भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 439 और 440: हाईकोर्ट और सेशन कोर्ट की जांच और पुनर्विचार की शक्तियों

Himanshu Mishra

30 April 2025 6:26 PM IST

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 439 और 440: हाईकोर्ट और सेशन कोर्ट की जांच और पुनर्विचार की शक्तियों

    भूमिका

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) भारत में दंड प्रक्रिया से संबंधित प्रमुख कानून है। इसमें आपराधिक मामलों की सुनवाई, जांच, पुनरीक्षण और अपील से जुड़ी प्रक्रियाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है। संहिता के अध्याय 32 (अध्याय XXXII) में 'संदर्भ और पुनरीक्षण' (Reference and Revision) की प्रक्रिया को समाहित किया गया है।

    इस अध्याय की प्रारंभिक धाराएं जैसे धारा 436, 437 और 438 यह स्पष्ट करती हैं कि किस प्रकार कोई निचली अदालत हाईकोर्ट को संदर्भ भेज सकती है, हाईकोर्ट उस संदर्भ का क्या निपटारा कर सकता है, और पुनरीक्षण के लिए कौन से न्यायालय किस प्रकार से रिकॉर्ड मंगवा सकते हैं। इन्हीं धाराओं की श्रृंखला में धारा 439 और 440 न्यायालयों की जांच कराने और पुनरीक्षण करने की शक्तियों को और अधिक स्पष्ट करती हैं।

    धारा 439: जांच का आदेश देने की शक्ति

    धारा 439 इस बात का अधिकार देती है कि यदि हाईकोर्ट या सत्र न्यायाधीश (Sessions Judge) ने किसी रिकॉर्ड की समीक्षा की है — चाहे वह धारा 438 के तहत किया गया हो या किसी अन्य स्थिति में — तो वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) को यह निर्देश दे सकते हैं कि वह स्वयं या किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट से उस मामले में आगे जांच कराए।

    यह जांच उस स्थिति में कराई जा सकती है जब:

    1. कोई शिकायत (Complaint) धारा 226 या धारा 227 की उपधारा (4) के अंतर्गत खारिज कर दी गई हो।

    2. किसी व्यक्ति को आरोपित (Accused) बनाए जाने के बाद उसे discharge कर दिया गया हो।

    यह शक्ति इस उद्देश्य से दी गई है कि न्यायालय, यह देखकर कि कोई मामला गंभीर है और प्रथम दृष्टया जांच की आवश्यकता है, किसी शिकायत को दोबारा जांचने का निर्देश दे सके।

    धारा 226 और 227 का सन्दर्भ

    धारा 226 उस स्थिति की बात करती है जब कोई मजिस्ट्रेट किसी शिकायत पर जांच करने के बाद यह पाता है कि प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता, तो वह शिकायत को खारिज कर सकता है। वहीं, धारा 227 में, विशेष रूप से उपधारा (4), मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि यदि उसे यह लगता है कि कोई पर्याप्त आधार नहीं है आरोप तय करने के लिए, तो वह आरोपी को discharge कर सकता है।

    इन दोनों धाराओं के अंतर्गत जब किसी शिकायत या आरोपी को खारिज या discharge किया जाता है, और बाद में यदि हाईकोर्ट या सत्र न्यायाधीश को रिकॉर्ड देखने पर लगता है कि मामले में आगे जांच की जानी चाहिए, तो वे धारा 439 के तहत जांच का आदेश दे सकते हैं।

    न्यायिक प्रक्रिया का संतुलन: आरोपी को सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य

    धारा 439 में एक महत्वपूर्ण उपबंध (Proviso) यह जोड़ा गया है कि किसी ऐसे व्यक्ति के मामले में, जिसे discharge कर दिया गया है, अदालत तब तक आगे जांच कराने का आदेश नहीं दे सकती जब तक उस व्यक्ति को यह अवसर न दिया गया हो कि वह यह बता सके कि आगे जांच का आदेश क्यों न दिया जाए।

    इसका उद्देश्य यह है कि आरोपी व्यक्ति की प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के तहत सुनवाई हो सके और उसके अधिकारों का हनन न हो। इस उपबंध से यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी जांच बिना उचित प्रक्रिया अपनाए दोबारा शुरू न की जाए।

    उदाहरण से समझें

    मान लीजिए एक महिला ने अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत की लेकिन मजिस्ट्रेट ने धारा 226 के तहत यह कहकर शिकायत खारिज कर दी कि उसमें कोई प्रथम दृष्टया अपराध नहीं बनता। बाद में महिला पुनरीक्षण याचिका दाखिल करती है और सत्र न्यायाधीश रिकॉर्ड की समीक्षा के बाद यह महसूस करते हैं कि मजिस्ट्रेट ने पर्याप्त आधारों को नजरअंदाज किया है। ऐसे में वह धारा 439 के अंतर्गत मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को निर्देश दे सकते हैं कि वह खुद या किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट से उस शिकायत की आगे जांच कराएं।

    हालांकि, यदि मामला discharge का हो (जैसे कि धारा 227 के तहत), और आरोपी को पहले ही राहत मिल चुकी हो, तो पुनः जांच का आदेश देने से पहले आरोपी को नोटिस देना अनिवार्य होगा।

    धारा 440: सत्र न्यायाधीश की पुनरीक्षण की शक्ति

    धारा 440 में सत्र न्यायाधीश को यह शक्ति दी गई है कि वह उस मामले में, जिसका रिकॉर्ड उसने स्वयं मंगवाया हो, हाईकोर्ट के समान सभी शक्तियों का प्रयोग कर सके, जैसा कि धारा 442 की उपधारा (1) में वर्णित है।

    धारा 442 का सन्दर्भ

    धारा 442 हाईकोर्ट को पुनरीक्षण की विस्तृत शक्तियां प्रदान करती है, जैसे कि:

    • गलत या अवैध सजा को रद्द करना या संशोधित करना,

    • प्रक्रिया में त्रुटियों को सुधारना,

    • किसी व्यक्ति की सजा को कम करना या माफ करना।

    धारा 440 कहती है कि यदि सत्र न्यायाधीश ने किसी मामले का रिकॉर्ड मंगवाया है, तो उसे वही शक्तियां प्राप्त होंगी जो धारा 442(1) में हाईकोर्ट को मिली हैं।

    धारा 440(2): धारा 442 की उपधाराओं का सत्र न्यायाधीश पर भी लागू होना

    जब सत्र न्यायाधीश किसी मामले में पुनरीक्षण करता है, तो धारा 442 की उपधाराएं (2), (3), (4), और (5) उस पर यथासंभव (so far as may be) लागू होंगी। इसका तात्पर्य यह है कि:

    • न्यायालय बिना अभियुक्त को सुने कोई निर्णय नहीं ले सकता।

    • आरोपी को जमानत दी जा सकती है यदि वह हिरासत में है।

    • पुनरीक्षण याचिका खारिज करने से पहले पक्षों को अवसर देना आवश्यक है।

    धारा 440(3): सत्र न्यायाधीश के निर्णय की अंतिमता

    यदि कोई व्यक्ति, या उसके प्रतिनिधि, सत्र न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर करता है और उस पर सत्र न्यायाधीश निर्णय ले लेता है, तो उस व्यक्ति के लिए हाईकोर्ट या किसी अन्य न्यायालय में उसी विषय पर पुनः पुनरीक्षण की याचिका दायर करना मान्य नहीं होगा।

    इस उपखंड का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि एक व्यक्ति को बार-बार एक ही विषय पर अलग-अलग मंचों पर पुनरीक्षण याचिकाएं दायर करने की छूट न मिले। इससे न्याय व्यवस्था पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और मामलों की गति धीमी होती है।

    उदाहरण: अंतिमता का सिद्धांत

    मान लीजिए एक व्यक्ति को सत्र न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया। वह उस निर्णय के विरुद्ध सत्र न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर करता है और न्यायाधीश उसकी याचिका खारिज कर देते हैं। अब वह व्यक्ति हाईकोर्ट के समक्ष दोबारा उसी आधार पर पुनरीक्षण की मांग नहीं कर सकता।

    धारा 439 और 440 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के तहत न्यायालयों को जांच और पुनरीक्षण की शक्तियां देती हैं, लेकिन इनका प्रयोग एक सुनियोजित और सीमित तरीके से किया जाना चाहिए।

    जहां धारा 439 न्यायालयों को शिकायतों और discharge मामलों में आगे की जांच के आदेश देने का अधिकार देती है, वहीं धारा 440 सत्र न्यायाधीश को हाईकोर्ट के समान पुनरीक्षण शक्तियां देती है, लेकिन कुछ सीमाओं और अंतिमता के सिद्धांत के तहत।

    यह स्पष्ट है कि संहिता की यह धाराएं न्यायिक नियंत्रण, प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष प्रक्रिया के मूलभूत सिद्धांतों को मजबूती प्रदान करती हैं। ये प्रावधान न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने की शक्ति देते हैं कि कोई भी गलत निर्णय अंतिम रूप से प्रभावी न हो और न्याय का उद्देश्य पूर्ण रूप से साकार हो।

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