आपराधिक मामलों में लोक अभियोजक की भूमिका और अभियोजन का संचालन करने की अनुमति : धारा 338 और 339 BNSS, 2023
Himanshu Mishra
20 Jan 2025 12:39 PM

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) में आपराधिक न्याय प्रक्रिया को व्यवस्थित और निष्पक्ष बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण प्रावधान हैं।
इसमें धारा 338 और 339 अभियोजन (Prosecution) के संचालन और उससे जुड़े पक्षों की भूमिकाओं को स्पष्ट करती हैं। ये प्रावधान इस बात का ध्यान रखते हैं कि न्यायिक प्रक्रिया में राज्य, पीड़ित और अन्य पक्षकारों के अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन बना रहे।
धारा 338: लोक अभियोजकों (Public Prosecutors) की भूमिका
धारा 338(1)
धारा 338 के तहत, लोक अभियोजक (Public Prosecutor) या सहायक लोक अभियोजक (Assistant Public Prosecutor) को किसी मामले में जांच, सुनवाई (Trial), या अपील (Appeal) के दौरान बिना किसी लिखित प्राधिकरण (Written Authority) के अदालत के समक्ष उपस्थित होने और पक्ष रखने का अधिकार दिया गया है।
यह प्रावधान राज्य को उसकी जिम्मेदारियों को पूरा करने में मदद करता है, ताकि मामलों में देरी न हो।
धारा 338(2)
इस उपधारा के अनुसार, अगर कोई निजी व्यक्ति (Private Person), जैसे कि पीड़ित (Victim), किसी वकील को अभियोजन के लिए नियुक्त करता है, तो भी मामले का नियंत्रण लोक अभियोजक के पास रहेगा।
इस स्थिति में निजी वकील को लोक अभियोजक के निर्देशों का पालन करना होगा। इसके अलावा, अदालत की अनुमति से वह सभी सबूत पेश किए जाने के बाद लिखित तर्क (Written Arguments) दे सकता है।
यह प्रावधान राज्य और पीड़ित के बीच संतुलन बनाता है। यह सुनिश्चित करता है कि निजी भावनाओं या पक्षपात के कारण मुकदमे के परिणाम प्रभावित न हों और प्रक्रिया निष्पक्ष रहे।
धारा 339: अभियोजन का संचालन करने की अनुमति (Permission to Conduct Prosecution)
धारा 339(1)
धारा 339 इस बात का उल्लेख करती है कि किसे अभियोजन चलाने की अनुमति दी जा सकती है। कोई भी मजिस्ट्रेट (Magistrate), जो मामले की जांच या सुनवाई कर रहा है, किसी भी व्यक्ति को अभियोजन चलाने की अनुमति दे सकता है, जब तक कि वह व्यक्ति पुलिस निरीक्षक (Inspector) के पद से नीचे का अधिकारी न हो।
हालांकि, इस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि कोई पुलिस अधिकारी, जिसने उस मामले की जांच में हिस्सा लिया है, अभियोजन का संचालन नहीं कर सकता। यह प्रावधान न्याय प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाए रखने और हितों के टकराव (Conflict of Interest) से बचने के लिए है।
इसके अलावा, एडवोकेट जनरल (Advocate-General), सरकारी अधिवक्ता (Government Advocate), या लोक अभियोजक बिना किसी अनुमति के अभियोजन चला सकते हैं।
धारा 339(2)
यह उपधारा बताती है कि अभियोजन करने वाला व्यक्ति खुद मुकदमा चला सकता है या किसी वकील के माध्यम से ऐसा कर सकता है। यह लचीलापन (Flexibility) अभियोजन प्रक्रिया को और अधिक समावेशी बनाता है।
अन्य प्रावधानों से संबंध
धारा 338 और 339 को संहिता के अन्य प्रावधानों, जैसे कि धारा 337, के साथ पढ़ा जाना चाहिए। धारा 337 मुकदमों और जांच के सामान्य सिद्धांतों का उल्लेख करती है, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि किसी अपराध के लिए बार-बार मुकदमा न हो। यह सिद्धांत धारा 338 और 339 में अभियोजन प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने से मेल खाता है।
इसके अलावा, ये प्रावधान उन धाराओं के साथ भी जुड़े हैं जो मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारियों की शक्तियों को निर्धारित करती हैं। उदाहरण के लिए, धारा 339(1) में यह कहा गया है कि जांच करने वाला पुलिस अधिकारी अभियोजन नहीं चला सकता। यह न्याय प्रक्रिया में निष्पक्षता बनाए रखने के व्यापक सिद्धांत से मेल खाता है।
व्यवहारिक उदाहरण (Illustrations)
इन प्रावधानों को बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ उदाहरणों पर विचार करें:
1. एक चोरी के मामले में, राज्य की ओर से एक लोक अभियोजक नियुक्त किया जाता है। धारा 338(1) के अनुसार, अभियोजक अदालत में बिना किसी अतिरिक्त प्राधिकरण के उपस्थित हो सकता है। हालांकि, चोरी का शिकार पीड़ित यह महसूस करता है कि अभियोजक पर्याप्त रूप से उसकी बात नहीं रख पाएगा। इसलिए, वह एक निजी वकील नियुक्त करता है। धारा 338(2) के अनुसार, यह वकील लोक अभियोजक के निर्देशों के तहत कार्य करेगा और अदालत की अनुमति से लिखित तर्क पेश कर सकता है।
2. एक हमले के मामले में, एक निजी व्यक्ति धारा 339(1) के तहत अभियोजन चलाने की अनुमति मांगता है। मजिस्ट्रेट यह अनुमति देता है, लेकिन वह व्यक्ति तय करता है कि वह एक वकील को अभियोजन के लिए नियुक्त करेगा। धारा 339(2) यह लचीलापन प्रदान करती है। हालांकि, यदि वह पुलिस अधिकारी, जिसने मामले की जांच की थी, अभियोजन चलाने की कोशिश करता है, तो मजिस्ट्रेट ऐसा करने की अनुमति नहीं देगा, क्योंकि यह धारा 339(1) के प्रावधानों का उल्लंघन होगा।
लोक अभियोजकों का महत्व
लोक अभियोजकों की भूमिका आपराधिक न्याय प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है। वे राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि अपराधियों को उचित सजा मिले। उनकी निष्पक्षता न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है।
धारा 338 और 339 लोक अभियोजकों को महत्वपूर्ण अधिकार देती हैं, लेकिन इनके साथ कुछ सुरक्षा उपाय भी प्रदान करती हैं। जैसे, धारा 339 के तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि जांच अधिकारी अभियोजन में शामिल न हों, ताकि निष्पक्षता बनी रहे।
राज्य और निजी हितों में संतुलन
इन प्रावधानों का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ये राज्य और पीड़ित के हितों के बीच संतुलन बनाते हैं। धारा 338(2) और धारा 339(1) के प्रावधान निजी व्यक्तियों को अभियोजन प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार देते हैं, लेकिन साथ ही यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रक्रिया का नियंत्रण लोक अभियोजक के पास रहे।
यह संतुलन न्याय सुनिश्चित करने के व्यापक उद्देश्य को बनाए रखता है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 338 और 339 अभियोजन प्रक्रिया के संचालन के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान करती हैं। ये प्रावधान लोक अभियोजकों, निजी व्यक्तियों और वकीलों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को स्पष्ट करते हैं।
इन प्रावधानों को पढ़ते समय निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों पर जोर स्पष्ट होता है। धारा 339(1) में हितों के टकराव से बचने के लिए जांच अधिकारियों को अभियोजन से दूर रखने का प्रावधान और धारा 338(2) में निजी वकीलों को लोक अभियोजकों के मार्गदर्शन में काम करने का निर्देश, न्याय प्रणाली में विश्वास बनाए रखते हैं।
इन प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियोजन प्रक्रिया निष्पक्ष और कुशल हो, और यह न्याय की व्यापक प्रक्रिया में योगदान दे।