Constitution में हाईकोर्ट की शक्ति
Shadab Salim
21 Dec 2024 8:41 AM IST
राज्य की न्यायपालिका के अंतर्गत हाई कोर्ट को भारत के सुप्रीम कोर्ट की तरह ही अभिलेख न्यायालय की अधिकारिता प्राप्त है। वर्तमान हाई कोर्ट की अधिकारिता और अधीनस्थ न्यायालयों पर निरीक्षण की अधिकारिता और रिट अधिकारिता प्राप्त है। आर्टिकल 225 के अनुसार संविधान के उपबंधों के अधीन समुचित विधान मंडल द्वारा निर्मित किसी विधि के अधीन रहते हुए किसी वर्तमान हाई कोर्ट का क्षेत्राधिकार उस में प्रकाशित विधि हाई कोर्ट में न्याय प्रशासन से संबंधित उसके जजों की शक्तियां के अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने तथा बैठकों के विनियम शक्ति भी शामिल है वैसी ही रहेगी जैसी इससे ठीक पहले थे।
राज्यों के हाई कोर्टों को अधीनस्थ न्यायालयों के निरीक्षण और नियंत्रण की शक्ति प्राप्त है। इसका उल्लेख कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 227 के अंतर्गत किया गया है। आर्टिकल 227 के अंतर्गत हाई कोर्ट को उन समस्त क्षेत्रों में जिनके संबंध में वह अधिकारिता का प्रयोग करता है सभी न्यायालयों न्यायाधिकरण की देखभाल की शक्ति प्राप्त है।
इस प्रयोजन के लिए वह हाई कोर्ट को अधीनस्थ न्यायालयों से विवरण मांग सकता है, उनकी कार्यप्रणाली और कार्रवाई के विनियमन हेतु नियम बनाने तथा उनके अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों पर पत्रों को पेश करने की शक्ति प्राप्त है। हाई कोर्ट के पदाधिकारियों एडवोकेट और वकीलों को मिलने वाली फीस निश्चित कर सकता है।
हाई कोर्ट की रिट जारी करने की शक्ति
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 226 के अधीन हाई कोर्ट को दी गई रिट अधिकारिता राज्य न्यायपालिका को दी गई सर्वोच्च शक्ति है। आर्टिकल 226 कहता है कि आर्टिकल 32 में किसी बात के होते हुए भी प्रत्येक हाई कोर्ट को समस्त क्षेत्रों में रिट के संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है।
संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए संबंधित राज्यों में किसी व्यक्ति अधिकारी को समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश या आदेश के अधिक जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा, और उत्प्रेरण रेट जारी करने की शक्ति होगी।
इस प्रकार हाई कोर्ट की अधिकारिता केवल मूल अधिकारों की रक्षा के लिए ही नहीं सीमित है बल्कि अन्य अधिकारों की रक्षा के लिए भी उपलब्ध है। इस मामले में हाई कोर्ट की अपेक्षा अधिक विस्तृत है किसी अन्य प्रयोजन के लिए अधिकार है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हाई कोर्ट अनुसार किसी भी प्रयोजन के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं। हाई कोर्ट के अतिरिक्त अन्य विधियों के अधीन प्राप्त अधिकारों के लिए भी किया जा सकता है।
आर्टिकल 226 में उल्लेखित रिट को विशेष अधिकार रिट कहा जाता है क्योंकि उसका विकास सम्राट की शक्ति शक्ति से हुआ है जिसके माध्यम से वह अपने अधिकारियों व अधीनस्थ न्यायालयों पर निरीक्षण और नियंत्रण रखता था। रिट अंग्रेजी न्याय प्रणाली की महान देन है जो नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता के संरक्षक है।
भारत में वर्तमान संविधान लागू होने से पहले कोलकाता मुंबई और मद्रास प्रेसिडेंसी के हाई कोर्टों को जारी करने की शक्ति प्राप्त होती किंतु इनकी संबंधित अधिकारिता केवल प्रेसिडेंट तक ही सीमित थी। आर्टिकल 226 के अंतर्गत भारत के सभी राज्यों के हाई कोर्टों को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है।
सामान्य नियम के अनुसार आर्टिकल 226 में उल्लेखित उपचार के लिए वही व्यक्ति आवेदन कर सकता है जिसके विधिक अधिकारों को राज्य किसी व्यक्ति द्वारा अतिक्रमण किया जाता है किंतु अब इस परंपरागत दृष्टिकोण में काफी परिवर्तन हुआ है और अपने हाल के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि समाज का कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति या वर्ग के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण के विरुद्ध उपचार के लिए आवेदन दे सकता है जो अपने निर्धनता या किसी कारण से न्यायालय में जाने में असमर्थ है, बस शर्त यह है कि उसमें उसका ही पर्याप्त हित हो। अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ के मामले में निर्णय लिया गया है।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम एक छात्र के अभिभावक के मामले में यह कहा गया है कि लोकहित वाद के अधीन हाई कोर्ट को यह अधिकारिकता नहीं है कि वह राज्य सरकार को अपने निर्णय को लागू करने के लिए कोई विशेष विधि बनाने का निर्देश दें। उन्हें राज्य सरकार को सार्वजनिक एवं विधिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है किंतु विधानमंडल के कार्य स्वयं नहीं धारण कर सकता।
इस मामले में एक छात्र के अभिभावक में हाई कोर्ट फाइल की और यह निवेदन किया कि वह मेडिकल कॉलेज में रैगिंग रोकने के लिए सरकार को विधि बनाने का निर्देश दे। न्यायालय ने कहा रिट का प्रयोग कार्यपालिका और विधानमंडल के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
बंदी प्रत्यक्षीकरण-
बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करो यह आदेश के रूप में उन व्यक्तियों के विरुद्ध जारी की जाती है जो किसी को बंदी बनाए हुए हैं। इस रिट द्वारा उन्हें यह आदेश दिया जाता है कि वह निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें वह बताएं कि उन्होंने किस अधिकार से उसे निरूद्ध किया हैम संक्षेप में व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश है यदि दिखाए गए कारणों से यह पता चलता है कि निरोध का कारण कोई विधि घोषित नहीं है तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ देता है। इस प्रकार इस रिट का मुख्य उद्देश अवैध रूप से निरुद्ध किए गए व्यक्ति को शीघ्र न्याय प्रदान करना है।
सामान्य नियम यह है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए आवेदन वही व्यक्ति प्रस्तुत कर सकता है जिसके विधिक अधिकार का अतिक्रमण हुआ है। अतिक्रमण की धमकी दी गई है किंतु कुछ परिस्थितियों में रिट के लिए निर्धन व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति भी आवेदन दे सकता है। ऐसा व्यक्ति निरूद्ध व्यक्ति का कोई रिश्तेदारी भी हो सकता है। सुनील बत्रा के मामले में जेल के कैदी के लिखे पत्र को रिट मान लिया गया था।
परमादेश-
'हम आदेश देते हैं' इस प्रकार परमादेश सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के लोक प्राधिकारी जिसके अंतर्गत सरकार और निगम भी शामिल है को उनके विधिक कर्तव्य किसी संवैधानिक के अधीन आरोपित कर्तव्य को करने का आदेश दिया जाता है या उन कर्तव्यों को अवैध रूप से न करने का आदेश दिया जाता है। उदाहरण के लिए यदि प्रार्थी ने किसी अधिनियम के अधीन लाइसेंस प्राप्त करने के लिए विहित सभी शर्तों को पूरा कर दिया है तो लाइसेंस देने वाले अधिकारी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह प्रार्थी को लाइसेंस प्रदान करें। विधि के अंतर्गत सभी शर्तों को पूरा करने के पश्चात भी संबंधित अधिकारी लाइसेंस देने से इनकार करता है तो पीड़ित व्यक्ति परमादेश लेख प्राप्त करके उपचार प्राप्त कर सकता है।
प्रतिषेध-
प्रतिषेध रिट मुख्य रूप से अधीनस्थ न्यायालय अधिकारियों को अपनी अधिकारिता से बाहर जाने या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य करने से रोकने नहीं जारी की जाती है। यह एक न्यायिक रिट है जो किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय को जारी की जाती है। जिसके द्वारा उन्हें इस अधिकारिता को बलपूर्वक ग्रहण करने से रोका जाता है जो कानून द्वारा उनमें निहित नहीं है। दूसरे शब्दों में उन्हें अपनी अधिकारिता की सीमाओं में कार्य करने के लिए जारी किया जाता है। संक्षेप में प्रतिषेध रिट का मुख्य उद्देश अधीनस्थ न्यायालयों के द्वारा की गई न्यायिक त्रुटियों को ठीक करना है। इस प्रकार यह दोनों अवस्थाओं में जारी की जाती है जहां अधिकारिता से बाहर कार्य किया गया जहां अधिकारिता में नहीं।
प्रतिषेध उत्प्रेषण में अंतर बहूत कुछ मिलता जुलता है। यह दोनों रिट मुख्यता अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता से बाहर न जाने से रोकने के लिए जारी किए जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक मामले में दोनों रिट के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जब कोई अधीनस्थ न्यायालय ऐसे मामलों की सुनवाई करता है जिस पर उसे अधिकारिता नहीं प्राप्त है तो वरिष्ठ न्यायालय प्रतिषेध रिट जारी करके अधीनस्थ न्यायालय को आगे बढ़ने से रोक सकता है।
उत्प्रेषण-
उत्प्रेषण रिट द्वारा अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक या अर्ध न्यायिक कार्य करने वाले निकायों में चलने वाले मुकदमों में वरिष्ठ न्यायालयों के पास भेजने का आदेश दिया जाता है जिससे उनके निर्णय की जांच की जा सके। यदि निर्णय दोषपूर्ण हो तो रद्द किया जा सके। हाई कोर्ट में मुंबई राज्य बनाम खुशालदास के मामले में इसके बारे में कहा है कि जहां कहीं व्यक्तियों का कोई निकाय नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रश्नों को निपटारा करने का विधिक अधिकार रखता है।
न्याय के लिए कर्तव्य है अपने अधिकार को हटाने के लिए यह कार्यपालिका या प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों को हटाने के लिए जारी नहीं किया जाता है इस शब्द का अर्थ आवश्यक रूप से किसी जज या न्यायाधिकरण के कार्य से अधिक मामले में निर्णय देने के लिए बैठते हैं। एक ऐसे न्यायिक कार्य से प्रतीत होता है जो किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा परिस्थितियों पर विचार करके किया गया है और दूसरों के अधिकारों को प्रभावित करता है, उन पर दायित्व आरोपित करता है।
अधिकार पृच्छा-
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 226 के अधीन राज्यों की न्यायपालिका हाई कोर्ट द्वारा अधिकार पृच्छा जारी की जाती है। इसके अनुसार 'आपका अधिकार क्या है? यह प्रश्न है। यह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जारी की जाती है जो किसी सार्वजनिक पद को अवैध रूप से धारण किए हुए है। इस रिट द्वारा उससे पूछा जाता है कि वह किस प्रकार से वह पद धारण किए हुए हैं। इसका मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके धारण करने से रोकना है जिसे धारण करने का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है। यदि जांच करने पर यह पता चलता है कि उसको धारण करने का कोई अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकारी उस व्यक्ति को उस पद से हटा देगा और उसके पद को खाली घोषित कर देगा।
अधिकार पृच्छा प्राप्त करने के लिए प्रश्न स्पष्ट पद एक सार्वजनिक पद होना चाहिए। व्यक्ति को विधिक रूप से उस पद को धारण करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। अधिकार पृच्छा किसी निजी प्रकृति के पद धारण करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जाता है। किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्त की वैधता को चुनौती देने के लिए कोई निजी व्यक्ति भी अधिकार पृच्छा की मांग कर सकता है, भले ही व्यक्तिगत रूप से वह पीड़ित न हो या उसके किसी अधिकार का अतिक्रमण न किया गया हो। इस रिट की मांग करने वाले व्यक्ति को यह दिखाना आवश्यक है कि उसे इस पद के धारण करने का कोई विधिक अधिकार प्राप्त नहीं है।