Hindu Marriage Act की धारा 12 के प्रावधान
Shadab Salim
22 July 2025 10:09 AM IST

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 12 शून्यकरणीय विवाह के संदर्भ में उल्लेख कर रही है। इस धारा के अधीन उन आधारों को वर्णित किया गया है जिनके कारण हिन्दू विवाह शून्यकरणीय हो जाता है। शून्यकरणीय विवाह ऐसा विवाह होता है जो प्रारंभ से शून्य नहीं होता है तथा प्रारंभ से इस विवाह को विधिमान्यता प्राप्त होती है परंतु कोर्ट द्वारा अकृतता (nullity) की डिक्री प्रदान कर दिए जाने के पश्चात इस प्रकार का विवाह शून्यकरणीय हो जाता है।
शून्य विवाह वह विवाह होता है जो प्रारंभ से ही शून्य होता है। इसका रूप अकृत (null) होता है। ऐसा विवाह अस्तित्व विहीन विवाह होता है। इस विवाह का कोई अस्तित्व नहीं होता तथा पक्षकारों के मध्य कोई अधिकार और दायित्व भी नहीं होते और पक्षकारों की स्थिति पति पत्नी की नहीं होती है।
लेकिन शून्यकरणीय विवाह दोनों पक्षकारों पर बंधनकारी होता है और ऐसे विवाह के पक्षकारों को पति पत्नी की संज्ञा दी जाती है जब तक कि विवाह के पक्षकारो में से किसी एक के द्वारा कोर्ट में याचिका प्रस्तुत करने पर धारा 12 के अधीन अकृत की डिक्री पारित न कर दी जाए। डिक्री पारित होने से पूर्व ऐसा विवाह विधिमान्य विवाह की हैसियत में होता है। पक्षकारों के मध्य समस्त दांपत्य जीवन के अधिकार और दायित्व होते हैं।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन किसी शून्य विवाह को कारित करने पर दंड का प्रावधान है जबकि किसी शून्यकरणीय विवाह के संबंध में किसी दंड की कोई व्यवस्था नहीं है यह एक प्रकार से एक सिविल मामला है।
शून्य विवाह को अकृत घोषित किए जाने हेतु किसी कोर्ट द्वारा कोई डिक्री की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि यह विवाह तो प्रारंभ से ही अस्तित्वहीन होता है इसलिए इसमें किसी औपचारिक घोषणा की कोई आवश्यकता नहीं होती है परंतु शून्यकरणीय विवाह को अंत या समाप्त करने हेतु कोर्ट द्वारा पारित अकृत की डिक्री की आवश्यकता होती है।
धारा 144 BNSS के प्रावधान के अधीन ऐसी पत्नी अपने पति के विरुद्ध भरण-पोषण का वाद प्रस्तुत कर सकती हैं जिसका विवाह वैध है। शून्य विवाह की पत्नी इस धारा के अधीन भरण पोषण का वाद प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है।
दूसरी ओर शून्यकरणीय विवाह की पत्नी भरण पोषण का वाद प्रस्तुत करने में सक्षम है।
पन्नो बनाम मकोली राम 1981 एचएलआर 449 के प्रकरण में शून्य तथा शून्यकरणीय विवाहों में अंतर बताते हुए यह कहा गया है कि शून्य विवाह में कोर्ट द्वारा घोषणा नहीं होती है जो विवाह को शून्य बना देता है। धारा 11 के अधीन पारित की गई डिक्री सिवाय इस घोषणा की और कुछ नहीं जिसमे पहले से ही शून्य विवाह अकृतता के संदर्भ में पारित किया जाता है।
पक्षकारों की सहमति कोई भी ऐसे विवाह को वैध नहीं घोषित कर सकती।
रामप्यारी बनाम धर्मदास एआईआर 1984 इलाहाबाद 147 में ऐसे विवाहों की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि शून्यकरणीय विवाह में एक व्यथित पक्षकार विवाह को शून्य घोषित कराने का अधिकारी होता है। वह उसे वैध विवाह के रूप में अंगीकार भी कर सकता है जबकि किसी शून्य विवाह विधिमान्य विवाह के रूप में अंगीकार नहीं किया जा सकता है भले ही पक्षकार उसे अंगीकार करने पर सहमत हो।
गुरनाम सिंह बनाम जान कौर 1990 हिंदू लॉ 134 पंजाब हरियाणा में अपीलार्थी ने कहा था कि उसकी पत्नी विवाह के समय विखंडित मानसिकता से पीड़ित थी अतः उसका विवाह शून्यकरणीय है। अपीलार्थी की पत्नी से पुत्री उत्पन्न हुई थी। कोर्ट ने निर्णय दिया की पत्नी इस प्रकार के तथा ऐसे मानसिक विकार से पीड़ित नहीं थी की वह संतान उत्पत्ति के लिए योग्य न हो।
शून्यकरणीय विवाह की डिक्री प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि रोग विवाह के समय हो। इसके लिए कोर्ट के समक्ष संतोषप्रद चिकित्सकीय साक्ष्य प्रस्तुत करना आवश्यक है।
ऐसे विवाह को बातिल करार दिए जाने हेतु इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि यदि पागलपन के आधार पर किसी विवाह को बातिल करार दिया जाता है तो पागलपन विवाह के पूर्व से होना चाहिए न कि विवाह के बाद।

