मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपी के दोबारा न्यायालय में लाए जाने की प्रक्रिया: धारा 371, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023

Himanshu Mishra

25 Feb 2025 12:48 PM

  • मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपी के दोबारा न्यायालय में लाए जाने की प्रक्रिया: धारा 371, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023

    भारत की न्याय प्रणाली मानसिक रूप से अस्वस्थ (Unsound Mind) व्यक्तियों के लिए विशेष प्रावधान देती है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 - BNSS) की धारा 367, 368 और 369 मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपियों के लिए न्यायिक प्रक्रिया को स्पष्ट करती है।

    इन धाराओं के तहत यह तय किया जाता है कि आरोपी मानसिक रूप से स्वस्थ है या नहीं, मुकदमे को स्थगित (Postpone) किया जाता है, ज़मानत (Bail) दी जाती है, और इलाज की व्यवस्था की जाती है।

    धारा 371 इस पूरी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि यह बताती है कि जब किसी मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपी को कोर्ट में वापस लाया जाता है, तो न्यायालय (Court) को क्या कदम उठाने चाहिए।

    धारा 371 का मूल उद्देश्य (Core Principle of Section 371)

    धारा 371 यह सुनिश्चित करती है कि किसी आरोपी का मुकदमा तभी शुरू हो जब वह अपने बचाव (Defense) के लिए मानसिक रूप से सक्षम हो। यदि किसी आरोपी का मुकदमा पहले मानसिक अस्वस्थता के कारण स्थगित कर दिया गया था, तो जब वह कोर्ट के सामने वापस लाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट या कोर्ट को दो चीजों का मूल्यांकन (Evaluation) करना होता है:

    1. यदि आरोपी मुकदमे के लिए मानसिक रूप से सक्षम है – यदि कोर्ट को लगता है कि आरोपी अब अपने मामले को समझने और बचाव करने में सक्षम है, तो मुकदमे की कार्यवाही (Trial Proceedings) फिर से शुरू हो जाएगी।

    2. यदि आरोपी अभी भी मानसिक रूप से अस्वस्थ है – यदि कोर्ट पाता है कि आरोपी अभी भी अपने बचाव के योग्य नहीं है, तो धारा 367 या 368 के तहत पहले की गई प्रक्रिया को दोहराया जाएगा और धारा 369 के अनुसार आरोपी को उचित देखभाल दी जाएगी।

    मुकदमे की फिर से शुरुआत यदि आरोपी सक्षम हो (Resumption of Trial if the Accused is Capable)

    यदि आरोपी को मानसिक रूप से सक्षम पाया जाता है, तो कोर्ट मुकदमे की कार्यवाही फिर से शुरू करेगा, जैसे कि मुकदमे को पहले कभी स्थगित नहीं किया गया था।

    उदाहरण (Illustration)

    राम पर चोरी (Theft) का आरोप था, लेकिन जब कोर्ट ने जांच की तो उसे मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया गया। इसलिए, धारा 367 के तहत उसकी मानसिक स्थिति का आकलन किया गया और धारा 369 के तहत उसे चिकित्सा देखभाल (Medical Care) के लिए भेज दिया गया।

    छह महीने बाद, डॉक्टरों की रिपोर्ट के आधार पर राम को मानसिक रूप से स्वस्थ घोषित किया गया और उसे फिर से कोर्ट में पेश किया गया। अब मजिस्ट्रेट ने फैसला किया कि वह मुकदमे का सामना करने के लिए मानसिक रूप से सक्षम है, इसलिए मुकदमे की कार्यवाही फिर से शुरू कर दी गई।

    इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरोपी को केवल तब ही मुकदमे का सामना करना पड़े जब वह अपनी रक्षा (Defense) करने में पूरी तरह सक्षम हो।

    यदि आरोपी अभी भी मानसिक रूप से अस्वस्थ है (What If the Accused is Still Incapable?)

    यदि आरोपी को फिर से कोर्ट में लाने पर यह पाया जाता है कि वह अभी भी अपने बचाव के लिए मानसिक रूप से असमर्थ (Incapable) है, तो धारा 367 और 368 के तहत प्रक्रिया दोहराई जाएगी।

    कोर्ट एक बार फिर से मानसिक मूल्यांकन (Mental Evaluation) कराएगा और यदि आवश्यक हो तो आरोपी को धारा 369 के तहत उचित चिकित्सा देखभाल और निगरानी (Supervision) के लिए भेज दिया जाएगा।

    उदाहरण (Illustration)

    सीता पर आगजनी (Arson) का आरोप था, लेकिन कोर्ट ने पाया कि उसे गंभीर मानसिक रोग (Severe Mental Illness) है। इसलिए, धारा 368 के तहत मुकदमा स्थगित कर दिया गया और उसे मानसिक देखभाल केंद्र (Mental Care Facility) भेज दिया गया।

    छह महीने बाद उसे फिर से कोर्ट में लाया गया, लेकिन डॉक्टरों की रिपोर्ट से पता चला कि वह अभी भी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और मुकदमे का सामना करने के योग्य नहीं है। ऐसे में कोर्ट ने उसे फिर से धारा 369 के तहत उपचार और देखभाल के लिए भेज दिया।

    पहली की धाराओं से संबंध (Connection with Previous Sections)

    धारा 371 को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि यह अन्य धाराओं के साथ कैसे जुड़ी हुई है:

    1. धारा 367 (आरोपी की मानसिक स्थिति की प्रारंभिक जांच - Initial Inquiry into Mental Condition)

    o इस धारा के तहत यदि कोर्ट को संदेह होता है कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो उसकी मानसिक स्थिति की जांच की जाती है। यदि आरोपी अस्वस्थ पाया जाता है, तो मुकदमे को स्थगित कर दिया जाता है।

    2. धारा 368 (मुकदमे के दौरान मानसिक स्थिति का मूल्यांकन - Mental Evaluation During Trial)

    o यदि मुकदमे के दौरान आरोपी की मानसिक स्थिति पर संदेह होता है, तो उसे एक मनोचिकित्सक (Psychiatrist) या क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट (Clinical Psychologist) के पास भेजा जाता है।

    3. धारा 369 (मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपी के लिए देखभाल और चिकित्सा - Care and Treatment for Mentally Ill Accused)

    o यदि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है और मुकदमे का सामना करने के योग्य नहीं है, तो उसे चिकित्सा केंद्र में भेज दिया जाता है और यदि संभव हो तो जमानत पर रिहा (Bail) किया जाता है।

    धारा 371 का महत्व (Importance of Section 371)

    यह धारा कानूनी और नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि:

    • किसी भी आरोपी को तब तक मुकदमे का सामना नहीं करना पड़े जब तक वह मानसिक रूप से सक्षम न हो।

    • मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपियों को उचित चिकित्सा देखभाल और पुनर्वास (Rehabilitation) मिले।

    • यदि आरोपी की मानसिक स्थिति में सुधार होता है, तो न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक देरी न हो।

    • ऐसे व्यक्तियों को अपराधियों की तरह दंडित करने के बजाय उनकी मानसिक स्थिति को ध्यान में रखकर न्याय किया जाए।

    धारा 371 यह सुनिश्चित करती है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपियों को उचित न्याय मिले और उनकी स्थिति के अनुसार मुकदमे को फिर से शुरू किया जाए या स्थगित रखा जाए। यह धारा धारा 367, 368 और 369 के साथ मिलकर मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपियों के लिए न्यायिक प्रक्रिया को स्पष्ट और व्यवस्थित बनाती है।

    इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी व्यक्ति को बिना मानसिक रूप से सक्षम हुए मुकदमे का सामना न करना पड़े। यह न केवल आरोपी के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि समाज और न्यायपालिका के लिए भी एक संतुलित और न्यायसंगत दृष्टिकोण प्रदान करता है।

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