Constitution में विधानसभा के सत्र के प्रावधान

Shadab Salim

18 Dec 2024 12:32 PM IST

  • Constitution में विधानसभा के सत्र के प्रावधान

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया में जिस तरह भारत की संसद के लिए सत्र की व्यवस्था की है इसी तरह राज्यों के विधान मंडल के लिए सत्र की व्यवस्था की है। आर्टिकल 174 के अनुसार राज्य विधान मंडल के प्रत्येक सदन को ऐसे समय तथा ऐसे स्थान पर जैसा वह उचित समझे अधिवेशन के लिए आहूत करेगा किंतु शर्त यह है कि गत सत्र के अंतिम दिन तथा अगले सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तिथि के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि असेंबली कम से कम साल में दो बैठकें अवश्य करें तथा इसके मध्य का अंतर 6 महीने से अधिक का न हो।

    राज्य समय-समय पर किसी भी सदन का सत्रावसान कर सकता है लेकिन जहां पर उस सदन का सत्र वासन कर दिया गया है तो नए सत्र को 6 महीने के भीतर ही अवश्य आहूत किया जाएगा। राज्यपाल के लिए जरूरी नहीं है कि वह राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों को साथ ही आहूत करें अथवा साथ ही सत्रवासन की घोषणा करें। राज्यपाल राज्य की विधानसभा को भंग कर सकता है। विधानसभा के भंग और उसके सत्रवासन के संबंध में राज्यपाल कुछ सीमा तक अपने विवेक के अनुसार कार्य करता है। उसका विवेक वाद का प्रश्न नहीं है इसलिए उसे इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उसका प्रयोग दुर्भावना से किया गया।

    प्रेसीडेंशियल रेफरेंस 2002 के मामले में राष्ट्रपति ने को यह परामर्श देने के लिए सौंपा गया कि आर्टिकल 174 के अंतर्गत राज्य विधानसभा के वितरण के पश्चात 6 महीने के अंदर चुनाव कराने के लिए निर्वाचन आयोग बाध्य है।

    इस मामले में तथ्य इस तरह थे कि 27 फरवरी 2002 को गोधरा कांड के कारण राज्य में सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा, राज्य सरकार ने इस पर शीघ्र निर्णय लिया इसके पश्चात मुख्यमंत्री ने इसका राजनीतिक लाभ लेने के उद्देश्य से विधानसभा को समय के पहले बंद कर दिया और राज्यपाल से चुनाव कराने की सिफारिश की। चुनाव आयोग ने निर्णय लिया कि राज्य में चुनाव कराने के लिए परिस्थिति अनुकूल नहीं है चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं। राज्य सरकार के आदेश के अनुसार 6 महीने के भीतर चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग बाध्य है अन्यथा विधान सभा की प्रथम बैठक के बीच 6 महीने की अपेक्षा का उल्लंघन होगा।

    इस मामले में के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गुजरात राज्य के इस तर्क को मानने से इंकार कर दिया कि आर्टिकल 174 के तहत एक बैठक दूसरे विधानसभा की बैठक के बीच 6 महीने से अधिक समय बीतने की अपेक्षा की गई है। यह निर्धारित किया गया है कि आर्टिकल 174 विघटित विधानसभा के मामले में लागू नहीं होता है जिसका जीवन समाप्त हो चुका है बल्कि एक जीवित विधानसभा चल रही है उस पर लागू होता है। न्यायालय ने कहा की आर्टिकल 174 चुनाव के लिए कोई अधिकतम सीमा का बंद नहीं करता है।

    चुनाव कराने की शक्ति निर्वाचन आयोग में ही निहित है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 14 और 15 से यह स्पष्ट है जिसमें यह उपबंध किया गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर चुनाव करने की तारीख तय करेंगे।

    विधानसभा का मुख्य पदाधिकारी अध्यक्ष होता है। उसका चुनाव विधानसभा के सदस्यों द्वारा अपने सदस्यों में से किया जाता है। सब अपने सदस्यों में से एक ही उपाध्यक्ष का चुनाव भी करतें है। उपाध्यक्ष अध्यक्ष की अनुपस्थिति अथवा उसके पद खाली होने के समय विधानसभा की अध्यक्षता करता है। जब अध्यक्ष व उपाध्यक्ष दोनों का स्थान खाली हो जाता है तो विधानसभा का सदस्य विधानसभा द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किया जाता है और अध्यक्ष पद के कर्तव्यों का पालन करता है।

    अध्यक्ष उपाध्यक्ष उस समय अपना पद खाली कर देते हैं जब उनकी विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जाती है। वह अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाए जा सकते हैं किंतु ऐसा कोई संकल्प तब तक नहीं प्रस्तावित किया जाता है जब तक कि उसे प्रस्तावित करने की 14 दिन की पूर्व सूचना दे दी गई हो। विधानसभा भंग होने के साथ-साथ अपना पद रिक्त नहीं करता अपितु नई विधानसभा द्वारा नया अध्यक्ष चुन लिए जाने तक अपने पद पर आसीन रहता है।

    प्रत्येक राज्य में विधान परिषद अपने सदस्यों में से एक सभापति और उपसभापति का चुनाव करती है। राज्यसभा में उपराष्ट्रपति की तरह राज्यपाल बने राज्य के विधान परिषद का अध्यक्ष नहीं होता है। विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की तरह सभापति और उपसभापति भी अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं। उस समय उनका पद स्वयं में रिक्त हो जाता है जब विधान परिषद के सदस्य नहीं दे जाते हैं उनको पद से हटाया जा सकता है उनके कार्य और शक्तियां सभा के सभापति के समान ही होती है।

    कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 107 संसद के अंतर्गत विधि बनाने की प्रक्रिया है, उसी प्रकार राज्यों में भी विधि बनाने की प्रक्रिया होती है। धन विधेयक और वित्त विधेयक के अतिरिक्त कोई भी साधारण दोनों में से किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है और केंद्र की ही तरह दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है।

    यदि कोई विधानसभा द्वारा पारित करके भेज दिया जाने के बाद उसके द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या विधान परिषद को विचार भेजे गए विधेयक पर बिना विचार किए 3 महीने से अधिक समय तक अपने पास रखें रखती है या विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पास करके भेजा जाता है जिस पर विधानसभा सहमत नहीं होती है और विधानसभा उसी विधेयक को दोबारा बिना संशोधनों के रूप में ही पारित कर देती है या संसद सत्र में पारित कर देती है।

    इस प्रकार विधान परिषद को भेजा जाएगा विधानसभा द्वारा पारित हो जाने के बाद विधेयक विधान परिषद को भेजे जाने के बाद विधान परिषद द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है या विधान परिषद 1 माह से अधिक समय तक उसे बिना पारित किए रखे रखती है या विधान परिषद द्वारा ऐसे संशोधन सहित पारित होता है जिन्हें विधानसभा स्वीकार नहीं करती है तो विधेयक दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पारित समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा दूसरी बार पारित किया गया।

    आर्टिकल 198 में दी गई परिभाषा केंद्रीय विधि निर्माण से संबंधित आर्टिकल 110 में दी गई परिभाषा के समान ही है। केंद्रीय विधान मंडल की तरह ही धन विधेयक राज्य की विधानसभा में पेश किए जा सकते हैं। धन विधेयक विधान परिषद में पेश नहीं किए जा सकते हैं विधानसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात धन विधेयक को विधान परिषद की सिफारिश के लिए भेज दिया जाता है।

    विधेयक प्राप्त करने की तिथि से 14 दिनों के भीतर ही विधान परिषद को अपनी सिफारिश के तहत इन्हें अवश्य लौटा देना चाहिए। यह विधानसभा पर निर्भर करता है कि वह विधान परिषद द्वारा की गई सिफारिश को आंशिक या पूर्णता स्वीकार कर ले या उसे स्वीकार न करें।

    जब एक विधायक दोनों सदनों द्वारा पास किया जा चुका है तो वो राज्यपाल के पास उसकी अनुमति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल का निम्न प्रकार की घोषणाएं कर सकता है- वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है या अपनी स्वीकृति रोक सकता है।

    विधेयक को राष्ट्रपति के विचार सुरक्षित कर ले याएक परिस्थिति में अवश्य ही जब वो विधेयक राज्य को हाई कोर्ट के अधिकार और शक्तियों को प्रभावित करता है तो उस विधेयक को वह आरक्षित करता ही है।

    पुनर्विचार के लिए विधेयक को वापस कर दे या अंतिम परिस्थिति में जब राज्यपाल पुनर्विचार किसी विधेयक को सदन को वापस करता है तो सदन उस पर विचार करेगा ही किंतु यह सदन पर निर्भर करता है कि राज्यपाल द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को वह माने या न माने किंतु दोबारा यदि वह विधायक अपने पूर्व रूप में संशोधित रूप में सदनों द्वारा पारित हो जाता है तो राज्यपाल के हस्ताक्षर करता है तो उसे वापस नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि राज्यपाल को कोई विशेष अधिकार नहीं है या तो वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे या फिर उसे राष्ट्रपति के विचार आरक्षित कर ले।

    जहां पर विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार आरक्षित कर लिया गया है वहां पर राष्ट्रपति के पास उसके संबंध में तीन रास्ते है

    जैसे- वह विधेयक पर स्वीकृति दे दे या अपनी स्वीकृति रोक ले, यदि उक्त विधेयक धन विधेयक नहीं है तो वह उसे पुनर्विचार हेतु राज्य के विधान मंडल या सदनों को भेज सकता है तथा कतिपय संशोधन समझा सकता है। राज्य के विधान मंडल को उस विधेयक के प्राप्त हो जाने के पश्चात 6 महीने की अवधि के अंदर अवश्य विचार कर लेना चाहिए, यदि उसी सदनों को पुनः उसी रूप में संशोधन सहित वापस कर दिया तो वो राष्ट्रपति पर निर्भर है कि वह चाहे तो उस पर आप अपनी अनुमति दें।

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