हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 22 और 23 : गोपनीय कार्यवाही और कार्यवाही में डिक्री
Himanshu Mishra
21 July 2025 6:04 PM IST

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) के तहत वैवाहिक कार्यवाही (Matrimonial Proceedings) की प्रकृति संवेदनशील और व्यक्तिगत होती है। धारा 22 (Section 22) गोपनीयता (Confidentiality) सुनिश्चित करने के लिए इन कैमरा कार्यवाही (In Camera Proceedings) का प्रावधान करती है, जबकि धारा 23 (Section 23) उस आधारशिला (Cornerstone) के रूप में कार्य करती है जिस पर अदालतें वैवाहिक मामलों में राहत (Relief) प्रदान करती हैं।
यह धारा न्याय के सिद्धांत (Principle of Justice) को बनाए रखते हुए, सुलह (Reconciliation) के महत्व और पक्षों की ईमानदारी (Bona Fides) पर जोर देती है।
22. कार्यवाही गोपनीय होगी और मुद्रित या प्रकाशित नहीं की जा सकेगी (Proceedings to be in camera and may not be printed or published)
(1) इस अधिनियम के तहत प्रत्येक कार्यवाही गोपनीय (In Camera) आयोजित की जाएगी और हाईकोर्ट (High Court) या सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के ऐसे निर्णय (Judgment) को छोड़कर, जो न्यायालय की पूर्व अनुमति (Previous Permission) से मुद्रित या प्रकाशित किया गया हो, किसी भी व्यक्ति के लिए ऐसी किसी भी कार्यवाही से संबंधित किसी भी मामले को मुद्रित या प्रकाशित करना कानूनी नहीं होगा (Shall not be lawful)। (Every proceeding under this Act shall be conducted in camera and it shall not be lawful for any person to print or publish any matter in relation to any such proceeding except a judgment of the High Court or of the Supreme Court printed or published with the previous permission of the court.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा वैवाहिक कार्यवाही की संवेदनशील प्रकृति (Sensitive Nature) को पहचानती है। "इन कैमरा" (In Camera) का अर्थ है कि कार्यवाही बंद कमरे में (In Closed Room) आयोजित की जाएगी, जिसमें केवल संबंधित पक्ष, उनके वकील (Lawyers), और अदालत के अधिकारी ही मौजूद होंगे। आम जनता (General Public) को प्रवेश की अनुमति नहीं होगी।
इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य पक्षों की निजता (Privacy) की रक्षा करना और उन्हें बिना किसी झिझक (Hesitation) के व्यक्तिगत और भावनात्मक मुद्दों (Emotional Issues) पर बात करने की अनुमति देना है। इसके अलावा, अदालत की अनुमति के बिना ऐसी कार्यवाही से संबंधित किसी भी मामले को मुद्रित या प्रकाशित करना गैरकानूनी है, सिवाय हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के, जिन्हें विशेष अनुमति से प्रकाशित किया जा सकता है।
उदाहरण: यदि रवि और प्रिया तलाक के लिए याचिका दायर करते हैं, तो उनकी सुनवाई अदालत कक्ष में नहीं होगी जहाँ कोई भी प्रवेश कर सके, बल्कि न्यायाधीश के चैंबर या एक विशेष "इन कैमरा" अदालत कक्ष में होगी। कोई भी समाचार पत्र या मीडिया आउटलेट उनकी कार्यवाही के विवरण (Details) को अदालत की अनुमति के बिना प्रकाशित नहीं कर सकता है।
(2) यदि कोई व्यक्ति उप-धारा (1) में निहित प्रावधानों के उल्लंघन में कोई मामला मुद्रित या प्रकाशित करता है, तो उसे एक हजार रुपये तक के जुर्माने (Fine which may extend to one thousand rupees) से दंडित किया जाएगा। (If any person prints or publishes any matter in contravention of the provisions contained in sub-section (1), he shall be punishable with fine which may extend to one thousand rupees.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा उन लोगों के लिए दंड (Punishment) का प्रावधान करती है जो इन कैमरा कार्यवाही की गोपनीयता का उल्लंघन करते हैं। गोपनीयता के उल्लंघन पर एक हजार रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह प्रावधान निजता के अधिकार को बल प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि संवेदनशील वैवाहिक जानकारी सार्वजनिक न हो।
महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law): सुनील कुमार मिश्रा बनाम ज्योति मिश्रा (Sunil Kumar Mishra v. Jyoti Mishra), 2008 (मध्य प्रदेश हाईकोर्ट):
• इस मामले में न्यायालय ने धारा 22 के तहत "इन कैमरा" कार्यवाही के महत्व पर जोर दिया। न्यायालय ने कहा कि इसका मुख्य उद्देश्य पक्षों को शर्मिंदगी (Embarrassment) से बचाना और उन्हें स्वतंत्र रूप से बोलने में सक्षम बनाना है, जिससे न्याय के हित में सच सामने आ सके। इस प्रावधान का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए।
23. कार्यवाही में डिक्री (Decree in proceedings)
(1) इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में, चाहे उसका बचाव किया गया हो या नहीं (Whether defended or not), यदि न्यायालय संतुष्ट है कि— (In any proceeding under this Act, whether defended or not, if the court is satisfied that—)
यह उप-धारा उन शर्तों (Conditions) को निर्धारित करती है जिन्हें न्यायालय को संतुष्ट करना होगा इससे पहले कि वह हिंदू विवाह अधिनियम के तहत किसी भी प्रकार की राहत (जैसे तलाक, न्यायिक पृथक्करण, शून्यकरणीय विवाह, दांपत्य अधिकारों की बहाली) प्रदान करे। ये शर्तें न्याय के सामान्य सिद्धांत (General Principles of Justice) और वैवाहिक कानून के विशिष्ट लक्ष्यों (Specific Goals) को दर्शाती हैं।
(a) राहत प्रदान करने के लिए कोई भी आधार मौजूद है और याचिकाकर्ता [सिवाय उन मामलों के जहाँ राहत धारा 5 के खंड (ii) के उप-खंड (a), उप-खंड (b) या उप-खंड (c) में निर्दिष्ट आधार पर मांगी गई है] किसी भी तरह से ऐसी राहत के उद्देश्य के लिए अपनी गलती या अक्षमता का फायदा नहीं उठा रहा है (Not in any way taking advantage of his or her own wrong or disability), और (any of the grounds for granting relief exists and the petitioner [except in cases where the relief is sought by him on the ground specified in sub-clause (a), sub-clause (b) or sub-clause (c) of clause (ii) of section 5] is not in any way taking advantage of his or her own wrong or disability for the purpose of such relief, and)
स्पष्टीकरण: यह "अपनी गलती का फायदा नहीं उठाना" (No Benefit from Own Wrong) का सिद्धांत है। न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि याचिकाकर्ता स्वयं किसी गलत काम (Wrongdoing) या अक्षमता (Disability) का दोषी न हो जिसके आधार पर वह राहत मांग रहा है। हालांकि, धारा 5(ii) के तहत विवाह को शून्य घोषित करने के कुछ विशिष्ट आधारों (जैसे मानसिक अक्षमता या मिर्गी/उन्माद) पर राहत मांगने वाले व्यक्ति पर यह शर्त लागू नहीं होती, क्योंकि ऐसे मामलों में विवाह ही मूल रूप से दोषपूर्ण होता है।
उदाहरण: यदि पति ने पत्नी को छोड़ दिया (परित्याग) और अब परित्याग के आधार पर तलाक चाहता है, तो उसे यह राहत नहीं मिलेगी क्योंकि वह अपनी ही गलती का फायदा उठा रहा है।
(b) जहाँ याचिका का आधार धारा 13 की उप-धारा (1) के खंड (i) (व्यभिचार) में निर्दिष्ट आधार है, याचिकाकर्ता किसी भी तरह से कार्य या कृत्यों में सहायक (Accessory) नहीं रहा है या उसने मिलीभगत नहीं की है (Connived at) या माफ नहीं किया है (Condoned) जिसकी शिकायत की गई है, या जहाँ याचिका का आधार क्रूरता है, याचिकाकर्ता ने किसी भी तरह से क्रूरता को माफ नहीं किया है (Not in any manner condoned the cruelty), और (where the ground of the petition is the ground specified in clause (i) of sub-section (1) of section 13, the petitioner has not in any manner been accessory to or connived at or condoned the act or acts complained of, or where the ground of the petition is cruelty the petitioner has not in any manner condoned the cruelty, and)
स्पष्टीकरण: यह सुनिश्चित करता है कि याचिकाकर्ता स्वच्छ हाथों (Clean Hands) से अदालत में आया हो।
• व्यभिचार के मामले में: यदि याचिका का आधार व्यभिचार है, तो न्यायालय यह देखेगा कि याचिकाकर्ता ने व्यभिचार में सहायता तो नहीं की (जैसे उसे बढ़ावा देना), या व्यभिचार के कार्य पर मिलीभगत तो नहीं की (जैसे जानबूझकर अनदेखा करना), या व्यभिचार के कार्य को माफ तो नहीं किया (जैसे संबंध जारी रखना)।
• क्रूरता के मामले में: यदि याचिका का आधार क्रूरता है, तो न्यायालय यह देखेगा कि याचिकाकर्ता ने क्रूरता के कृत्यों को माफ तो नहीं किया है। माफी (Condonation) आमतौर पर क्रूरता के कृत्यों को जानने के बाद वैवाहिक सहवास (Marital Cohabitation) को फिर से शुरू करने या जारी रखने से संबंधित होती है, जिससे यह implied होता है कि अपराध माफ कर दिया गया है।
उदाहरण: यदि पति को अपनी पत्नी के व्यभिचार के बारे में पता चलता है लेकिन फिर भी वह उसके साथ यौन संबंध जारी रखता है, तो यह व्यभिचार को माफ करने का संकेत हो सकता है और वह बाद में उस आधार पर तलाक नहीं मांग पाएगा।
(bb) जब आपसी सहमति (Mutual Consent) के आधार पर तलाक मांगा जाता है, तो ऐसी सहमति बल (Force), कपट (Fraud) या अनुचित प्रभाव (Undue Influence) द्वारा प्राप्त नहीं की गई है, और (when a divorce is sought on the ground of mutual consent, such consent has not been obtained by force, fraud or undue influence, and)
स्पष्टीकरण: यह विशेष रूप से धारा 13B (आपसी सहमति से तलाक) पर लागू होता है। न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि तलाक के लिए दोनों पक्षों की सहमति वास्तविक और स्वतंत्र (Genuine and Free) हो, न कि दबाव, धोखे या अनुचित प्रभाव के परिणामस्वरूप। यह पक्षों की स्वायत्तता (Autonomy) की रक्षा करता है।
उदाहरण: यदि पत्नी को पति द्वारा धमकाकर तलाक के कागजात पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया है, तो उसकी सहमति वैध नहीं मानी जाएगी और तलाक नहीं दिया जाएगा।
(c) याचिका (धारा 11 के तहत प्रस्तुत याचिका नहीं) प्रतिवादी के साथ मिलीभगत (Collusion) में प्रस्तुत या अभियोजित नहीं (Not presented or prosecuted in collusion) की गई है, और ([the petition (not being a petition presented under section 11)] is not presented or prosecuted in collusion with the respondent, and)
स्पष्टीकरण: यह खंड धारा 20(1) में उल्लिखित "कोई मिलीभगत नहीं" की आवश्यकता को दोहराता और पुष्ट करता है। न्यायालय को यह संतुष्ट होना चाहिए कि तलाक या अन्य राहत की मांग वास्तविक है और पक्षों द्वारा अदालत को गुमराह करने के लिए कोई गुप्त समझौता नहीं किया गया है। धारा 11 (शून्य विवाह) के मामलों को फिर से बाहर रखा गया है।
(d) कार्यवाही शुरू करने में कोई अनावश्यक या अनुचित देरी (Unnecessary or improper delay) नहीं हुई है, और (there has not been any unnecessary or improper delay in instituting the proceeding, and)
स्पष्टीकरण: न्यायालय यह देखेगा कि याचिका दायर करने में कोई अनुचित देरी तो नहीं हुई है। अत्यधिक देरी (Undue Delay) से राहत से इनकार किया जा सकता है, क्योंकि यह इंगित कर सकता है कि याचिकाकर्ता अपने अधिकारों को लागू करने में गंभीर नहीं था, या उसने जानबूझकर देरी की जिससे दूसरे पक्ष को नुकसान हो।
उदाहरण: यदि पति अपनी पत्नी की क्रूरता के कृत्यों को दस साल तक सहन करता है और फिर अचानक तलाक के लिए याचिका दायर करता है, तो न्यायालय देरी का कारण पूछेगा।
(e) कोई अन्य कानूनी आधार नहीं है जिसके कारण राहत प्रदान नहीं की जानी चाहिए, तो, और ऐसे मामले में, लेकिन अन्यथा नहीं, न्यायालय तदनुसार ऐसी राहत का डिक्री पारित करेगा (Decree such relief accordingly)। (there is no other legal ground why relief should not be granted, then, and in such a case, but not otherwise, the court shall decree such relief accordingly.)
स्पष्टीकरण: यह एक कैच-ऑल क्लॉज (Catch-all Clause) है, जो न्यायालय को यह सुनिश्चित करने की अनुमति देता है कि राहत प्रदान करने के लिए कोई अन्य कानूनी बाधा (Legal Impediment) नहीं है। यदि उपरोक्त सभी शर्तें पूरी होती हैं, तो न्यायालय को राहत (जैसे तलाक या न्यायिक पृथक्करण) का decree पारित करना अनिवार्य (Mandatory) हो जाता है।
महत्वपूर्ण केस लॉ: दिनेश मेहता बनाम उमा मेहता (Dinesh Mehta v. Uma Mehta), 1996 (गुजरात हाईकोर्ट):
• इस मामले में न्यायालय ने धारा 23(1)(e) के तहत "कोई अन्य कानूनी आधार नहीं" की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायालय को यह लगता है कि याचिकाकर्ता का आचरण (Conduct) न्यायालय की सद्भावना (Bona Fides) और ईमानदारी (Honesty) को कमजोर करता है, तो राहत से इनकार किया जा सकता है, भले ही अन्य सभी आधार मौजूद हों।
अनीता जैन बनाम राकेश जैन (Anita Jain v. Rakesh Jain), 2004 (उत्तराखंड हाईकोर्ट):
• इस मामले में न्यायालय ने धारा 23(1)(d) के तहत "अनावश्यक देरी" (Unnecessary Delay) की अवधारणा पर जोर दिया। न्यायालय ने कहा कि देरी को उचित कारणों से समझाया जाना चाहिए; अन्यथा, यह याचिकाकर्ता की ओर से ईमानदारी की कमी का संकेत दे सकता है।
(2) इस अधिनियम के तहत कोई भी राहत प्रदान करने से पहले, यह न्यायालय का कर्तव्य (Duty) होगा कि वह, हर मामले में जहाँ यह मामले की प्रकृति और परिस्थितियों के अनुरूप संभव हो, पक्षों के बीच सुलह कराने का हर संभव प्रयास (Make every endeavour to bring about reconciliation) करे: (Before proceeding to grant any relief under this Act, it shall be the duty of the court in the first instance, in every case where it is possible so to do consistently with the nature and circumstances of the case, to make every endeavour to bring about reconciliation between the parties:)
परंतु (Provided that) इस उप-धारा में निहित कोई भी बात किसी भी ऐसी कार्यवाही पर लागू नहीं होगी जहाँ धारा 13 की उप-धारा (1) के खंड (ii), खंड (iii), खंड (iv), खंड (v), खंड (vi) या खंड (vii) में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर राहत मांगी गई है। (Provided that nothing contained in this sub-section shall apply to any proceeding wherein relief is sought on any of the grounds specified in clause (ii), clause (iii), clause (iv), clause (v), clause (vi) or clause (vii) of sub-section (1) of section 13.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा न्यायालयों पर एक वैधानिक कर्तव्य (Statutory Duty) डालती है कि वे वैवाहिक विवादों में सुलह को बढ़ावा दें। न्यायालय को हमेशा पहले सुलह का प्रयास करना चाहिए, जब तक कि मामले की प्रकृति और परिस्थितियाँ ऐसी न हों कि सुलह संभव न हो।
• छूट (Exemptions): परंतुक उन विशिष्ट आधारों को सूचीबद्ध करता है जिन पर यह सुलह का कर्तव्य लागू नहीं होता है। ये वे आधार हैं जहाँ सुलह की संभावना बहुत कम होती है, क्योंकि विवाह का टूटना बहुत गंभीर या अपरिवर्तनीय होता है:
o धारा 13(1)(ii) - दूसरे धर्म में धर्मांतरण (Conversion to another religion)
o धारा 13(1)(iii) - लाइलाज मानसिक विकार (Incurable unsound mind/mental disorder)
o धारा 13(1)(iv) - कुष्ठ रोग (Leukoderma) - यह खंड 1976 के संशोधन द्वारा हटा दिया गया है, लेकिन पुराने संदर्भों में मौजूद हो सकता है।
o धारा 13(1)(v) - संचारी यौन रोग (Communicable venereal disease)
o धारा 13(1)(vi) - संसार का त्याग (Renounced the world)
o धारा 13(1)(vii) - सात साल से जीवित न सुना गया हो (Presumed dead)
उदाहरण: क्रूरता या परित्याग के आधार पर दायर तलाक की याचिका में, न्यायालय पक्षों को सुलह के लिए राजी करने की पूरी कोशिश करेगा। लेकिन यदि पति ने दूसरे धर्म में धर्मांतरण कर लिया है, तो न्यायालय सुलह का प्रयास करने के लिए बाध्य नहीं है।
महत्वपूर्ण केस लॉ: जे. विजयलक्ष्मी बनाम जे. वी. आर. कृष्ण राव (J. Vijayalakshmi v. J.V.R. Krishna Rao), 1999 (सुप्रीम कोर्ट):
• इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 23(2) के तहत सुलह के न्यायालय के कर्तव्य पर जोर दिया। न्यायालय ने कहा कि सुलह का प्रयास केवल एक औपचारिकता (Mere Formality) नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे वास्तविक और प्रभावी तरीके से (Genuine and Effective Manner) किया जाना चाहिए, क्योंकि विवाह को बचाना महत्वपूर्ण है।
(3) ऐसी सुलह कराने में न्यायालय की सहायता करने के उद्देश्य से, यदि पक्ष ऐसा चाहें या यदि न्यायालय ऐसा करना न्यायोचित और उचित समझे, तो कार्यवाही को पंद्रह दिन से अधिक न हो (Not exceeding fifteen days) ऐसी उचित अवधि के लिए स्थगित (Adjourn) कर सकता है और मामले को इस संबंध में पक्षों द्वारा नामित किसी व्यक्ति को या यदि पक्ष किसी व्यक्ति को नामित करने में विफल रहते हैं तो न्यायालय द्वारा नामित किसी व्यक्ति को संदर्भित कर सकता है, इस निर्देश के साथ कि न्यायालय को रिपोर्ट दी जाए कि क्या सुलह की जा सकती है और की गई है, और न्यायालय कार्यवाही का निपटारा करते समय रिपोर्ट का उचित ध्यान रखेगा। (For the purpose of aiding the court in bringing about such reconciliation, the court may, if the parties so desire or if the court thinks it just and proper so to do, adjourn the proceedings for a reasonable period not exceeding fifteen days and refer the matter to any person named by the parties in this behalf or to any person nominated by the court if the parties fail to name any person, with directions to report to the court as to whether reconciliation can be and has been, effected and the court shall in disposing of the proceeding have due regard to the report.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा सुलह के प्रयासों को सुविधाजनक बनाने के लिए एक प्रक्रियात्मक तंत्र (Procedural Mechanism) प्रदान करती है। न्यायालय कार्यवाही को अधिकतम 15 दिनों के लिए स्थगित कर सकता है और मामले को सुलह के लिए किसी ऐसे व्यक्ति (जैसे एक काउंसलर, परिवार के सदस्य या मध्यस्थ) को संदर्भित कर सकता है जिसे पक्ष चुनते हैं या जिसे न्यायालय नामित करता है। उस व्यक्ति को न्यायालय को एक रिपोर्ट देनी होगी कि क्या सुलह संभव थी और क्या इसे प्रभावी किया गया। न्यायालय को इस रिपोर्ट पर उचित ध्यान देना होगा।
उदाहरण: यदि तलाक की सुनवाई के दौरान, न्यायाधीश को लगता है कि सुलह की गुंजाइश है, तो वह दोनों पक्षों की सहमति से या अपने विवेक से मामले को किसी मध्यस्थ (Mediator) के पास भेज सकता है और उन्हें 15 दिनों के भीतर एक सुलह रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कह सकता है।
(4) प्रत्येक मामले में जहाँ विवाह तलाक की डिक्री द्वारा भंग किया जाता है, डिक्री पारित करने वाला न्यायालय प्रत्येक पक्ष को उसकी एक प्रति निःशुल्क (Free of cost) देगा। (In every case where a marriage is dissolved by a decree of divorce, the court passing the decree shall give a copy thereof free of cost to each of the parties.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा यह सुनिश्चित करती है कि तलाक के बाद, दोनों पक्षों को उनके तलाक की डिक्री की एक प्रति बिना किसी शुल्क के (Free of Cost) प्राप्त हो। यह कानूनी दस्तावेजों तक पहुंच (Access to Legal Documents) को सुविधाजनक बनाता है और पक्षों को अपने नए वैवाहिक दर्जे को साबित करने में मदद करता है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 22 और 23 मिलकर वैवाहिक कार्यवाही की अखंडता (Integrity) और मानवता (Humanity) को बनाए रखती हैं। धारा 22 निजता की सुरक्षा करती है और संवेदनशील मामलों में पक्षों को खुलकर बोलने के लिए एक सुरक्षित वातावरण प्रदान करती है।
वहीं, धारा 23 न्याय के सिद्धांतों को लागू करने, सुलह को प्रोत्साहित करने, और यह सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत ढांचा प्रदान करती है कि वैवाहिक राहत केवल तभी दी जाए जब सभी कानूनी और नैतिक (Ethical) शर्तों को पूरा किया गया हो। विशेष रूप से सुलह के प्रयास पर जोर और बच्चों के हितों पर विचार इस अधिनियम के सामाजिक रूप से जागरूक दृष्टिकोण (Socially Conscious Approach) को उजागर करता है।

