मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति के मुकदमे की प्रक्रिया: धारा 368 BNSS 2023
Himanshu Mishra
21 Feb 2025 12:07 PM

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 - BNSS), जो पहले लागू आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) का स्थान ले चुकी है, मानसिक रूप से अस्वस्थ (Unsound Mind) व्यक्तियों के लिए विशेष प्रावधान (Provisions) प्रदान करती है।
यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी ऐसे व्यक्ति, जो मुकदमे के दौरान अपने बचाव (Defense) में सक्षम नहीं है, के साथ उचित न्याय हो और उसे आवश्यक चिकित्सा (Medical Treatment) मिल सके।
धारा 368 उन मामलों की प्रक्रिया निर्धारित करती है जहां कोई आरोपी मुकदमे के दौरान मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है।
इससे पहले, धारा 367 में यह प्रक्रिया दी गई है कि यदि किसी आरोपी के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने का संदेह हो, तो मजिस्ट्रेट (Magistrate) उसकी जांच कराएगा और मनोचिकित्सक (Psychiatrist) या नैदानिक मनोवैज्ञानिक (Clinical Psychologist) की राय लेगा। यदि पुष्टि हो जाती है कि आरोपी अस्वस्थ है, तो मजिस्ट्रेट यह तय करेगा कि क्या वह मुकदमे का सामना करने में सक्षम है या नहीं।
धारा 368 इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है और यह सुनिश्चित करती है कि अगर कोई व्यक्ति मुकदमे के दौरान मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है, तो न्यायालय (Court) उसे कैसे संभालेगा।
मनोविक्षिप्तता (Unsoundness of Mind) की पुष्टि की प्रक्रिया
धारा 368(1) के अनुसार, यदि किसी मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय (Court of Session) में किसी व्यक्ति के मुकदमे के दौरान यह प्रतीत होता है कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है और अपने बचाव में सक्षम नहीं है, तो न्यायालय सबसे पहले इस तथ्य की जांच करेगा।
न्यायालय को सबसे पहले यह तय करना होगा कि क्या आरोपी सच में मानसिक रूप से अस्वस्थ है। इसके लिए अदालत को चिकित्सीय रिपोर्ट (Medical Report) और अन्य साक्ष्यों (Evidence) की समीक्षा करनी होगी।
अगर न्यायालय यह मानता है कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और अपने बचाव में सक्षम नहीं है, तो वह इसकी पुष्टि दर्ज करेगा और मुकदमे की आगे की प्रक्रिया स्थगित (Postpone) कर देगा।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी व्यक्ति पर चोरी (Theft) का आरोप है, लेकिन अदालत के सामने वह व्यक्ति ठीक से जवाब नहीं दे पा रहा है, भटकाव (Disorientation) महसूस कर रहा है और असामान्य व्यवहार कर रहा है।
ऐसी स्थिति में, न्यायालय को पहले आरोपी की मानसिक स्थिति की जांच करानी होगी। अगर चिकित्सीय रिपोर्ट से पुष्टि होती है कि वह व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो मुकदमे की कार्यवाही रोक दी जाएगी और आरोपी को उचित चिकित्सा दी जाएगी।
मनोचिकित्सक (Psychiatrist) या नैदानिक मनोवैज्ञानिक (Clinical Psychologist) के पास जांच के लिए भेजना
धारा 368(2) के अनुसार, यदि किसी आरोपी को मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय उसे किसी सरकारी अस्पताल (Government Hospital) के मनोचिकित्सक या नैदानिक मनोवैज्ञानिक के पास इलाज और जांच के लिए भेजेगा।
मनोचिकित्सक आरोपी की पूरी जांच करेगा और अदालत को बताएगा कि क्या वह सच में मानसिक रूप से अस्वस्थ है या नहीं।
इस प्रावधान (Provision) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अदालत केवल अपने अवलोकन (Observation) के आधार पर निर्णय न ले, बल्कि किसी विशेषज्ञ (Expert) की राय भी ले। अगर मनोचिकित्सक पुष्टि करता है कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो मुकदमे को तब तक के लिए स्थगित कर दिया जाएगा जब तक कि आरोपी का इलाज न हो जाए।
मनोचिकित्सक की रिपोर्ट के खिलाफ अपील करने का अधिकार (Right to Appeal Against Psychiatrist's Report)
यदि आरोपी या उसका वकील (Lawyer) यह मानता है कि मनोचिकित्सक या नैदानिक मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट गलत है, तो वह मेडिकल बोर्ड (Medical Board) के सामने अपील कर सकता है।
यह मेडिकल बोर्ड निम्नलिखित विशेषज्ञों से मिलकर बनेगा:
1. सरकारी अस्पताल के निकटतम मनोचिकित्सा विभाग (Psychiatry Unit) के प्रमुख।
2. निकटतम सरकारी मेडिकल कॉलेज (Government Medical College) के मनोचिकित्सा विभाग के एक फैकल्टी सदस्य।
इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी आरोपी को गलत तरीके से मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित न किया जाए। कई बार, गलत निदान (Misdiagnosis) या पक्षपात (Bias) के कारण कोई व्यक्ति गलत तरीके से मानसिक रूप से अस्वस्थ माना जा सकता है। इसलिए, मेडिकल बोर्ड को अंतिम निर्णय लेने का अधिकार दिया गया है।
उदाहरण के लिए, अगर किसी आरोपी को मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित कर दिया जाता है, लेकिन उसका परिवार और वकील मानते हैं कि यह गलत है, तो वे मेडिकल बोर्ड में अपील कर सकते हैं। अगर मेडिकल बोर्ड यह पाता है कि आरोपी मानसिक रूप से स्वस्थ है, तो मुकदमा सामान्य रूप से जारी रहेगा।
क्या आरोपी अपने बचाव में सक्षम है? (Determining Accused's Ability to Enter Defense)
धारा 368(3) के तहत, यदि न्यायालय को यह रिपोर्ट मिलती है कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो उसे यह भी तय करना होगा कि क्या वह मुकदमे का सामना करने में सक्षम है या नहीं।
अगर आरोपी मुकदमे का सामना करने में अक्षम (Incapable) पाया जाता है, तो न्यायालय को यह स्पष्ट रूप से दर्ज करना होगा और अभियोजन पक्ष (Prosecution) द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की समीक्षा करनी होगी। आरोपी के वकील को भी अपने तर्क रखने का मौका मिलेगा, लेकिन आरोपी से सीधे सवाल नहीं किए जाएंगे, क्योंकि वह अपने बचाव में सही उत्तर देने में सक्षम नहीं होगा।
अगर न्यायालय को लगता है कि आरोपी के खिलाफ कोई ठोस मामला नहीं बनता है, तो मुकदमे को स्थगित करने के बजाय उसे आरोप मुक्त (Discharge) कर दिया जाएगा। ऐसा करने के बाद, आरोपी को धारा 369 के तहत आवश्यक देखभाल प्रदान की जाएगी।
अगर अभियोजन पक्ष के पास आरोपी के खिलाफ मजबूत सबूत हैं, लेकिन आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो मुकदमा स्थगित कर दिया जाएगा और तब तक जारी नहीं रहेगा जब तक कि आरोपी का इलाज न हो जाए और वह मुकदमे के लिए सक्षम न हो जाए।
बौद्धिक अक्षमता (Intellectual Disability) के मामलों में प्रक्रिया
धारा 368(4) उन मामलों को भी कवर करती है जहां आरोपी को बौद्धिक अक्षमता (Intellectual Disability) है, जैसे कि डाउन सिंड्रोम (Down Syndrome) या अन्य मानसिक विकार (Cognitive Disorders), जो व्यक्ति को हमेशा के लिए मानसिक रूप से असमर्थ बना सकते हैं।
अगर न्यायालय को लगता है कि आरोपी की बौद्धिक अक्षमता के कारण वह मुकदमे का सामना नहीं कर सकता, तो मुकदमा आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। इसके बजाय, आरोपी को धारा 369 के तहत उचित देखभाल प्रदान की जाएगी।
उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति गंभीर ऑटिज़्म (Autism) से पीड़ित है और अदालत की प्रक्रिया को समझने में पूरी तरह अक्षम है, तो न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि उसे मुकदमे में शामिल करना अनुचित होगा। ऐसे मामलों में, आरोपी को जेल भेजने के बजाय, उसकी देखभाल के लिए विशेष प्रावधान किए जाएंगे।
धारा 368 यह सुनिश्चित करती है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों या बौद्धिक अक्षमता वाले आरोपियों को उचित न्याय मिले। यह कानून अदालतों को मानसिक स्थिति का विश्लेषण करने और उचित मेडिकल राय लेने के लिए बाध्य करता है। यह प्रावधान आपराधिक न्याय प्रणाली को अधिक मानवीय और न्यायसंगत बनाते हैं।