जानिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियां और पक्षकारों को अपील का अधिकार

Shadab Salim

25 July 2020 5:45 AM GMT

  • जानिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियां और पक्षकारों को अपील का अधिकार

    दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 29 के अंतर्गत किसी प्रकरण के पक्षकारों को अपील का अधिकार दिया गया है। परिवादी, अभियोजन पक्ष और अभियुक्त ये तीनों ही अपील कर सकते हैं। परिवाद द्वारा संस्थित मामलों में परिवादी को भी अपील करने का अधिकार उपलब्ध होता है।

    ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (सीआरपीसी) के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय की शक्तियों का उल्लेख भी आवश्यक हो जाता है। संहिता के अध्याय अपील के अंतर्गत सीआरपीसी की धारा 386 अपीलीय न्यायालय की शक्तियों के संदर्भ में विस्तार पूर्वक प्रावधान करती है।

    अपीलीय न्यायालय को अपनी यह शक्तियां तीन प्रकार से प्राप्त होती है-

    1)- दोषसिद्धि के आदेश से की गयी अपील की दशा में।

    2)-दंडादेश की वृद्धि के लिए की अपील के संदर्भ में

    3)- दोषमुक्ति के आदेश से की गयी अपील की दशा।

    इस प्रकार से की गयी किसी भी अपील में अपीलीय न्यायालय अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।

    सीआरपीसी की धारा 386

    इस धारा के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग दो शर्तों को पूरा कर लेने के बाद ही किया जाएगा-

    1)- यह कि न्यायालय अपील के निस्तारण के पूर्व मामले से संबंधित आवश्यक अभिलेखों का परिशीलन कर ले।

    2)- यदि अपीलार्थी या उसका वकील हाजिर है तो उसे और यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे सीआरपीसी की धारा 377, धारा 378 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे सुनने के पश्चात ही अपील पर विचार करें।

    अपीलीय न्यायालय को अपनी अपीलीय शक्तियों का प्रयोग करने के पूर्व शर्तों की पूर्ति करना होती है, यदि कोई भी आपराधिक अपील धारा 384 के अधीन संक्षेपतः खारिज नहीं की जाती है तो उसका निस्तारण इस धारा 386 के अनुसार किया जाएगा।

    अभिलेखों का परिशीलन करने के पश्चात यदि अपीलीय न्यायालय अपील को संक्षेप खारिज नहीं करता है तो उसके बाद की प्रक्रिया धारा 386 के अंतर्गत दी गयी है। अपील के निस्तारण के अंतर्गत न्यायालय पक्षकारों को भी सुनेगा वह धारा 385 (2) के अधीन भेजे गए अभिलेखों के परिशीलन करने के बाद ही मामले में विधि के अनुसार निर्णय लेगा।

    अतुल चौधरी बनाम राज्य 1978 के एक मामले में कहा गया है कि इस धारा में पुनर्विचार के सिवाय रिमांड की शक्ति का कोई भी प्रावधान नहीं है। जहां अपील के अनुक्रम में दंड के प्रश्न पर सुनवायी की जानी हो तो इस तरह की सुनवायी का प्रक्रम हो तो उक्त दशा में अभियुक्त को रिमांड नहीं दिया जा सकता है।

    1)- दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय को प्राप्त शक्तियां-

    जब कभी आरंभिक न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि की जाती है, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के अंतर्गत अभियुक्त को दोषसिद्धि से अपील का अधिकार प्राप्त है। अपीलार्थी द्वारा की गयी इस प्रकार की अपील से अपीलीय न्यायालय की शक्तियां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 में दी गयी है।

    इन शक्तियों के अनुसार-

    निष्कर्ष दंडादेश को पलट सकता है और अभियुक्त की दोषयुक्ति अनुचित कर सकता है या अपने अधीनस्थ न्यायालय को पुनर्विचार के लिए सुपुर्द करने का आदेश दे सकता है।

    दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है अथवा निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिमाण में परिवर्तन कर सकता है किंतु इस प्रकार दंड में वृद्धि नहीं कर सकेगा।

    दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय को यह शक्तियां प्रमुख रूप से प्राप्त होती हैं।

    कालूराम बनाम दिल्ली राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 260 के वाद में अभियुक्त के विचारण न्यायालय द्वारा धारा 304 भाग-1 और 34 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दोषसिद्धि की गयी थी जबकि उसके अन्य साथियों को दोषमुक्त कर दिया गया था। अतः अपीलार्थी ने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की जबकि परिवादियो ने अपीलार्थी को केवल धारा 304 भाग-1 अधीन दोषसिद्ध करने तथा उसके अन्य साथियों को दोषमुक्त किए जाने के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत की थी।

    उच्च न्यायालय में अपीलार्थी की अपील इस आधार पर खारिज कर दी क्योंकि वादियों द्वारा प्रस्तुत की गयी पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गयी थी। इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गयी। उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चय किया कि उच्च न्यायालय का निर्णय उचित नहीं था तथा परिवादियों की पुनरीक्षण याचिका खारिज होने से अपीलार्थी की अपील को खारिज नहीं किया जाना चाहिए था। अपील का निपटारा गुणावगुण (on merits) के आधार पर किया जाना अपेक्षित था।

    उच्चतम न्यायालय ने धारा 389 B की व्याख्या करते हुए अप्पासाहेब बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में कहा कि धारा 374 ऐसी अपील के प्रति लागू होती है जो अभियुक्त की दोषसिद्धि तथा दंडादेश के आदेश के विरुद्ध फाइल की गयी हो।

    इस धारा के प्रावधानों को पक्षकार की एक प्रकरण में की गयी दोषमुक्ति को किसी दूसरे प्रकरण में हुई उसकी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील में विचार कर दोषसिद्धि में परिवर्तन करने हेतु प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

    अर्थात दूसरे प्रकरण में अभियुक्त की दोषसिद्धि के आधार पर प्रथम प्रकरण में हुई उसकी दोषमुक्ति को दोषसिद्धि में नहीं पलटा जा सकता है।

    2)- दंडादेश को बढ़ाने के लिए की गयी अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय को प्राप्त शक्तियां-

    अभियोजन पक्ष या परिवादी जब आरंभिक न्यायालय द्वारा किए गए विचारण के पश्चात अभियुक्त के दोष सिद्ध होने के बाद आरंभिक न्यायालय द्वारा दिए गए दंड से आहत होता है तथा दंड में वृद्धि के लिए जब अपील की जाती है तो यहां पर अपीलीय न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त होती हैं इसका उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 की उपधारा 2 में किया गया है।

    निष्कर्ष आदेश को पलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है सक्षम न्यायालय को अभियुक्त के पुनर्विचार का आदेश दे सकता है।

    दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है।

    निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिमाण में परिवर्तन कर सकता है जिससे उसमें वृद्धि एवं कमी हो जाए।

    यदि अपील किसी अन्य आदेश के विरुद्ध हुई है तो अपीलीय न्यायालय ऐसे आदेश को परिवर्तित कर सकता है या पलट सकता है।

    3)- दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में प्राप्त अपीलीय न्यायालय को शक्तियां-

    जहां दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय-

    दोषमुक्ति के आदेश को उलट सकता है और निर्देश दे सकता है कि अतिरिक्त जांच की जाए अथवा अभियुक्त को यथास्थिति पुनर्विचारार्थ किया जाए या विचारार्थ सुपुर्द किया जाए।

    उसे दोषी ठहराते हुए विधि के अनुसार दंडादिष्ट कर सकता है।

    अपीलीय न्यायालय को प्राप्त इन शक्तियों के अतिरिक्त भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के अंतर्गत शक्तियां उसे दी गयी हैं। कुछ प्रकरणों में ऐसी शक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है।

    अपीलीय न्यायालय को अपील के निस्तारण में संशोधन या कोई परिमाणिक अनुषांगिक आदेश जो न्याय संगत हो पारित करने की शक्ति प्राप्त है। किंतु उक्त शक्ति का प्रयोग कुछ दशाओं के अधीन ही किया जाना चाहिए।

    दंड में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती है जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर प्रदान ना किया गया हो। अपीलीय न्यायालय उपचार के लिए जिसे उसकी राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दंड नहीं देगा जो आदेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिए दिया जा सकता था।

    अंबिका सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1972 इलाहाबाद के मामले में यह कहा गया है अपील के अनुक्रम में किसी भी दशा में अपीलीय न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया जा सकता जो अपील का पक्षकार नहीं है।

    उच्चतम न्यायालय ने सलीम जिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में अभी अभिनिर्धारित किया कि दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील के निपटारे के समय अपीलीय न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

    साक्षियों की विश्वसनीयता के बारे में विचारण न्यायालय का दृष्टिकोण।

    अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषिता की परिकल्पना।

    किसी युक्तियुक्त आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ दिए जाने की संभावना।

    विचारण न्यायालय द्वारा साक्ष्यों को सुनने तथा उनका परीक्षण किए जाने के पश्चात निकाले गए तथ्यों तथा निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने के पूर्व अपीलीय न्यायालय से अपेक्षित है कि इन सब बातों पर सावधानीपूर्वक विचार करें।

    मोहम्मद साबिर बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने अभिमत प्रकट किया कि यदि अभियुक्त की दोष सिद्धि के विरुद्ध अपील में अपीलीय न्यायालय कोई निरर्हता जोड़ता है तो इसे उसके दंड में वृद्धि माना जाएगा।

    कुरुप्पन थेवर बनाम तमिलनाडु राज्य के प्रकरण में अभियुक्त के विरुद्ध धारा 302 भारतीय दंड संहिता के अधीन हत्या का आरोप था तथा सेशन न्यायालय ने उसे धारा 304 भारतीय दंड संहिता के अपराध के लिए सिद्धदोष किया। सेशन न्यायालय ने आदेश के परिणाम स्वरूप अभियुक्त को धारा 302 के अपराध के लिए दोषमुक्त माना गया। दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में अपीलार्थी को धारा 302 के अपराध के लिए दोषी नहीं कर सकता था क्योंकि उस अपराध के लिए दोषमुक्त माना जा चुका था।

    जब किसी व्यक्ति को अपील में दोषसिद्धि हुई हो, इसका अर्थ यह हुआ कि अपीलीय न्यायालय ने प्रारंभिक न्यायालय के स्थान पर अपनी शक्ति का प्रयोग किया है अतः उस व्यक्ति का दोषसिद्धि तथा दंड विचारण न्यायालय के निर्णय के दिनांक से ही प्रतिस्थापित तथा पूर्ण प्रभावी माना जाएगा।

    रामास्वामी नादर बनाम मद्रास राज्य एआईआर 1958 के मामले में कहा गया है अपील का निपटारा करते समय उच्च न्यायालय को यह शक्ति होगी कि वह अभियुक्त को दोष मुक्ति के आदेश को बहाल रखते हुए उसे किसी अन्य अपराध के लिए सिद्धदोष कर सकता है, जिसके लिए वह अधीनस्थ न्यायालय द्वारा इस संहिता की धारा 221( 2) के अधीन आरोपित किया गया है।

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने बाली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के बाद में अभिनिर्धारित किया है कि यदि अपील की सुनवायी हेतु निर्धारित तिथि को अपीलार्थी तथा उसका अधिवक्ता दोनों ही न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं रहते हैं तो न्यायालय अपील की सुनवायी को मुल्तवी करने के लिए बाध्य नहीं है तथा वह गुणावगुण ( Merits) के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है।

    न्यायालय ने अभिकथन किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि अपील की सुनवायी हेतु तिथि समय पर उसके वकील को न्यायालय में उपस्थित रहना चाहिए। ऐसा नहीं किया जाता तो न्यायालय गुणावगुण के आधार पर मामला निपटा सकता।

    यह बात अलग है कि दूरदर्शिता या अनुग्रह दिखाते हुए अपीलीय न्यायालय को किसी अगली तिथि के लिए स्थगित कर दे। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 384 भी अपीलीय न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह समुचित आधार ना होने पर अपील को संक्षेपतः खारिज कर सकता है।

    साधासिंह बनाम राज्य 1985 के मामले में कहा गया है कि धारा 386 के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय को व्यापक शक्ति प्राप्त है। यदि न्यायालय की राय में अभियुक्त को दिया गया दंड अत्यधिक कठोर है तथा उसे परिवर्तित करना आवश्यक है तो वह दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए अभियुक्त के दंड में परिवर्तन कर सकता है या उसे कम कर सकता है।

    अपील की सुनवायी करते समय अपीलीय न्यायालय को अभियुक्त के दंड में वृद्धि करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार की शक्ति केवल उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में प्राप्त है। दंड में वृद्धि की जाने हेतु उच्च न्यायालय में अपील लोक अभियोजक द्वारा राज्य के निर्देशानुसार की जाती है।

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