक्रिया को स्पष्ट करती है। जब भी कोई आदेश या निर्णय पुनरीक्षण में पारित किया जाता है, उसे उस न्यायालय को प्रमाणित किया जाना चाहिए जिसने मूलतः उस आदेश, निर्णय या दंड को पारित किया था।
प्रमाणन की प्रक्रिया
धारा 445 के अनुसार, हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय को अपने पुनरीक्षण निर्णय या आदेश को धारा 429 के अनुसार प्रमाणित रूप में मूल न्यायालय को भेजना होता है। धारा 429 में प्रमाणन की विधि का वर्णन है, जो कहती है कि निर्णय की प्रति हस्ताक्षरित और मुहरबंद होकर संबंधित न्यायालय को भेजी जाती है।
फिर संबंधित अधीनस्थ न्यायालय को यह बाध्यता होती है कि वह उस निर्णय के अनुसार उपयुक्त आदेश पारित करे और यदि आवश्यक हो, तो अभिलेख (रिकॉर्ड) में आवश्यक संशोधन करे।
एक उदाहरण द्वारा समझना
मान लीजिए कि मजिस्ट्रेट न्यायालय ने एक आरोपी को छह महीने की सजा सुनाई। आरोपी ने पुनरीक्षण याचिका सत्र न्यायाधीश के समक्ष दायर की। सत्र न्यायाधीश ने पुनरीक्षण में पाया कि सजा कानून के अनुसार नहीं दी गई और उसे तीन महीने कर दिया। अब सत्र न्यायाधीश इस संशोधित निर्णय को धारा 445 के तहत प्रमाणित रूप में मजिस्ट्रेट न्यायालय को भेजेगा। इसके बाद मजिस्ट्रेट न्यायालय उस प्रमाणित आदेश के अनुसार अभिलेख में संशोधन करेगा और आवश्यक आदेश पारित करेगा।
धारा 445 का महत्व
यह धारा सुनिश्चित करती है कि उच्च स्तर पर लिए गए निर्णय न केवल कागज़ों तक सीमित न रह जाएं, बल्कि व्यवहार में भी लागू हों। यदि यह प्रक्रिया न हो तो पुनरीक्षण का उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। न्यायिक आदेशों की अंतिम क्रियान्विति के लिए यह प्रक्रिया अत्यंत आवश्यक है।
धारा 445 का संबंध धारा 429 और 442 से
धारा 429 पहले ही यह प्रावधान करती है कि हाईकोर्ट से जब कोई निर्णय आता है, तो उसे प्रमाणित रूप में निचली अदालत को भेजा जाना चाहिए। वहीं धारा 442 में यह वर्णित है कि पुनरीक्षण में हाईकोर्ट को कौन-कौन सी शक्तियां प्राप्त हैं। धारा 445 इन दोनों धाराओं के बीच क्रियात्मक सेतु का कार्य करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि पुनरीक्षण में जो निर्णय पारित हुए हैं, वे उचित प्रक्रिया से लागू भी किए जाएं।
एक व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि कोई भी न्यायिक व्यवस्था केवल निर्णय लेने में ही नहीं, बल्कि उसे लागू करवाने में भी सक्षम हो। धारा 445 इस मूल भावना को मूर्त रूप देती है।
धारा 444 और 445 पुनरीक्षण प्रक्रिया को संतुलन, दक्षता और निष्पक्षता प्रदान करती हैं। एक ओर धारा 444 यह सुनिश्चित करती है कि न्यायालय पर अनावश्यक बोझ न पड़े और जहां आवश्यक हो वहीं पक्षकारों को सुनवाई का अवसर दिया जाए। दूसरी ओर धारा 445 यह सुनिश्चित करती है कि पुनरीक्षण में पारित निर्णय प्रभावी ढंग से लागू हों और मूल न्यायालय में आवश्यक सुधार या संशोधन किए जाएं।
इन दोनों धाराओं के माध्यम से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 यह दिखाती है कि पुनरीक्षण कोई औपचारिक प्रक्रिया मात्र नहीं है, बल्कि यह न्याय की समीक्षा और सुधार की एक गंभीर विधिक प्रक्रिया है, जिसकी अपनी सुनियोजित संरचना और उद्देश्य हैं।