The Indian Contract Act में Indemnity को लेकर प्रावधान
Shahadat
5 Sept 2025 10:22 AM IST

Indemnity की संविदा एक प्रकार की समाश्रित संविदा है, समाश्रित संविदा का ही एक आधुनिक रूप Indemnity की संविदा होता है। क्षतिपूर्ति की संविदा को ही केवल समाश्रित संविदा नहीं कहते अपितु इसके साथ में प्रत्याभूति की संविदा भी उपलब्ध है। धारा 124 के अनुसार वह संविदा जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को स्वयं वचनदाता के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उस दूसरे पक्षकार को हुई हानि से बचाने का वचन देता है, क्षतिपूर्ति की संविदा कहलाती है।
इस प्रकार की संविदा से तात्पर्य ऐसी संविदा से है जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को अपने आचरण या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से हुई हानि के लिए बचाने की प्रतिज्ञा करता है जो व्यक्ति बचाने की प्रतिज्ञा करता है उसको क्षतिपूर्तिदाता जिस व्यक्ति के लिए प्रतिज्ञा की जाती है उसे क्षतिपूर्तिधारी कहते हैं।
इस अधिनियम के अंतर्गत दी गयी इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि इसके अंतर्गत केवल ऐसी हानियों से बचाने के लिए प्रतिज्ञा होती है जो प्रतिज्ञाकर्ता के खुद के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उत्पन्न हुई है।
यदि इस परिभाषा का सही रूप से अवलोकन किया जाए तो कुछ तथ्य निकलकर सामने आते हैं जो निम्न हो सकते हैं-
संविदा का एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार के आचरण से हानि हुई हो
उस दूसरे पक्षकार से भिन्न व्यक्ति के आचरण द्वारा भी प्रथम पक्षकार को हानि हो सकती है
जो व्यक्ति उक्त हानि से बचाने की प्रतिज्ञा करता है और क्षतिपूर्तिदाता है
जिसको क्षतिपूर्ति से बचाए जाने की प्रतिज्ञा की गई है वह क्षतिपूर्तिधारी है
परिभाषा का सतही अवलोकन करने से दो अब तक यह बातें स्पष्ट हो गयी है कि किसी व्यक्ति को क्षति से बचाने के लिए इस प्रकार की क्षतिपूर्ति की संविदा वजूद में आती है।
मंगलधरम बनाम गैंडामल 1929 लाहौर 388 के मामले में कहा गया है कि - 'जब संविदा का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को हानि से बचाने की प्रतिज्ञा करता है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रतिज्ञाकर्ता उस दूसरे व्यक्ति को हानि से बचाने का वचन देता है तो इसका तात्पर्य हुआ की हानि की स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे को क्षतिपूर्ति देगा और इस प्रकार संविदा जो कि पक्षकारों के मध्य हो रही है उसे क्षतिपूर्ति की संविदा कहेंगे'
क्षतिपूर्ति की संविदा के अंतर्गत हानि पर विशेष बल दिया गया है। इसके अंतर्गत यह कहा गया है कि संविदा के दूसरे पक्षकार को हानि हुई हो चाहे स्वयं वचनदाता के आचरण से हुई हो या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से किंतु हानि से बचाने हेतु एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को कोई वचन देता है जिसके अनुसार भविष्य में हानि की दशा में बचाएगा।
किसी क्षति को साबित किया जाना अपेक्षित होता है अर्थात इस धारा का सार तत्व यह है कि जिस व्यक्ति के बारे में कथन करता है उसका सिद्ध किया जाना आवश्यक है जिससे क्षतिपूर्तिधारी को क्षति होती है। वैसे ही क्षतिपूर्ति प्रदान करने का दायित्व क्षतिपूर्तिदाता के संदर्भ में त्वरित रूप से होता है। वास्तव में शातिपूर्णधारी का नुकसान हो जाता है तो क्षतिपूर्तिदाता अपने दायित्व के प्रति आबद्ध हो जाता है अर्थात हानि या क्षति की स्थिति में वह अपने वचन से मुकर नहीं सकता।
क्षति का तात्पर्य धारा 124 के अंतर्गत सारवान क्षति से है जिसका विधि की दृष्टि में कुछ महत्व है अर्थात क्षति मूर्त रूप में हो, क्षति का कुछ विधिक महत्व हो, क्षति बहुत माइनर न हो।
चितरंजन लाल बनाम नारायणी 19041 इलाहाबाद 395 के प्रकरण में कहा गया है कि- उन मामलों में जहां की स्पष्टता के साथ वादी स्वयं को हुई हानि को साबित नहीं कर पाया अर्थात वह यह नहीं स्पष्ट कर पाया कि उसको कितनी हानि हुई है उसे की वास्तविक हानि हुई है या नहीं वहां वादी को प्रतिवादी से प्रतिकर पाने के दायित्व दिन माना गया।
क्षति के संबंध में कुछ विशेष बातें हैं जो निम्न हो सकती हैं जैसे-
वह ऐसा नुकसान हो जो वास्तविक क्षति के कारण हुआ है
किसी भी प्रकार के संदेह से परे हो
इसे स्पष्ट तौर पर समझा जा सके कि यह वादी को क्षति की गई है
क्षति में युक्तियुक्तता हो
क्षति की प्रकृति तुच्छ न हो
पहले ही दोनों पक्षकारों में विधिमान्य करार हुआ हो कि प्रतिवादी वादी को हुई हानि की दशा में उसे प्रतिकर देगा क्षति पूर्णतः साबित की गई हो
जब उपरोक्त समस्त परिस्थितियां विद्यमान होंगी ऐसी दशा में कोर्ट वादी को प्रतिवादी से क्षति की यथोचित राशि प्रतिकर के रूप में दिलवाएगा किंतु जहां वास्तविक क्षति वादी द्वारा नहीं साबित किया जा सकीं ऐसी स्थिति में प्रतिवादी अर्थात क्षतिपूर्तिदाता वादी अर्थात क्षतिपूर्तिधारक को क्षतिपूर्ति देने के लिए बाध्य न होगा।
नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम मुक्ति सेंधिया 2010 एसी 261 (आंध्र प्रदेश) के प्रकरण में कहा गया है कि बीमा की संविदा क्षतिपूर्ति की संविदा के समरूप है। बीमा संविदा के पक्षकार पारस्परिक बाध्यता एवं वचन से बाध्य होते हैं। यदि वचनग्रहिता वचनदाता के आदेश का उल्लंघन करता है तथा ऐसा करने में विफल रहता है जैसा उसी मामले में कोई दूरदर्शी व्यक्ति करता है क्षतिपूर्ति का वचनदाता क्षतिपूर्ति देने के लिए बाध्य नहीं था।
लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन इंडिया बनाम श्रीमती सिंधु एआईआर 2006 सुप्रीम कोर्ट टी व्हाई 66 के प्रकरण में कहा गया है कि जहां कोई ब्याज या तो बीमा की संविदा के अधीन या किसी कानून के अधीन या दावों के निपटारे की तारीख तक प्रीमियम के संदाय की क्रमिक तारीख को ब्याज अधिनियम 1978 के अधीन संदेय नहीं था वहां उपभोक्ता फोरम द्वारा ब्याज का निर्णय अनुचित माना गया।

