क्या स्वास्थ्य का अधिकार (Right to Health) एक मौलिक अधिकार है, जानिए राज्य की क्या हैं जिम्मेदारियां?

SPARSH UPADHYAY

29 Jun 2020 8:44 AM GMT

  • क्या स्वास्थ्य का अधिकार (Right to Health) एक मौलिक अधिकार है, जानिए राज्य की क्या हैं जिम्मेदारियां?

    यह काफी नहीं कि शरीर में रोग या दुर्बलता का अभाव हो तो उसे एक स्वस्थ शरीर कहा जा सकता है, बल्कि स्वास्थ्य (Health) सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक आरोग्यढ की अवस्था् को माना जाता है। यह तथ्य भी जगजाहिर है कि स्वास्थ्य, किसी भी देश के विकास के महत्वपूर्ण मानकों में से एक है।

    कोरोना-काल में जहाँ स्वास्थ्य के ऊपर खतरा कई गुना बढ़ा है, वहीँ दुनिया भर के देश और उसके नागरिक इस खतरे से जूझ रहे हैं, इसके चलते सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था भी ध्वस्त हो चुकी है और मानव जीवन के हर पहलू को इस महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया है। जब हॉस्पिटल से लेकर स्वास्थ्य सेवाएं हर जगह बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं, ऐसे में स्वास्थ्य के अधिकार के प्रति जागरूकता भी बढ़नी चाहिए।

    हाल ही में, एक विवाद भी काफी चर्चा में रहा जब दिल्ली सरकार ने अपने सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य देखभाल/सेवाओं को केवल दिल्ली शहर के निवासियों तक सीमित करने के फैसले की घोषणा की। प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिल्ली की मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि निजी अस्पतालों को भी दिल्लीवासियों के लिए बेड आरक्षित करने होंगे।

    हालाँकि, तुरंत ही दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने दिल्ली सरकार के आदेश को प्रभावी रूप से रद्द करते हुए एक आदेश दिया था कि राजधानी के सभी सरकारी और निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम में निवास के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सभी COVOD -19 रोगियों को चिकित्सा सुविधा दी जाएगी।

    इसी क्रम में यह लेख एक प्रयास है जहाँ हम बहुत सीमित अर्थों में समझेंगे कि क्या स्वास्थ्य का अधिकार (Right to Health), एक मौलिक अधिकार है और आखिर राज्य की नागरिकों के प्रति स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर क्या जिम्मेदारियां हैं।

    स्वास्थ्य का अधिकार, एक मौलिक अधिकार?

    एक कल्याणकारी राज्य में यह सुनिश्चित करना राज्य का ही दायित्व होता है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया जाए और उनकी निरंतरता को सुनिश्चित किया जाए। यह भी सत्य है कि जीवन का अधिकार, जो सबसे कीमती मानव अधिकार है और जो अन्य सभी अधिकारों की संभावना को जन्म देता है, उसकी व्याख्या एक व्यापक और विस्तृत प्रकार से की जानी चाहिए और उच्चतम/उच्च न्यायालय द्वारा अपने तमाम निर्णयों में ऐसा किया भी गया है।

    यदि हम अपने संविधान की बात करें तो यह सत्य है कि इसके अंतर्गत कहीं विशेष रूप से स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित नहीं किया गया है, परंतु उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या करते हुए इसके अंतर्गत स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार माना गया है।

    यह हम सभी जानते हैं कि संविधान का अनुच्छेद 21, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। हालाँकि, भारतीय संविधान के तहत विभिन्न प्रावधान ऐसे है जो यदि बड़े पैमाने पर देखे जाएँ तो वे जन स्वास्थ्य से संबन्धित हैं, परन्तु मौलिक अधिकार के रूप में स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को अनुच्छेद 21 ही पहचान देता है।

    यहाँ पाठकों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार को केवल पशु समान अस्तित्व तक सीमित नहीं किया जा सकता है। इसका मतलब सिर्फ शारीरिक उत्तरजीविता से कहीं अधिक होता है और यह उच्चतम न्यायालय के तमाम निर्णयों में साफ़ किया जा चुका है।

    वास्तव में, जीवन के अधिकार में मानव गरिमा के साथ जीने के अधिकार से जुडी अन्य चीज़ें भी शामिल है अर्थात्, जीवन की अन्य आवश्यकताएं, जैसे पर्याप्त पोषण, कपड़े और आश्रय, और विविध रूपों में पढ़ने, लिखने और स्वयं को व्यक्त करने की सुविधा एवं साथी मनुष्यों के साथ घुलना-मिलना और रहना इत्यादि।

    वहीँ, भारत के संविधान का अनुच्छेद 47, 'पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने के राज्य के कर्तव्य' (Duty of the State to raise the level of nutrition and the standard of living and to improve public health) के विषय में बात करता है। इसके बारे में हम एक पूर्व लेख में बात कर चुके हैं

    उच्चतम न्यायालय के प्रमुख मामले

    सर्वप्रथम विन्सेंट पनिकुर्लान्गारा बनाम भारत संघ एवं अन्य 1987 AIR 990 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्वास्थ्य के अधिकार को अनुच्छेद 21 के भीतर तलाशने का एक महवपूर्ण कदम उठाया था और यह देखा था कि इसे सुनिश्चित करना, राज्य की एक जिम्मेदारी है। इसके लिए, अदालत द्वारा इस मामले में बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ [1984] 3 SCC 161 का जिक्र भी किया गया था।

    इसके बाद, मुख्य रूप से सीईएससी लिमिटेड बनाम सुभाष चन्द्र बोस 1992 AIR 573 के मामले में श्रमिकों के स्वास्थ्य के अधिकार के बारे में टिप्पणी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह नोट किया था कि स्वास्थ्य के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत किया गया है, इसे न केवल सामाजिक न्याय का एक पहलू माना जाना चाहिए, बल्कि यह राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अलावा उन अंतर्राष्ट्रीय कोवनेंट्स के अंतर्गत भी आता है, जिनपर भारत ने हस्ताक्षर किया है।

    वहीँ, कंज्यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सेण्टर बनाम भारत संघ 1995 AIR 922 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि संविधान के अनुच्छेद 39 (सी), 41 और 43 को अनुच्छेद 21 के साथ पढ़े जाने पर यह साफ़ हो जाता है कि स्वास्थ्य और चिकित्सा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने के साथ-साथ के साथ यह कामगार के जीवन को सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनाता है।

    यहाँ तक अदालत द्वारा मुख्य रूप से कामगार/मजदूरों के स्वास्थ्य के अधिकार को मुख्य रूप से रेखांकित किया गया था, हालाँकि इन मामलों के बाद अदालत ने इस अधिकार को सामान्य रूप से आम लोगों के लिए मौलिक अधिकार के रूप में देखने की शुरुआत कर दी थी।

    राज्य की जिमेदारियां

    पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य 1996 SCC (4) 37 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह साफ़ किया गया था कि इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि लोगों को पर्याप्त चिकित्सा सेवाएं प्रदान करना राज्य का संवैधानिक दायित्व है। इस उद्देश्य के लिए जो भी आवश्यक है उसे किया जाना चाहिए।

    अदालत ने इस मामले में यह साफ़ किया था कि एक गरीब व्यक्ति को मुफ्त स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के संवैधानिक दायित्व के संदर्भ में, वित्तीय बाधाओं के कारण राज्य उस संबंध में अपने संवैधानिक दायित्व से बच नहीं सकता है। चिकित्सा सेवाओं के लिए धन के आवंटन के मामले में राज्य की संवैधानिक बाध्यता को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    पंजाब राज्य बनाम मोहिंदर सिंह चावला (1997) 2 SCC 83 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह साफ़ किया जा चुका है कि स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना सरकार का एक संवैधानिक दायित्व है।

    यह तो हम जान चुके हैं कि यह राज्य की जिम्मेदारी है कि राज्य अपने प्राथमिक कर्तव्य के रूप में अपने नागरिकों का बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार, सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों को खोलकर इस दायित्व का निर्वाह करती भी है, लेकिन इसे सार्थक बनाने के लिए, यह जरुरी है यह अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र लोगों की पहुँच के भीतर भी होने चाहिए।

    जहाँ तक संभव हो, अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में प्रतीक्षा सूची की कतार को कम किया जाना चाहिए और यह भी राज्य की जिम्मेदारी है कि वह सर्वोत्तम प्रतिभाओं को इन अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में नियुक्त करे और प्रभावी योगदान देने के लिए अपने प्रशासन को तैयार करने के लिए सभी सुविधाएं प्रदान करे, क्योंकि यह भी सरकार का कर्तव्य है [पंजाब राज्य बनाम राम लुभाया बग्गा (1998) 4 SCC 117)]।

    विशेष रूप से, एसोसिएशन ऑफ़ मेडिकल सुपरस्पेशलिटी अस्पिरंट्स एवं रेसिडेंट्स बनाम भारत संघ के मामले में (2019) 8 SCC 607 में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए राज्य पर एक दायित्व को लागू करता है। मानव जीवन का संरक्षण इस प्रकार सर्वोपरि है। इसी मामले में आगे कहा गया कि राज्य द्वारा संचालित सरकारी अस्पताल और उसमें कार्यरत चिकित्सा अधिकारी मानव जीवन के संरक्षण के लिए चिकित्सा सहायता देने के लिए बाध्य हैं।

    पिछले वर्ष, अश्विनी कुमार बनाम भारत संघ (2019) 2 एससीसी 636, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने जोर देकर कहा था कि "राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि ये मौलिक अधिकार (स्वास्थ्य सम्बन्धी) न केवल संरक्षित हैं बल्कि लागू किए गए हैं और सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध हैं।"

    हाल ही में, तेलंगाना हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय गंटा जय कुमार बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य [Writ Petition (PIL) No. 75 of 2020] में यह कहा था कि मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलने की इजाज़त नहीं दी जा सकती जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिया गया है।

    यह मामला COVID 19 की जांच से जुड़ा था, जोकि सरकार द्वारा लोगों को सिर्फ़ चिह्नित सरकारी अस्पतालों से ही COVID 19 की जांच कराने के सरकारी आदेश से सम्बंधित था। न्यायमूर्ति एम. एस. रामचंद्र राव और न्यायमूर्ति के. लक्ष्मण की खंडपीठ ने इस आदेश को अपने फैसले में ख़ारिज कर दिया।

    अदालत ने कहा कि सरकार का यह आदेश, लोगों को जांच के लिए निजी अस्पतालों में जाने की इजाज़त नहीं देता है, जबकि इन अस्पताओं को आईसीएमआर को जांच करने की अनुमति मिली है।

    इस मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य के अधिकार की व्याख्या करते हुए अपने लिए चिकित्सीय देखभाल को चुनने के अधिकार के दायरे का विस्तार किया। यह अभिनिर्णित किया गया कि इस अधिकार के अंतर्गत, अपनी पसंद की प्रयोगशाला में परीक्षण करने की स्वतंत्रता शामिल है और सरकार उस अधिकार को नहीं ले सकती है।

    अदालत ने ख़ास तौर पर कहा कि, राज्य विशेष रूप से व्यक्ति की पसंद को सीमित करके उसे अक्षम नहीं कर सकता है जब एक ऐसी बीमारी की बात आती है जो उसके या उसके परिजनों के जीवन/ स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।

    अंत में, मरीजों के उन कुछ मूलभूत अधिकारों के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप एक लेख पढ़ सकते हैं, जो अधिकार आज कोविड-19 महामारी के दौरान महत्वपूर्ण प्रतीत हो रहे हैं।

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