हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 28, 28A और 29: अपील, डिक्री का प्रवर्तन और बचत खंड

Himanshu Mishra

24 July 2025 8:32 PM IST

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 28, 28A और 29: अपील, डिक्री का प्रवर्तन और बचत खंड

    हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) न केवल वैवाहिक संबंधों को नियंत्रित करता है बल्कि न्यायिक निर्णयों (Judicial Decisions) की अंतिम अपील (Finality of Appeals) और उनके प्रवर्तन (Enforcement) के लिए भी प्रक्रियाएँ प्रदान करता है।

    धारा 28 (Section 28) और धारा 28A (Section 28A) यह सुनिश्चित करती हैं कि वैवाहिक मामलों में पारित आदेशों को चुनौती दी जा सके और उन्हें प्रभावी बनाया जा सके। वहीं, धारा 29 (Section 29), एक महत्वपूर्ण बचत खंड (Savings Clause) के रूप में, अधिनियम के लागू होने से पहले हुए विवाहों और मौजूदा कानूनी अधिकारों की रक्षा करती है, जिससे कानून में निरंतरता (Continuity) बनी रहे।

    धारा 28. डिक्री और आदेशों से अपील (Appeals from decrees and orders)

    (1) इस अधिनियम के तहत न्यायालय द्वारा किसी भी कार्यवाही में पारित सभी डिक्री, उप-धारा (3) के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, न्यायालय द्वारा अपनी मूल सिविल अधिकारिता (Original Civil Jurisdiction) के प्रयोग में पारित डिक्री के रूप में अपील योग्य (Appealable as decrees) होंगी, और ऐसी प्रत्येक अपील उस न्यायालय में होगी जहाँ सामान्यतः अपीलें (Appeals ordinarily lie) न्यायालय के निर्णयों से होती हैं जो उसकी मूल सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दिए गए हैं। (All decrees made by the court in any proceeding under this Act shall, subject to the provisions of sub-section (3), be appealable as decrees of the court made in the exercise of its original civil jurisdiction, and every such appeal shall lie to the court to which appeals ordinarily lie from the decisions of the court given in the exercise of its original civil jurisdiction.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा हिंदू विवाह अधिनियम के तहत जिला न्यायालय (District Court) द्वारा पारित सभी डिक्री (All Decrees) (जैसे तलाक की डिक्री, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री, शून्य विवाह की डिक्री) को अपील योग्य बनाती है। इसका अर्थ है कि यदि कोई पक्ष जिला न्यायालय के फैसले से असंतुष्ट है, तो वह ऊपरी न्यायालय में अपील दायर कर सकता है। ऐसी अपीलें उसी तरह सुनी जाएंगी जैसे किसी भी अन्य सिविल मामले में जिला न्यायालय के मूल निर्णयों से अपीलें सुनी जाती हैं। सामान्यतः, ये अपीलें हाईकोर्ट (High Court) में दायर की जाती हैं।

    उदाहरण: यदि जिला न्यायालय तलाक का decree पारित करता है और पति इससे असहमत है, तो वह उस हाईकोर्ट में अपील दायर कर सकता है जिसकी अधिकारिता में वह जिला न्यायालय आता है।

    (2) इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में धारा 25 (Permanent Alimony) या धारा 26 (Custody of Children) के तहत न्यायालय द्वारा पारित आदेश, उप-धारा (3) के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, अपील योग्य होंगे यदि वे अंतरिम आदेश नहीं हैं (Appealable if they are not interim orders), और ऐसी प्रत्येक अपील उस न्यायालय में होगी जहाँ सामान्यतः अपीलें न्यायालय के निर्णयों से होती हैं जो उसकी मूल सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दिए गए हैं। (Orders made by the court in any proceeding under this Act under section 25 or section 26 shall, subject to the provisions of sub-section (3), be appealable if they are not interim orders, and every such appeal shall lie to the court to which appeals ordinarily lie from the decisions of the court given in exercise of its original civil jurisdiction.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा स्पष्ट करती है कि धारा 25 (स्थायी गुजारा भत्ता और भरण-पोषण) और धारा 26 (बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा) के तहत पारित अंतिम आदेश (Final Orders) भी अपील योग्य हैं। हालांकि, अंतरिम आदेश (Interim Orders) (जो कार्यवाही के दौरान अस्थायी रूप से पारित किए जाते हैं, जैसे धारा 24 के तहत वाद के लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण) अपील योग्य नहीं होते हैं। यह प्रावधान पक्षों को स्थायी वित्तीय व्यवस्थाओं और बच्चों से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णयों को चुनौती देने का अधिकार देता है।

    उदाहरण: यदि न्यायालय धारा 25 के तहत स्थायी गुजारा भत्ता का आदेश पारित करता है, तो असंतुष्ट पक्ष उस हाईकोर्ट में अपील कर सकता है। लेकिन यदि न्यायालय ने धारा 24 के तहत केवल अंतरिम भरण-पोषण का आदेश दिया है, तो उस आदेश के खिलाफ सीधे अपील नहीं की जा सकती।

    (3) इस धारा के तहत केवल खर्चों (Costs only) के विषय पर कोई अपील नहीं होगी। (There shall be no appeal under this section on the subject of costs only.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा एक सीमा (Limitation) लगाती है। न्यायालय द्वारा कार्यवाही के दौरान दिए गए केवल खर्चों (जैसे कानूनी शुल्क का भुगतान) से संबंधित आदेश के खिलाफ अलग से अपील दायर नहीं की जा सकती है। यह अदालतों का समय बचाने और छोटे-मोटे खर्चों पर लंबी अपील कार्यवाही से बचने के लिए है।

    (4) इस धारा के तहत प्रत्येक अपील डिक्री या आदेश की तारीख से नब्बे दिनों की अवधि (Period of ninety days from the date of the decree or order) के भीतर पसंद की जाएगी। (Every appeal under this section shall be preferred within a period of ninety days from the date of the decree or order.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा अपील दायर करने के लिए एक समय-सीमा (Time-limit) निर्धारित करती है। किसी भी डिक्री या आदेश (जो अपील योग्य है) के खिलाफ अपील को डिक्री या आदेश की तारीख से 90 दिनों के भीतर दायर किया जाना चाहिए। यह न्यायिक कार्यवाही में निश्चितता (Certainty) और अंतिम रूप (Finality) सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है।

    महत्वपूर्ण केस लॉ:

    1. अनिता जैन बनाम राकेश जैन (Anita Jain v. Rakesh Jain), 2004 (उत्तराखंड हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने धारा 28(4) के तहत अपील की अवधि पर जोर दिया और कहा कि यह अनिवार्य है। समय-सीमा के बाद दायर की गई अपील को केवल असाधारण परिस्थितियों में ही स्वीकार किया जाना चाहिए।

    2. कालिंदी देवी बनाम हरबंस लाल (Kalindi Devi v. Harbans Lal), 1999 (हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 28(2) के तहत केवल अंतिम आदेश ही अपील योग्य हैं, और अंतरिम आदेशों के खिलाफ अपील अनुमेय (Permissible) नहीं है।

    धारा 28A. डिक्री और आदेशों का प्रवर्तन (Enforcement of decrees and orders)

    इस अधिनियम के तहत न्यायालय द्वारा किसी भी कार्यवाही में पारित सभी डिक्री और आदेश उसी तरह प्रवर्तित (Enforced) किए जाएंगे जैसे न्यायालय द्वारा अपनी मूल सिविल अधिकारिता के प्रयोग में पारित डिक्री और आदेश वर्तमान में प्रवर्तन में हैं।

    स्पष्टीकरण: यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत न्यायालय द्वारा पारित आदेशों और डिक्री का कानूनी बल (Legal Force) उतना ही हो जितना किसी अन्य सिविल न्यायालय द्वारा पारित आदेशों का होता है। इसका मतलब है कि इन डिक्री और आदेशों को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 - CPC) के तहत निर्धारित प्रक्रियाओं के अनुसार लागू (Executed) किया जा सकता है। इसमें गिरफ्तारी (Arrest), संपत्ति की कुर्की (Attachment of Property) या बिक्री (Sale) जैसे तरीके शामिल हो सकते हैं, यदि कोई पक्ष अदालत के आदेश का पालन नहीं करता है।

    उदाहरण: यदि न्यायालय ने तलाक की डिक्री के तहत पति को पत्नी को एकमुश्त गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया है, और पति भुगतान करने से इनकार करता है, तो पत्नी सीपीसी के तहत उस आदेश को लागू करने के लिए आवेदन कर सकती है, जैसे किसी सामान्य दीवानी मामले में एक डिक्री को लागू किया जाता है।

    महत्वपूर्ण केस लॉ:

    1. अनिता रानी बनाम वेद प्रकाश (Anita Rani v. Ved Prakash), 1989 (पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 28A के तहत, वैवाहिक अदालतों द्वारा पारित आदेशों को उसी तरह से लागू किया जा सकता है जैसे किसी दीवानी न्यायालय द्वारा पारित कोई अन्य डिक्री, जिसमें दोषी पक्ष के खिलाफ गिरफ्तारी और कारावास (Arrest and Imprisonment) के प्रावधान भी शामिल हैं यदि वे जानबूझकर आदेशों का पालन नहीं करते हैं।

    29. बचत (Savings)

    (1) इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले हिंदुओं के बीच संपन्न एक विवाह, जो अन्यथा वैध है, केवल इस तथ्य के कारण अमान्य या कभी अमान्य नहीं माना जाएगा कि उसके पक्षकार एक ही गोत्र या प्रवर (Same gotra or pravara) के थे या विभिन्न धर्मों, जातियों या एक ही जाति के उप-खंडों (Different religions, castes or sub-divisions of the same caste) से संबंधित थे। (A marriage solemnized between Hindus before the commencement of this Act, which is otherwise valid, shall not be deemed to be invalid or ever to have been invalid by reason only of the fact that the parties thereto belonged to the same gotra or pravara or belonged to different religions, castes or sub-divisions of the same caste.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा अधिनियम के पूर्वव्यापी प्रभाव (Retrospective Effect) से सुरक्षा प्रदान करती है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 से पहले, कुछ रूढ़िवादी परंपराओं (Orthodox Traditions) के तहत समान गोत्र या प्रवर में विवाह, या विभिन्न जातियों के बीच विवाह को अमान्य माना जा सकता था। यह धारा स्पष्ट करती है कि यदि अधिनियम के लागू होने से पहले ऐसा कोई विवाह अन्यथा वैध था (यानी, अन्य सभी आवश्यक शर्तें पूरी की गई थीं), तो उसे अधिनियम के तहत केवल इन आधारों पर अमान्य नहीं माना जाएगा। यह कानूनी स्थिति में स्थिरता (Stability) सुनिश्चित करता है।

    उदाहरण: यदि 1950 में एक ही गोत्र के दो हिंदुओं ने शादी की थी, जो उस समय के किसी विशेष नियम के तहत विवादास्पद हो सकती थी, तो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद भी उनकी शादी को वैध माना जाएगा।

    (2) इस अधिनियम में निहित कोई भी बात रीति-रिवाज (Custom) द्वारा मान्यता प्राप्त या किसी विशेष अधिनियम (Special Enactment) द्वारा प्रदत्त हिंदू विवाह के विघटन (Dissolution) का अधिकार, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में संपन्न हुआ हो, को प्रभावित करने वाली नहीं मानी जाएगी। (Nothing contained in this Act shall be deemed to affect any right recognised by custom or conferred by any special enactment to obtain the dissolution of a Hindu marriage, whether solemnized before or after the commencement of this Act.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा विवाह के विघटन के मौजूदा अधिकारों (Existing Rights) को संरक्षित करती है जो रीति-रिवाज (जो हिंदू कानून का एक महत्वपूर्ण स्रोत है) या किसी विशेष कानून (जैसे भारतीय तलाक अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम) द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। इसका अर्थ है कि भले ही हिंदू विवाह अधिनियम में तलाक के लिए विशिष्ट आधार और प्रक्रियाएं हों, यह उन तलाक के अधिकारों को समाप्त नहीं करता है जो प्रथागत कानून (Customary Law) या अन्य विधियों (Other Statutes) के तहत मौजूद हैं।

    उदाहरण: कुछ समुदायों में विवाह के विघटन के लिए विशिष्ट प्रथागत तरीके (जैसे ग्राम पंचायत द्वारा तलाक) होते हैं। यह धारा सुनिश्चित करती है कि यदि ऐसे रीति-रिवाज कानून द्वारा मान्यता प्राप्त हैं, तो हिंदू विवाह अधिनियम उन्हें प्रभावित नहीं करेगा।

    (3) इस अधिनियम में निहित कोई भी बात किसी भी कानून के तहत किसी भी कार्यवाही को प्रभावित नहीं करेगी जो इस अधिनियम के प्रारंभ पर किसी भी विवाह को शून्य और अमान्य घोषित करने या किसी विवाह को रद्द करने या भंग करने या न्यायिक पृथक्करण के लिए लंबित (Pending) थी, और ऐसी कोई भी कार्यवाही जारी रखी जा सकती है और निर्धारित की जा सकती है जैसे कि यह अधिनियम पारित नहीं हुआ होता। (Nothing contained in this Act shall affect any proceeding under any law for the time being in force for declaring any marriage to be null and void or for annulling or dissolving any marriage or for judicial separation pending at the commencement of this Act, and any such proceeding may be continued and determined as if this Act had not been passed.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा लंबित कानूनी कार्यवाही (Pending Legal Proceedings) को बचाती है। इसका मतलब है कि यदि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने से पहले किसी भी मौजूदा कानून के तहत कोई वैवाहिक मामला (जैसे शून्य घोषित करने, रद्द करने, भंग करने या न्यायिक पृथक्करण के लिए) पहले से ही अदालत में चल रहा था, तो वह मामला नए अधिनियम के प्रावधानों से प्रभावित नहीं होगा। उन मामलों को उसी पुराने कानून के तहत जारी रखा जाएगा और तय किया जाएगा जिसके तहत वे शुरू किए गए थे। यह सुनिश्चित करता है कि नए कानून के लागू होने से पहले से चल रहे मामलों में कोई व्यवधान (Disruption) न हो।

    (4) इस अधिनियम में निहित कोई भी बात विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (43 of 1954) में निहित प्रावधानों को प्रभावित करने वाली नहीं मानी जाएगी, जो उस अधिनियम के तहत हिंदुओं के बीच संपन्न विवाहों के संबंध में है, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में संपन्न हुआ हो। (Nothing contained in this Act shall be deemed to affect the provisions contained in the Special Marriage Act, 1954, (43 of 1954) with respect to marriages between Hindus solemnized under that Act, whether before or after the commencement of this Act.)

    स्पष्टीकरण: यह उप-धारा विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (Special Marriage Act, 1954) के प्रावधानों को संरक्षित करती है। विशेष विवाह अधिनियम हिंदुओं सहित किसी भी धर्म के व्यक्तियों को एक नागरिक विवाह (Civil Marriage) करने का अवसर प्रदान करता है, जो धार्मिक रीति-रिवाजों के बजाय एक विशेष कानून द्वारा नियंत्रित होता है। यह धारा स्पष्ट करती है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, विशेष विवाह अधिनियम के तहत संपन्न हुए हिंदू विवाहों को प्रभावित नहीं करेगा। दोनों कानून समानांतर (Parallel) रूप से कार्य करते हैं।

    महत्वपूर्ण केस लॉ:

    1. गुंजन सक्सेना बनाम अमित गर्ग (Gunjan Saxena v. Amit Garg), 2008 (दिल्ली हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने धारा 29(2) के तहत रीति-रिवाज (Custom) द्वारा मान्यता प्राप्त तलाक के अधिकारों पर चर्चा की। न्यायालय ने कहा कि यदि किसी विशिष्ट समुदाय में विवाह के विघटन का एक सुस्थापित और मान्यता प्राप्त रीति-रिवाज है, तो हिंदू विवाह अधिनियम के बावजूद उस रीति-रिवाज का सम्मान किया जाएगा।

    2. जगमोहन सिंह बनाम श्रीमती अमरजीत कौर (Jagmohan Singh v. Smt. Amarjeet Kaur), 1999 (हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट):

    o इस मामले में धारा 29(3) की व्याख्या की गई। न्यायालय ने दोहराया कि नए हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने से पहले शुरू की गई वैवाहिक कार्यवाही पर पुराने कानून के प्रावधान ही लागू होते रहेंगे, भले ही नया अधिनियम अब लागू हो गया हो।

    हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 28, 28A और 29 अधिनियम के प्रभावी और न्यायसंगत संचालन के लिए मूलभूत हैं। धारा 28 न्यायिक निर्णयों के खिलाफ अपील का अधिकार प्रदान करती है और धारा 28A उनके प्रवर्तन को सुनिश्चित करती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास बना रहे।

    वहीं, धारा 29, एक दूरदर्शी बचत खंड के रूप में, अधिनियम के लागू होने से पहले के विवाहों, प्रथागत अधिकारों और लंबित कार्यवाही को सुरक्षित करती है। यह सुनिश्चित करती है कि नए कानून के बावजूद, कानूनी निरंतरता और व्यक्तियों के मौजूदा अधिकार अक्षुण्ण रहें, जिससे अधिनियम एक सुचारू और न्यायसंगत तरीके से लागू हो सके।

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