भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 356: फरार अपराधियों के मुकदमे की प्रक्रिया
Himanshu Mishra
5 Feb 2025 5:28 PM IST

भारत में न्याय प्रक्रिया (Judicial Process) को सुचारू और प्रभावी बनाने के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) लाई गई। इस संहिता की धारा 356 एक महत्वपूर्ण प्रावधान (Provision) है, जो उन अभियुक्तों (Accused) के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देती है जो अदालत से बचने के लिए फरार (Abscond) हो जाते हैं और गिरफ्तार होने से बचते हैं।
जब कोई व्यक्ति अदालत के बार-बार बुलाने पर भी उपस्थित नहीं होता और गिरफ्तारी (Arrest) से बचने के लिए छिप जाता है, तो अदालत उसे घोषित अपराधी (Proclaimed Offender) घोषित कर सकती है। यह प्रक्रिया धारा 84 (Section 84) BNSS के तहत होती है, जो पहले CrPC की धारा 82 (Section 82 of CrPC) के समान थी। अब, धारा 356 इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए अदालत को यह अधिकार देती है कि वह फरार अभियुक्त के बिना ही मुकदमा चला सके।
यह प्रावधान न्याय में अनावश्यक देरी को रोकने और यह सुनिश्चित करने के लिए लाया गया है कि कोई भी अभियुक्त केवल अदालत से भागकर मुकदमे से बच न सके। हालाँकि, यह भी ध्यान रखा गया है कि अभियुक्त के मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) सुरक्षित रहें, इसलिए मुकदमे को शुरू करने से पहले कुछ शर्तों को पूरा करना आवश्यक है।
फरार अभियुक्त के बिना मुकदमा शुरू करने की शर्तें (Conditions for Trial in Absence of Proclaimed Offender) - धारा 356(1)
धारा 356(1) के अनुसार, यदि कोई अभियुक्त जानबूझकर अदालत से बचने के लिए फरार हो गया है, तो इसे उसकी उपस्थिति के अधिकार (Right to be Present) को छोड़ने के रूप में माना जाएगा। इसका अर्थ यह है कि अदालत अभियुक्त की गैरमौजूदगी में मुकदमा चला सकती है, ठीक वैसे ही जैसे वह मौजूद होता।
लेकिन यह प्रक्रिया तुरंत शुरू नहीं की जा सकती। कानून यह सुनिश्चित करता है कि अभियुक्त को अपने बचाव के लिए पर्याप्त समय दिया जाए। इसलिए, अदालत मुकदमा शुरू करने से पहले कम से कम 90 दिन (Ninety Days) तक इंतजार करेगी। यह 90 दिन अभियुक्त पर आरोप तय (Framing of Charges) किए जाने की तारीख से गिने जाएंगे।
उदाहरण के लिए, यदि रमेश पर धोखाधड़ी (Fraud) का आरोप है और वह गिरफ्तारी से बचने के लिए किसी अन्य देश भाग जाता है, तो अदालत उसे घोषित अपराधी (Proclaimed Offender) घोषित कर सकती है। यदि 90 दिन तक वह अदालत में पेश नहीं होता, तो अदालत उसकी गैरमौजूदगी में मुकदमा शुरू कर सकती है।
मुकदमे से पहले अपनाई जाने वाली प्रक्रिया (Procedure Before Trial in Absence) - धारा 356(2)
किसी भी मुकदमे को अभियुक्त की गैरमौजूदगी में चलाने से पहले, अदालत को कुछ आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन करना होगा। इन प्रक्रियाओं का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त को पर्याप्त अवसर (Sufficient Opportunity) दिया गया है कि वह अदालत में उपस्थित हो और अपने बचाव का अधिकार (Right to Defence) प्रयोग कर सके।
सबसे पहले, अदालत को अभियुक्त के खिलाफ लगातार दो बार गिरफ्तारी वारंट (Arrest Warrant) जारी करना होगा। इन दोनों वारंटों के बीच कम से कम 30 दिनों (Thirty Days) का अंतर होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अदालत को अभियुक्त को खुद को पेश करने का मौका देना होगा।
अगर अभियुक्त फिर भी अदालत में पेश नहीं होता, तो अदालत को एक राष्ट्रीय (National) या स्थानीय (Local) समाचार पत्र में एक नोटिस प्रकाशित (Publish) करना होगा। इस नोटिस में यह जानकारी दी जाएगी कि यदि अभियुक्त 30 दिनों के अंदर अदालत में उपस्थित नहीं होता, तो मुकदमा उसकी गैरमौजूदगी में शुरू कर दिया जाएगा।
इसके अलावा, अदालत को अभियुक्त के किसी रिश्तेदार (Relative) या दोस्त (Friend) को भी सूचित करना होगा, ताकि वह अभियुक्त को अदालत में आने के लिए मना सके।
अंत में, अदालत को अभियुक्त के आखिरी ज्ञात पते (Last Known Address) पर एक सूचना (Notice) चिपकानी होगी। यह सूचना अभियुक्त के घर या अन्य किसी सार्वजनिक स्थान जैसे स्थानीय पुलिस स्टेशन (Local Police Station) में भी लगाई जाएगी।
उदाहरण के लिए, अगर संजय पर हत्या (Murder) का आरोप है और वह गिरफ्तारी से बचने के लिए अज्ञात स्थान पर छिपा हुआ है, तो अदालत दो बार वारंट जारी करेगी, समाचार पत्र में सूचना देगी, और उसके घर के बाहर एक नोटिस लगाएगी। यदि संजय 30 दिन के भीतर अदालत में उपस्थित नहीं होता, तो मुकदमा उसकी गैरमौजूदगी में आगे बढ़ सकता है।
फरार अभियुक्त को कानूनी सहायता (Legal Aid for Proclaimed Offender) - धारा 356(3)
हालाँकि मुकदमा अभियुक्त की गैरमौजूदगी में चल सकता है, फिर भी उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा (Protection of Rights) के लिए कानून ने विशेष प्रावधान जोड़े हैं।
यदि अभियुक्त अदालत में उपस्थित नहीं होता और उसका कोई वकील (Advocate) नहीं है, तो अदालत सरकारी खर्चे (At State Expense) पर उसे एक वकील प्रदान करेगी।
इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मुकदमे के दौरान अभियुक्त की तरफ से भी दलीलें (Arguments) रखी जाएँ, जिससे न्याय प्रक्रिया निष्पक्ष (Fair) बनी रहे।
उदाहरण के लिए, यदि नीलू पर मनी लॉन्ड्रिंग (Money Laundering) का आरोप है और वह मुकदमे से भाग जाता है, तो अदालत सरकारी खर्चे पर एक वकील नियुक्त करेगी जो नीलू के बचाव में तर्क (Arguments) रखेगा।
फरार अभियुक्त के खिलाफ पहले दर्ज किए गए गवाहों के बयान (Use of Prior Witness Testimonies) - धारा 356(4)
अगर अभियुक्त की अनुपस्थिति में अदालत गवाहों (Witnesses) के बयान दर्ज कर लेती है, तो ये बयान अभियुक्त के खिलाफ सबूत (Evidence) के रूप में इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
हालाँकि, यदि अभियुक्त बाद में अदालत में उपस्थित होता है, तो अदालत उसे यह अवसर दे सकती है कि वह पहले दर्ज किए गए गवाहों से जिरह (Cross-Examination) कर सके।
उदाहरण के लिए, यदि सुधीर के खिलाफ धोखाधड़ी का मुकदमा चल रहा है और उसके भाग जाने के बाद अदालत ने कई गवाहों के बयान दर्ज कर लिए, तो ये बयान मुकदमे में सबूत के रूप में इस्तेमाल किए जा सकते हैं। लेकिन अगर सुधीर बाद में गिरफ्तार होता है और अदालत में पेश होता है, तो उसे उन गवाहों से सवाल पूछने का अवसर मिल सकता है।
धारा 356 अदालत को यह शक्ति देती है कि वह अभियुक्त की गैरमौजूदगी में भी न्यायिक प्रक्रिया को आगे बढ़ा सके। इससे उन मामलों में अनावश्यक देरी (Unnecessary Delay) नहीं होती, जहाँ आरोपी जानबूझकर अदालत से बचने की कोशिश करता है।
साथ ही, यह प्रावधान अभियुक्त के अधिकारों की भी रक्षा करता है। अदालत को मुकदमे से पहले कई प्रक्रियाएँ अपनानी होती हैं, सरकारी खर्चे पर वकील देना पड़ता है, और अभियुक्त को पहले दर्ज किए गए गवाहों से जिरह करने का अवसर भी दिया जाता है।
इससे न्यायपालिका (Judiciary) की विश्वसनीयता (Credibility) बनी रहती है, और फरार अपराधियों को कानून से बचने का कोई आसान तरीका नहीं मिलता।