Constitution में फंडामेंटल राइट्स प्राप्त करने के लिए उपचार

Shadab Salim

13 Dec 2024 8:59 AM IST

  • Constitution में फंडामेंटल राइट्स प्राप्त करने के लिए उपचार

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया में केवल संविधान में मौलिक अधिकारों की ही घोषणा नहीं की है अपितु कोर्ट द्वारा इन मौलिक अधिकारों को प्रवर्तन कराने का रास्ता भी बताया है। संविधान निर्माताओं का ऐसा मानना था कि यदि संविधान के मौलिक अधिकारों को प्रवर्तनीय नहीं बनाया गया तो इस प्रकार के मौलिक अधिकार केवल कागज का ढेर मात्र बनकर रह जाएंगे तथा इन मौलिक अधिकारों की कोई महत्ता नहीं होगी। इन मौलिक अधिकारों को प्रवर्तनीय बनाने हेतु ही संविधान के आर्टिकल 32 से लेकर 35 तक प्रावधान किए गए।

    यहां पर एक बात ध्यान देने योग्य है की संविधान के भीतर दिए गए मौलिक अधिकारों के उपचार से संबंधित प्रावधान मौलिक अधिकार ही हैं अर्थात जो उपचार है उसे भी मौलिक अधिकार बना दिया गया। उपचार ग्यारंटी के रूप से उपलब्ध है क्योंकि मौलिक अधिकारों के उपचार के संबंध में यदि कोई स्पष्ट व्यवस्था या प्रावधान नहीं होतें तो मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण होने की अधिक संभावना थी पर यहां पर मौलिक अधिकारों के उपचार को भी एक मौलिक अधिकार बना दिया गया।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का आर्टिकल 32(1) नागरिकों को संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए हाई कोर्ट को समुचित कार्यवाही द्वारा प्रचालित करने के अधिकार की गारंटी करता है। आर्टिकल 32(2) सुप्रीम कोर्ट को इन अधिकारों को प्रवर्तन कराने के लिए समुचित निर्देश देता है जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण के प्रकार की रिट भी सम्मिलित हैं जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।

    आर्टिकल 32(3) के अधीन संसद विधि द्वारा किसी कोर्ट को उसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर सुप्रीम कोर्ट द्वारा खंड 2 के अधीन प्रयोग की जाने वाली किसी या सभी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए सशक्त कर सकती है। खंड चार उपबंधित करता है कि संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय इस आर्टिकल द्वारा ग्यारंटी किए गए अधिकारों को निलंबित नहीं किया जाएगा। आर्टिकल 32 के अधीन सुप्रीम कोर्ट की मूल अधिकारों के प्रवर्तन की शक्ति अत्यंत व्यापक है।

    इस संबंध में उस पर कोई परिसीमा नहीं है कि वह कौन सी प्रक्रिया अपनाएं सिवाय इसके कि उसे प्रयोजन के अनुसार अर्थात गुण अधिकारों के प्रवर्तन कराने के लिए समुचित होना चाहिए। कोर्ट प्रतिपक्ष की प्रणाली जिसमें प्रतिवादी का होना आवश्यक होता है अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है। संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों के प्रवृत्त कराने के लिए कोई विशेष प्रक्रिया नहीं विहित की है क्योंकि वह जानते थे कि भारत जैसे देश के लिए जहां इतनी निर्धनता और अशिक्षा है वहां मूल अधिकारों को एनफोर्स करने के लिए सूत्र या कार्यवाही जोड़ देना इस उपचार के अधिकार को विफल करने जैसा है।

    चंद्र कुमार बनाम भारत संघ एआईआर 1996 सुप्रीम कोर्ट 1125 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह अभिनिर्धारित किया कि आर्टिकल 32 के अधीन विधाई कार्यवाहियों पर सुप्रीम कोर्ट में निहित न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है, अतः इसे संवैधानिक संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है। कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के भीतर दिए गए मौलिक अधिकार केशवानंद भारती के मामले में संविधान का आधारभूत ढांचा करार दिए गए हैं।

    सुप्रीम कोर्ट को समुचित कार्यवाहियों द्वारा प्रचारित कराने का अधिकार उसी व्यक्ति को उपलब्ध है जिसके मूल अधिकार का अतिक्रमण होता है। इस आर्टिकल का प्रयोग केवल नागरिकों के मूल अधिकारों को प्रवर्तन कराने के लिए किया जा सकता है। एक मामले में प्रार्थी को यह दिखाना आवश्यक है कि वह कानून जिसे वह चुनौती देना चाहता है उसके मूल अधिकारों को आघात पहुंचाता है, यही नहीं वरन जिस रिट के अंतर्गत उपचार की प्रार्थना की जाती है।

    उसका संबंध भी किसी न किसी मूल अधिकार से होना चाहिए अर्थात उपचार समुचित कार्यवाहियों के माध्यम से ही प्राप्त किया जाना चाहिए किसी अन्य अधिकार के उल्लंघन के मामले में इस आर्टिकल का संरक्षण नहीं प्राप्त होगा। आर्टिकल 32 के अधीन समुचित उपचार देने की शक्ति विवेक पर आधारित नहीं है यदि कोई नागरिक अपने किसी मूल अधिकार के अतिक्रमण को दिखाने में सफल होता है तो सुप्रीम कोर्ट से आर्टिकल 32 के अधीन एक अधिकार के रूप में समुचित उपचार पाने का अधिकारी होगा।

    आर्टिकल 32 के अधीन अनुतोष पाने का हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है किंतु अब सुप्रीम कोर्ट ने इस नियम को बदल लिया है और आर्टिकल 32 के क्षेत्र को अत्यंत विस्तृत कर दिया कोर्ट ने ऐसा अभिनिर्धारित किया है कि आर्टिकल 32 के अधीन कोई संस्था लोकहित से प्रेरित कोई नागरिक किसी ऐसे व्यक्ति के विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट फाइल कर सकता है जो निर्धनता या किसी अन्य कारण से कोर्ट में रिट फाइल करने में सक्षम नहीं है।

    अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी बनाम भारत संघ के मामले में निर्धारित किया गया है कि एक आपंजीकृत संघ भी आर्टिकल 32 के अधीन रिट के लिए आवेदन दे सकता है यदि वह किसी सार्वजनिक हित के संरक्षण के लिए ऐसा करना चाहता है। मुख्य न्यायमूर्ति श्री कृष्णा ने कहा है कि वादी और पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब वर्ग कार्यवाही लोकहित वाद लाने की विस्तृत धारणा ने ले लिया है।

    कुछ मामलों में कोर्ट ने कहा है कि लोकहित वाद का उद्देश लोकगीत का संरक्षण तथा समाज के किसी वर्ग के मूल अधिकारों का संरक्षण करना है जो अपनी निर्धनता या अन्य सामाजिक आर्थिक कठिनाइयों के कारण अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए कोर्ट में जाने से असमर्थ है। इस प्रकार लोकहित वाद का प्रमुख प्रयोग निर्बल निर्धन व्यक्तियों को मूल अधिकारों के अतिक्रमण से बचाव के लिए किया जाता है।

    पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ एआईआर 1980 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस क्षेत्र और महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि समाज के गरीब वर्ग के लोगों को सांविधानिक अधिकारों की सुरक्षा देने हेतु इसका काफी महत्व है। लोकतंत्र में लोकहित वाद विधि शासन को ही नहीं बल्कि निर्मल और गरीब वर्ग के लोगों के अधिकारों की रक्षा भी करता है और उन्हें प्रदान करता है। इस प्रकार के मामले से कोर्ट में वादों की संख्या में वृद्धि होगी उन्हें बढ़ावा नहीं देना चाहिए इस प्रकार का तर्क गलत है। इस मामले में न्यायमूर्ति श्री भगवती ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि लोकहित वाद कोर्ट में मामलों की संख्या को बढ़ाता है

    पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स नामक संस्था ने एक पत्र द्वारा सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि एशियाड खेलों में योजना के अंतर्गत कार्य करने वाले मजदूरों को कम वेतन दिया जा रहा है इस मामले का उल्लेख पूर्व के आलेख में भी किया जा चुका है तथा न्यूनतम मजदूरी दिए जाने के कोर्ट ने निर्देश दिए।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 32 सुप्रीम कोर्ट और आर्टिकल 226 हाई कोर्टों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है। अपनी शक्ति के अधीन भारत का सुप्रीम कोर्ट और भारत के राज्यों के हाई कोर्ट विधान मंडल द्वारा पारित किए गए किसी भी ऐसे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के भाग 3 द्वारा दिए गए मूल अधिकारों पर गलत प्रभाव डालते हैं। न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान का आधारभूत ढांचा माना गया है तथा संसद की इसमें संशोधन करने की शक्ति अत्यंत सीमित है। न्यायिक पुनर्विलोकन प्रतिबंध संसद द्वारा पूर्ण रूप से नहीं लगाया जा सकता है।

    पश्चिम बंगाल राज्य के एक मामले में शिकायतकर्ता एक राजनीतिक दल के कार्यकर्तागण पश्चिम बंगाल के जिले में रुके थे, वहां से घर लौट रहे थे। मार्ग में 50 लोगों ने उन्हें घेर लिया जिससे 11 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई और अनेक लोग घायल हो गए। शिकायतकर्ता किसी तरह बच गया पुलिस में प्रथम इत्तिला रिपोर्ट फाइल की गई। 3 माह के पश्चात केवल दो व्यक्ति गिरफ्तार किए गए थे आशंका थी कि मामले में न्याय मिलने की संभावना नहीं है। राज्य पुलिस सत्ता के अधीन है जो घटना को छुपाना चाहती है ताकि उसकी छवि खराब न हो।

    जांच में विलंब होने पर हाई कोर्ट ने मामले की परिस्थितियों को देखते हुए निर्णय लिया कि राज्य पुलिस से न्याय संभव नहीं है। मामले को केंद्रीय जांच ब्यूरो सीबीआई को सौंप दिया जाए।सुप्रीम कोर्ट में अपीलार्थी की उसकी ओर से तर्क दिया गया कि लिस्ट एक की प्रविष्टि 80 और लिस्ट 2 की प्रविष्टि दो और विशेष पुलिस अधिनियम की धारा 56 इन सांविधानिक तथा अधिनियम के प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि संसद की विधाई शक्ति ऐसा कोई कानून नहीं पारित कर सकती जो एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य की अनुमति के बिना उसके क्षेत्र में घटित अपराध की जांच कर सके। इस मामले में यह तर्क दिया गया कि शक्ति पृथक्करण के अनुसार प्रत्येक अंग को संविधान द्वारा विहित क्षेत्र में ही कार्य कर सकते हैं और दूसरे क्षेत्र में काम नहीं कर सकते हाई कोर्ट इन निर्धनों की उपेक्षा करके कोई आदेश नहीं दे सकता।

    आर्टिकल 32 के अधीन सुप्रीम कोर्ट और आर्टिकल 226 के अधीन हाई कोर्ट न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के आधारभूत ढांचे का अभिन्न अंग है और संसद की कोई शक्ति इन संवैधानिक मामलों की मूल अधिकारों को लागू करने की शक्ति को न तो वर्जित कर सकती है और न ही निम्न कर सकती है। ऐसी शक्ति संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है जिससे भाग 3 में मूल अधिकार और संविधान की सर्वोच्चता बनाई रखी जा सके। परीसंघीय संविधान में जिसमें शक्तियों का वितरण रहता है एक दूसरे अंग को अपनी सीमा में कार्य करना आवश्यक है।

    न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति अंतिम निर्णायक रूप में कार्य करती है, यदि संसद के किसी विधि द्वारा इस ढांचे का उल्लंघन होता है तो कोर्ट एक संरक्षक की भांति कार्य करता है। आर्टिकल 32 आर्टिकल 226 के अधीन तत्काल उपचार उपलब्ध करता है। कोर्ट ने कहा है कि किसी भी अधिनियमित द्वारा अधिरोपित निर्बंधन आर्टिकल 32 आर्टिकल 226 में प्रदर्शित किए गए पुनर्विलोकन की शक्ति पर नहीं लगाएं जा सकतें।

    रूपा अशोक खुर्रा बनाम अशोक खुर्रा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह कहा है कि कोर्ट आर्टिकल 32 के अधीन अपने निर्णय को जिसकी रिट याचिका द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है गंभीर अन्याय के निवारण हेतु पुनर्विलोकन कर सकता है। इस नए नियम को कोर्ट ने उपचारात्मक याचिका का नाम दिया है। अभी तक अगर सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 32 के अंतर्गत अंतिम निर्णय नहीं दे सकता था।

    आर्टिकल 137 के अधीन उसकी याचिका भी खारिज कर देता था तो इस को चुनौती नहीं दी जा सकती थी किंतु अब ऐसे मामलों में उपचारात्मक याचिका द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। उक्त निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे गंभीर अन्याय के मामलों में वास्तविक रुप से पीड़ित व्यक्तियों के लिए चुनौती देने का एक नया रास्ता खुल गया है।

    सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन एआईआर 1982 पटना 1473 के मामले में आजीवन कारावास का दंड भुगत रहे कैदी ने जेल के दूसरे कैदियों के साथ आमाननीय व्यवहार किए जाने पर भारत के सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र के माध्यम से अवगत कराया और भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इस पत्र को बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट मानकर जेल अधिकारियों को निर्देश जारी कर दिए थे।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 32 के अधीन सुप्रीम कोर्ट को लोकहित वाद के मामले में सार्वजनिक महत्व के मामले को विचार के लिए प्रस्तुत करने में हुए खर्च को दिलाने की शक्ति भी है। एक मामले में पिटीशनर ने लोकहित वाद संस्थित करके कोर्ट से प्रार्थना की कि वह रेल सेवा में समुचित सुधार करने के लिए सरकार को निर्देश दें। इस संबंध में उसे पर्याप्त धन खर्च करना पड़ा था। कोर्ट ने निर्देश दिया कि उक्त मामले में रेलवे मंत्रालय से राहत पाने का हकदार है। इसी प्रकार डीसी वाधवा बनाम बिहार राज्य के मामले में पिटीशनर को बिहार राज्य द्वारा ₹10000 देने का आदेश दिया गया जो उसने एक महत्वपूर्ण मामले को कोर्ट के समक्ष विचार हेतु प्रस्तुत करने में खर्च किए थे।

    एम सी मेहता बनाम भारत संघ 1988 के प्रसिद्ध मामले में पिटीशनर ने गंगा जल प्रदूषण के विरुद्ध लोकहित वाद संस्थित किया और कोर्ट से संबंधित अधिकारियों को उचित आदेश देने की सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में निर्णय दिया कि गंगा जल प्रदूषण एक सार्वजनिक मामला है जिसके विरूद्ध लोकहित वाद किया जा सकता है। पिटीशनर को जल प्रदूषण निवारण नियंत्रण अधिनियम 1974 के उपबंधों के द्वारा नगर निगम एवं प्रदूषण बोर्ड पर अधिरोपित विधिक कर्तव्यों के पालन हेतु कोर्ट में लोकहित वाद संस्थित करने का अधिकार है।

    कोर्ट ने कानपुर नगर पालिका को निर्देश दिया कि वह 6 महीने के भीतर जल परिषद के समक्ष जल प्रदूषण रोकने के प्रस्ताव भेजे। निर्देश दिया कि दूध की डेरी को शहर से बाहर ले जाया जाए, श्रमिक कॉलोनी में सिविल लाइन बनाई जाए, गरीब लोगों के लिए सार्वजनिक शौचालय बनाए जाएं, मनुष्य की लाश तथा मरे हुए पशुओं को फेंकने पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए, नए कारखानों को तब ही लाइसेंस दिए जाएं जब प्रदूषण रोकने के लिए कोई उपाय कर रहे हो।

    गौरव जैन बनाम भारत संघ एआईआर 1996 सुप्रीम कोर्ट 3021 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और गैर सरकारी स्वैच्छिक संस्थाओं को वेश्यावृत्ति रोकने तथा उनकी संतानों के पुनर्वास के लिए समुचित कल्याणकारी उपायों को कार्यान्वित करने के लिए उनको निर्देश दिया। इस मामले में अधिवक्ता श्री गौरव जैन ने पत्रिका में प्रकाशित लेख वेश्यावृत्ति के सुधार हेतु सरकार के प्रयास पढ़कर सरकार को निर्देश देने के लिए आवेदन किया था।

    इस पर कोर्ट ने कहा कि जो महिलाएं इस पेशे में चली गई है उनकी संतानों को इस पेशे में जाने से रोकने का प्रयास करें, उनका पुनर्वास करें उनका प्रबंध करें जिससे वे मानव गरिमा का जीवन जी सके जो हमारे संविधान के आर्टिकल 21 का लक्ष्य है। कोर्ट का यह मत है कि ऐसे पेशों को करने से महिलाओं को रोकना अधिक उचित है क्योंकि यदि यह कार्य पूरा हो जाए तो उनकी संतानों की समस्या ही उत्पन्न नहीं होगी। इस मामले में कोर्ट ने निर्देश दिया कि उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा दी जाए, सहायता दी जाए, शिक्षा के माध्यम से रोजगार दिया जाए।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 32 के अधीन सुप्रीम कोर्ट को मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल देने तक की शक्ति प्राप्त है। मृत्युदंड के मामले में दिए गए दंड को सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से रोका जा सकता है। यदि मृत्युदंड को दिए जाने में कोई युक्तियुक्त विलंब किया जाता है तब भी भारत का सुप्रीम कोर्ट इस प्रकार के मुद्दे पर रोक लगा सकता है। इसके लिए कोई निश्चित विलंब की अवधि निर्धारित नहीं की जा सकती। किसी मामले में मृत्युदंड को दिए जाने में अधिक विलंब हो न हो और कितना विलंब हो इसका उदाहरण कोर्ट प्रत्येक वाद के तथ्यों के आधार पर करेगा।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 32 के अधीन रिट फाइल करने के लिए कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है। परिसीमा अधिनियम के अधीन 90 दिन की अवधि का नियम आर्टिकल 32 के अधीन उपचार पाने के मामले में लागू नहीं होता है। आर्टिकल 32 के अधीन केवल एक ही शब्द है कि उपचार युक्तियुक्त समय के भीतर मांगा जाए।

    आर्टिकल 226 के अंतर्गत हाई कोर्ट को उपर्युक्त प्रकार की रिट को जारी करने का अधिकार प्राप्त है। इस मामले में हाई कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की शक्ति की अपेक्षा विस्तृत शक्ति है क्योंकि हाई कोर्ट को मूल अधिकारों के प्रवर्तित कराने के अतिरिक्त अन्य प्रयोजनों के लिए भी रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है जो सुप्रीम कोर्ट को नहीं प्राप्त है किंतु संसद आर्टिकल 139 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को यह अतिरिक्त अधिकारिता भी प्रदान कर सकती है किंतु जहां तक मूल अधिकारों का संबंध है हाई कोर्ट का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के अधिकार का आकर्षण नहीं करता है वरण यह समवर्ती है। वादी दोनों में से किसी में भी जा सकता है यह आवश्यक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में जाने के पहले हाई कोर्ट जाया जाए, पिटीशनर सीधे जा सकता है।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 32 के अंतर्गत पांच प्रकार की रिट याचिका लगाई जाती है। यहां उन याचिकाओं पर विस्तृत अध्ययन तो नहीं किया जा रहा है परंतु इस आलेख के अंत में उनके नाम प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

    बंदी प्रत्यक्षीकरण

    परमादेश

    प्रतिषेध

    अधिकार पृच्छा

    उत्प्रेषण

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