हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 15-16: तलाक के बाद पुनर्विवाह और शून्य/शून्यकरणीय विवाहों के बच्चों की वैधता
Himanshu Mishra
17 July 2025 11:15 AM

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) न केवल विवाह को भंग करने के लिए आधार (Grounds for Dissolution) प्रदान करता है, बल्कि यह तलाक के बाद की महत्वपूर्ण कानूनी स्थितियों (Crucial Legal Situations) को भी संबोधित करता है।
धारा 15 (Section 15) तलाकशुदा व्यक्तियों (Divorced Persons) के पुनर्विवाह (Remarriage) के अधिकारों को नियंत्रित करती है, जबकि धारा 16 (Section 16) विवाह की कानूनी वैधता (Legal Validity) में अनियमितताओं (Irregularities) के बावजूद बच्चों की वैधता (Legitimacy of Children) को सुनिश्चित करके एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा कवच (Social Safeguard) प्रदान करती है। ये धाराएँ कानून को व्यक्तियों के जीवन की वास्तविकता (Reality of Individuals' Lives) और विशेष रूप से बच्चों के हितों (Interests of Children) के प्रति संवेदनशील बनाती हैं।
15. तलाकशुदा व्यक्ति कब दोबारा शादी कर सकते हैं (Divorced persons when may marry again)
जब किसी विवाह को तलाक की डिक्री (Decree of Divorce) द्वारा भंग (Dissolved) कर दिया गया हो और:
• उस डिक्री के विरुद्ध अपील का कोई अधिकार नहीं (No Right of Appeal) है, या
• यदि ऐसा अपील का अधिकार है, तो अपील का समय अपील प्रस्तुत किए बिना समाप्त हो गया है (Time for appealing has expired without an appeal having been presented), या
• एक अपील प्रस्तुत की गई है लेकिन उसे खारिज कर दिया गया है (Appeal has been presented but has been dismissed),
तो विवाह के किसी भी पक्ष के लिए दोबारा शादी करना कानूनी होगा (It shall be lawful for either party to the marriage to marry again)।
स्पष्टीकरण: यह धारा तलाकशुदा व्यक्तियों के पुनर्विवाह के अधिकार (Right to Remarry) को स्थापित करती है, लेकिन इसमें कुछ महत्वपूर्ण शर्तें शामिल हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पिछला विवाह कानूनी रूप से और अंतिम रूप से (Finally) भंग हो गया हो, जिससे द्विविवाह (Bigamy) की स्थिति पैदा न हो।
विवाह के बाद एक निश्चित अवधि (निर्धारित अपील अवधि) तक इंतजार करना आवश्यक है ताकि यदि तलाक की डिक्री के खिलाफ कोई अपील की जाती है तो उसे सुना जा सके। यदि अपील का समय समाप्त हो गया है और कोई अपील दायर नहीं की गई है, या यदि अपील दायर की गई थी लेकिन उसे खारिज कर दिया गया है, तभी तलाकशुदा व्यक्ति कानूनी रूप से फिर से शादी कर सकता है।
उदाहरण:
1. कोई अपील अधिकार नहीं: यदि तलाक का decree ऐसा है जिसके खिलाफ कानून में अपील का कोई प्रावधान नहीं है (जो दुर्लभ है), तो decree पारित होते ही पक्ष फिर से शादी कर सकते हैं।
2. अपील का समय समाप्त: यदि 1 जनवरी, 2025 को तलाक का decree पारित किया जाता है और अपील दायर करने की अवधि 90 दिन है, तो 31 मार्च, 2025 के बाद, यदि कोई अपील दायर नहीं की गई है, तो दोनों पक्ष कानूनी रूप से फिर से शादी कर सकते हैं।
3. अपील खारिज: यदि अपील दायर की गई थी, लेकिन 15 मार्च, 2025 को अपील अदालत द्वारा खारिज कर दी जाती है, तो उस तारीख के बाद पक्ष फिर से शादी कर सकते हैं।
महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law): स्मिता रस्तोगी बनाम अश्विनी रस्तोगी (Smita Rastogi v. Ashwini Rastogi), 2004: दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने इस मामले में धारा 15 की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि धारा 15 विवाह के विघटन (Dissolution of Marriage) के बाद पुनर्विवाह के लिए एक कानूनी अधिकार प्रदान करती है, बशर्ते कि अपील की अवधि समाप्त हो गई हो या अपील खारिज हो गई हो। इसका उद्देश्य तलाकशुदा व्यक्तियों को अपने जीवन में आगे बढ़ने की अनुमति देना है, जबकि यह सुनिश्चित करना है कि विवाह की स्थिति पर कोई कानूनी अनिश्चितता (Legal Uncertainty) न हो।
16. शून्य और शून्यकरणीय विवाहों के बच्चों की वैधता (Legitimacy of children of void and voidable marriages)
(1) इस बात के होते हुए भी कि कोई विवाह धारा 11 (Section 11) के तहत शून्य और अमान्य (Null and Void) है, ऐसे विवाह का कोई भी बच्चा जो वैध होता यदि विवाह वैध होता (Would have been legitimate if the marriage had been valid), वैध (Legitimate) होगा, चाहे ऐसा बच्चा विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 (68 of 1976) के प्रारंभ से पहले या बाद में पैदा हुआ हो, और चाहे इस अधिनियम के तहत उस विवाह के संबंध में शून्यता की डिक्री प्रदान की गई हो या नहीं और चाहे विवाह को इस अधिनियम के तहत याचिका के अलावा अन्यथा शून्य माना गया हो या नहीं। (Notwithstanding that a marriage is null and void under section 11, any child of such marriage who would have been legitimate if the marriage had been valid, shall be legitimate, whether such child is born before or after the commencement of the Marriage Laws (Amendment) Act, 1976 (68 of 1976), and whether or not a decree of nullity is granted in respect of that marriage under this Act and whether or not the marriage is held to be void otherwise than on a petition under this Act.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा एक क्रांतिकारी प्रावधान (Revolutionary Provision) है जिसका उद्देश्य बच्चों के हितों की रक्षा करना है। पारंपरिक रूप से, शून्य विवाहों से जन्मे बच्चों को अवैध (Illegitimate) माना जाता था। लेकिन यह धारा एक कानूनी कल्पना (Legal Fiction) बनाती है कि भले ही विवाह धारा 11 के तहत शून्य हो (जैसे कि द्विविवाह, निषिद्ध संबंध, सपिंड संबंध), उस विवाह से पैदा हुए बच्चे को वैध माना जाएगा। यह वैधता तब भी लागू होती है जब विवाह को अदालत द्वारा आधिकारिक रूप से शून्य घोषित न किया गया हो। यह प्रावधान बच्चों को उनके माता-पिता के अवैध संबंधों के कारण दंडित होने से बचाता है।
उदाहरण: यदि एक विवाहित पुरुष, अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते हुए, दूसरी महिला से शादी करता है (जो धारा 5(i) के उल्लंघन के कारण शून्य विवाह है), और इस दूसरी शादी से एक बच्चा पैदा होता है, तो वह बच्चा कानूनी रूप से वैध माना जाएगा, भले ही उसके माता-पिता का विवाह वैध न हो।
(2) जहाँ धारा 12 (Section 12) के तहत एक शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriage) के संबंध में शून्यता की डिक्री (Decree of Nullity) प्रदान की जाती है, तो डिक्री बनने से पहले गर्भधारण किया गया या पैदा हुआ (Begotten or Conceived) कोई भी बच्चा, जो विवाह के पक्षों का वैध बच्चा होता यदि डिक्री की तारीख को उसे रद्द करने के बजाय भंग कर दिया गया होता, तो शून्यता की डिक्री के होते हुए भी उसे उनका वैध बच्चा माना जाएगा। (Where a decree of nullity is granted in respect of a voidable marriage under section 12, any child begotten or conceived before the decree is made, who would have been the legitimate child of the parties to the marriage if at the date of the decree it had been dissolved instead of being annulled, shall be deemed to be their legitimate child notwithstanding the decree of nullity.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा शून्यकरणीय विवाहों (जैसे सहमति बल या कपट से प्राप्त हुई, मानसिक अक्षमता, नपुंसकता, या विवाह के समय गर्भावस्था) के बच्चों की वैधता को संबोधित करती है। यदि विवाह को धारा 12 के तहत शून्यकरणीय घोषित करके रद्द कर दिया जाता है, तो भी डिक्री पारित होने से पहले गर्भधारण किए गए या पैदा हुए बच्चे वैध माने जाएंगे। यह सुनिश्चित करता है कि बच्चे को उनके माता-पिता के विवाह को रद्द करने के निर्णय के कारण अवैधता का सामना न करना पड़े।
उदाहरण: यदि रवि की शादी बल द्वारा हुई थी (एक शून्यकरणीय विवाह) और इस विवाह से एक बच्चा पैदा होता है। बाद में, रवि विवाह को रद्द करने के लिए शून्यता की डिक्री प्राप्त करता है। इस डिक्री के बावजूद, बच्चा कानूनी रूप से रवि और उसकी पत्नी का वैध बच्चा माना जाएगा।
(3) उप-धारा (1) या उप-धारा (2) में निहित (Contained) कोई भी बात किसी भी ऐसे विवाह के बच्चे को, जो शून्य और अमान्य है या जिसे धारा 12 के तहत शून्यता की डिक्री द्वारा रद्द किया गया है, किसी भी व्यक्ति की संपत्ति (Property of any person) में, माता-पिता के अलावा (Other than the Parents), ऐसे कोई अधिकार प्रदान करने वाली नहीं मानी जाएगी, जहाँ, इस अधिनियम के पारित होने के बावजूद, ऐसा बच्चा अपने माता-पिता का वैध बच्चा न होने के कारण ऐसे कोई अधिकार प्राप्त करने या धारण करने में असमर्थ होता। (Nothing contained in sub-section (1) or sub-section (2) shall be construed as conferring upon any child of a marriage which is null and void or which is annulled by a decree of nullity under section 12, any rights in or to the property of any person, other than the parents, in any case where, but for the passing of this Act, such child would have been incapable of possessing or acquiring any such rights by reason of his not being the legitimate child of his parents.)
स्पष्टीकरण: यह उप-धारा एक महत्वपूर्ण सीमा (Limitation) निर्धारित करती है।
जबकि धारा 16 के तहत बच्चे वैध हो जाते हैं, यह उन्हें अपने माता-पिता (Parents) की संपत्ति में अधिकार प्रदान करती है (जैसे कि विरासत - Inheritance), लेकिन अन्य रिश्तेदारों (Other Relatives) (जैसे दादा-दादी, चाचा-चाची, या सहदायिक संपत्ति - Coparcenary Property) की संपत्ति में स्वतः कोई अधिकार नहीं देती, यदि वे इस अधिनियम के प्रावधानों के बिना अवैध होते। इसका उद्देश्य अन्य पारिवारिक शाखाओं (Other Family Branches) की स्थापित संपत्ति विरासत (Established Property Inheritance) को बाधित न करना है।
उदाहरण: शून्य विवाह से पैदा हुआ एक बच्चा अपने जैविक पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी (Heir) हो सकता है, लेकिन वह अपने दादा की पैतृक सहदायिक संपत्ति (Ancestral Coparcenary Property) में जन्मसिद्ध अधिकार (Right by Birth) का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पिता का विवाह स्वयं शून्य था और उस बच्चे को पारंपरिक रूप से अवैध माना जाता।
महत्वपूर्ण केस लॉ: परयांकंडियल एरावथ कनाप्रवण कल्याणम्मा बनाम के. देवी (Parayankandiyal Eravath Kanapravan Kalliani Amma v. K. Devi), 1996: सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में धारा 16(3) की व्याख्या पर विस्तार से चर्चा की। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 16 का उद्देश्य बच्चों की वैधता को मान्यता देना है ताकि वे अपने माता-पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार का दावा कर सकें।
हालांकि, यह धारा उन्हें अन्य रिश्तेदारों की संपत्ति, विशेषकर सहदायिक संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार प्रदान नहीं करती, क्योंकि ऐसी संपत्ति पारंपरिक हिंदू कानून में केवल वैध विवाह से उत्पन्न बच्चों को ही प्राप्त होती थी। यह निर्णय धारा 16 के मानवीय उद्देश्य (Humanitarian Objective) और संपत्ति अधिकारों पर उसकी सीमाओं को संतुलित करता है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 और 16 तलाक और विवाह की वैधता से उत्पन्न होने वाले दो महत्वपूर्ण पहलुओं को संबोधित करती हैं। धारा 15 तलाकशुदा व्यक्तियों को कानूनी स्पष्टता के साथ पुनर्विवाह करने का मार्ग प्रशस्त करती है, जिससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहे। वहीं, धारा 16 एक दूरगामी प्रावधान (Far-reaching Provision) है जो विवाह की स्थिति से बच्चों को अलग करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि वैध या अवैध विवाहों से उत्पन्न होने वाले निर्दोष बच्चों को वैध दर्जा और अपने माता-पिता की संपत्ति में अधिकार प्राप्त हों, इस प्रकार उन्हें सामाजिक और कानूनी रूप से सुरक्षित करती है।