वर्तमान जमानत विधि में परिवर्तन पर अदालतों के मत

Shadab Salim

27 Sep 2022 4:23 AM GMT

  • वर्तमान जमानत विधि में परिवर्तन पर अदालतों के मत

    भारत में किसी भी अपराध के अभियुक्त को दोषसिद्धि से पूर्व एवं अपील के लंबित रहते हुए जमानत पर छोड़े जाने के प्रावधान हैं। हालांकि यह प्रावधान जमानतीय अपराध के मामलों में लागू होते हैं। गैर जमानती अपराधों में जमानत देना अदालत का विवेकाधिकार होता है, ऐसे मामलों में अभियुक्त की परिस्थिति एवं अपराध की गंभीरता को देखते हुए अदालतों द्वारा जमानत दी जाती है।

    समय-समय पर भारत के उच्चतम न्यायालय एवं भिन्न-भिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा जमानत की विधि पर परिवर्तन हेतु अपने मत दिए गए हैं। अनेक विद्वानों ने भी इस बात पर जोर दिया है कि वर्तमान जमानत की विधि में परिवर्तन की आवश्यकता है। इस आलेख के अंतर्गत इस बिंदु पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य एआईआर 1979 उच्चतम न्यायालय 1360 के मामले में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के लिए बिहार राज्य में न्याय प्रशासन के सम्बन्ध में स्तब्धकारी परिस्थितियाँ सामने आयी हैं।

    अत्यधिक संख्या में पुरुष, स्त्रियाँ एवं बच्चे विचारण की प्रतीक्षा में वर्षों से जेल की सलाखों के पीछे पड़े हुए थे उनमें से कुछ अपराध जिसके लिए वे आरोपी थे, बहुत ही तुच्छ प्रकार के थे जो यदि साबित हो जाते तो वे कुछ महीनों या शायद वर्ष, दो वर्ष के दण्ड से दण्डनीय होते। हालांकि वे सभी दुर्भाग्य से मानवता के लक्षणों और अपनी स्वतन्त्रता से वंचित होकर बिना विचारण प्रारम्भ हुए तीन या दस वर्षों से जेल में निरुद्ध थे।

    न्यायिक पद्धति के लिए यह बहुत शर्म की बात है जो पुरुष एवं महिला को बिना विचारण के इतने लम्बी अवधि तक बंधन को मंजूर करती है । इस सम्बन्ध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अग्रलिखित शब्दों में आश्चर्य व्यक्त किया गया, "यह वह समय है जब लोग जागरूक हो चुके हैं और सरकार तथा न्यायपालिका को यह महसूस होना चाहिए की बड़ी संख्या में पुरुष एवं स्त्री धैर्यपूर्वक या अधीर होकर अंधेरी कोठरियों में प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन ऐसे न्याय के लिए जो शायद उनकी पहुँच से बाहर है।

    कानून उनके लिए अन्याय का एक औजार बन गया है और वे हृदयहीन विधिक एवं न्यायिक प्रत्यार्थी के शिकार हो गये हैं और असहाय एवं निराश हैं। अब वह समय आ गया है कि विधिक और न्यायिक प्रत्यार्थी को नए समय एवं नए रूप में लाए जाये जिससे कि इस प्रकार का अन्याय न होने पाये और ऋजुता विकृत न हो अन्यथा हमारे नवजात लोकतंत्र का उदीप्यमान चेहरा विकृत हो जायेगा।

    इसके पूर्व के एक मामले मेनका गांधी बनाम भारत संघ ए आई आर उच्चतम न्यायालय 597 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को बिना विचारण के इतने लम्बे समय तक जेल में रखना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की अपेक्षाओं के अनुरूप युक्तियुक्त, ऋजु एवं न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि विधायिका द्वारा अधिनियमित एवं न्यायालयों द्वारा प्रभावित विधि को पूर्व विचारण निरोध के प्रति अपने दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी बदलाव लाना चाहिए तथा युक्तियुक्त, न्यायपूर्ण एवं ऋजु प्रक्रिया को सुनिश्चित करना चाहिए। जिस कारण से गरीब हमारी विधिक एवं न्यायिक पद्धति को पदमनात्मक और अपने विरुद्ध पाते हैं तथा वे घृणा एवं निराशा से भर जाते हैं और वे पाते हैं कि धनी लोगों की तुलना में वे असहाय एवं असमान हैं।

    यह वांछनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में रिहाई के लिए स्पष्ट प्रावधानों की अनुपस्थिति में युक्तियुक्त मामलों में विचाराधीन कैदियों को अपने स्वयं के प्रतिभूति रहित बंधपत्र और बिना किसी धनीय बाध्यता के रिहा किया जाये। न्यायमूर्ति पाठक ने अभिव्यक्त किया कि इस सम्बन्ध में तत्काल स्पष्ट प्रावधान की जरूरत है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में भारतीय जेलों में हजारों विचाराधीन कैदी पड़े हुए हैं जिनमें से कई ऐसे हैं जो विचारण से पूर्व अपनी स्थिति के कारण अपनी जमानत सुनिश्चित करने में असमर्थ हैं क्योंकि वे अपनी उपसंजाति के लिए पर्याप्त वित्तीय प्रतिभूति देने में असमर्थ हैं जहाँ यह उनके निरंतर बंधन का एकमात्र कारण हैं वहाँ उनके द्वारा द्वेषकारी भेदभाव की शिकायत का अच्छा आधार है।

    केवल वित्तीय गरीबी के कारण स्वतन्त्रता से वंचित होना संवैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति को प्रेरित करने के लिए समाज में एक विसंगतकारी तत्व है। पूर्ण वर्णित मामलों में प्रायः उपस्थित होने के लिए पर्याप्त प्रतिभूतियाँ हैं और हमें यह प्रतीत होता है कि गैर वित्तीय रिहाई के लिए संविधि में उपयुक्त प्रावधान के द्वारा हमारे विधि निर्माता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा में महत्वपूर्ण कदम उठायेंगे।

    गुजरात सरकार द्वारा न्यायमूर्ति श्री भगवती की अध्यक्षता में गठित विधिक सहायता समिति ने इस अतिस्पष्ट असमानता को निम्नलिखित शब्दों में रेखांकित किया है-

    "जमानत व्यवस्था जैसा कि वर्तमान आपराधिक न्यायालयों द्वारा परिभाषित किया जा रहा है, अत्यधिक असंतोषजनक है और इनमें महत्वपूर्ण बदलाव की आवश्यकता है। प्रथमतः अभियुक्त की अनुपस्थिति को यथार्थ रूप में मौद्रिक रूप में बदलना लगभग असंभव है और इसका मूलभूत तत्व कि अभियुक्त को भागने से रोकने के लिए वित्तीय हानि का जोखिम जरूरी है एक संदेहात्मक वैधता है। ऐसी कई स्थितियां हैं जो अभियुक्त को न्याय से भागने से रोकती हैं तथा वित्तीय जोखिम उनमें से मात्र एक है न कि यही एकमात्र कारण संयुक्त राज्य में मैनहट्टन जमानत योजना तथा डी० सी० जमानत योजना जैसी चमत्कृत जमानत योजनाओं के अनुभव ने यह प्रदर्शित किया है कि कई मामलों में मौद्रिक जमानत के बिना भी विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित की जा सकती है। कुल मिलाकर जमानत व्यवस्था गरीबों के विरुद्ध भेदभाव करती है क्योंकि अपनी गरीबी की वजह से वे अपनी जमानत देने में असमर्थ होते हैं जबकि इसके विरुद्ध धनी लोग अपनी जमानत सुनिश्चित करने में सक्षम होते हैं क्योंकि वे जमानत देने में समर्थ होते हैं। ऐसा विभेदीकरण उन मामलों में उत्पन्न होता है जहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा निश्चित की गयी जमानत राशि बहुत ऊँची नहीं है, क्योंकि बहुतायत आपराधिक मामलों में जो न्यायालय के समक्ष लाए जाते हैं में अभियुक्त इतने गरीब होते हैं कि संक्षिप्त धनराशि के मामलों में भी उन्हें जमानत देने में कठिनाई होती है।

    गुजरात समिति ने यह भी इंगित किया कि आरोप की प्रकृति को संदर्भित करते हुए सुसंगत तथ्यों जैसे अभियुक्त की व्यक्तिगत आर्थिक परिस्थितियाँ, उसके न्याय से भागने की सम्भावना को ध्यान में रखे बिना जमानत की धनराशि को निश्चित करने का तरीका गरीबों के विरुद्ध कठोर, दमनकारी एवं विभेदकारी है।

    "विभेदकारी प्रकार की जमानत व्यवस्था यांत्रिक रूप में जैसा कि पारम्परिक रूप से यह संचालित होने के कारण अत्यधिक तेज़ हो जाती है। यह निःसन्देह सत्य है कि सैद्धान्तिक रूप से मजिस्ट्रेट को जमानत की राशि तय करने का व्यापक विवेकाधिकार है लेकिन व्यवहार में यह प्रतीत होता है कि जमानत की राशि सदैव अपराध की गम्भीरता पर निर्भर करता है। यह आरोप की प्रकृति के अनुसार सम्बन्धित अनुसूची के अनुसार निश्चित होता है। इस बात पर कि अभियुक्त के न्याय से भागने की आशंका है या उसको व्यतिगत वित्तीय परिस्थितियों पर बहुत कम जोर दिया जाता है, सबसे बड़ा कारण जो सुसंगत प्रतीत होता है वह यह है कि अभियुक्त की विचारण के समय उपस्थिति सुनिश्चित की जाये। इन तत्वों की अनदेखी करने तथा केवल अपराध की गम्भीरता को देखते हुए यांत्रिक तरीके से जमानत को धनराशि तय करने का परिणाम गरीबों के साथ भेदभाव करना है जो अमीरों की तरह जमानत की धनराशि को जमा करने के लिए सक्षम नहीं होते। न्यायालय धनिकों को विभेदक सक्षमता को नकारते हुए जिन्हें कि एक ही प्रकार के आरोप के लिए एक समान परिस्थिति में आरोपित किया गया है और जो अपनी जमानत को कराने में सक्षम हैं जबकि गरीब अपनी गरीबी के कारण ऐसा करने में अक्षम है, विभेद कर सकते हैं। यह वर्तमान में संचालित जमानत व्यवस्था को कुछ मुख्य कमियाँ हैं। इसी प्रकार का प्रेक्षण अमेरिकी राष्ट्रपति लिडन जॉनसन द्वारा जमानत सुधार अधिनियम, 1966 पर हस्ताक्षर करते समय व्यक्त किया गया।

    'आज हम' आपराधिक न्याय पद्धति में एक प्रमुख परिवर्द्धन जमानत पद्धति में 'सुधार' के परिप्रेक्ष्य में एकत्र हुए हैं। इस पद्धति ने 1789 को न्यायपालिका अधिनियम के समय से ही पुरातन, अन्यायपूर्ण एवं मुख्यतः अपरीक्षित रूप को सहन किया है। जमानत का मुख्य उद्देश्य यह है कि अभियुक्त यदि गिरफ्तारी के बाद रिहा किया जाता है तो वह विचारण के लिए वापस आयेगा। यह उद्देश्य वर्तमान व्यवस्था के तहत किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? धनी प्रतिरक्षी सही अर्थों में जमानत देने में सक्षम हो सकता है। वह अपनी स्वतन्त्रता खरीदने में सक्षम हो सकता है। लेकिन गरीब प्रतिरक्षी मूल्य नहीं चुका सकता है। वह बिना विचारण के ही सप्ताहों, महीनों या शायद वर्षों जेल में पड़ा रह सकता है।

    वह जेल में इसलिए नहीं है क्योंकि वह दोषी है। वह जेल में इसलिए नहीं है कि उसके विरुद्ध कोई सजा सुनाई गयी है। वह जेल में इसलिए नहीं है कि उसके विचारण पूर्व भागने की सम्भावना है। वह जेल में मात्र एक कारण से है क्योंकि वह गरीब है।"

    वर्तमान में संचालित जमानत व्यवस्था गरीबों के लिए कठिनाई का एक प्रमुख स्त्रोत है और यदि हम वास्तव में गरीबों के लिए ऋजु एवं न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित करना चाहते हैं तो यह अपरिहार्य है कि जमानत व्यवस्था में आमूलचूक सुधार किया जाए जिससे धनिकों के साथ-साथ गरीबों के लिए भी यह सम्भव हो सके कि वे न्याय के हित में बिना किसी पूर्वाग्रह के विचारण पूर्व रिहा किए जा सकें।

    हुसैन आरा खातून के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि यहाँ उचित समय है जब हमारी संसद को यह महसूस करना चाहिए कि न्याय से भागने को रोकने के लिए केवल मौद्रिक हानि की जोखिम एकमात्र प्रतिरोधक नहीं है। इसके साथ ही कुछ अन्य तत्व भी हैं जो न्याय से भागने के विरुद्ध समान रूप से प्रतिरोधक हो सकते हैं। हम समाजिक न्याय जो हमारे संविधान की आत्मा है के साथ समाजवादी गणतंत्र हैं तथा संसद को इस सम्बन्ध में अच्छी तरह विचार करना चाहिए कि हमारे संविधान की भावना के साथ यह अधिक समस्कर नहीं होगा कि मौद्रिक हानि के बढ़ाने में अन्य सुसंगत प्रतिफल जैसे पारिवारिक बंधन, समुदाय में उसकी जड़े, रोजगार सुरक्षा, स्थिर संगठनों की सदस्यता इत्यादि, जमानत मंजूर करने में निश्चयकारी तथ्य हों तथा युक्तियुक्त मामलों में अभियुक्त को उसके स्वयं के बंधपत्र मौद्रिक बाध्यता के बिना रिहा किया जा सके।

    वास्तव में आपराधिक विधि में संशोधन के द्वारा ऐसे मामलों में यह आवश्यक बना दिया जाए कि यदि अभियुक्त अपने व्यक्तिगत बंधपत्र में किए गए वादे का अनुपालन करने में जानबूझकर विफल हो जाए तो उसे दाण्डिक कार्यवाही के दायित्वाधीन रखा जाए। लेकिन वर्तमान विधि के तहत न्यायालयों की अपनी उस पुरातन अवधारणा से मुक्ति पानी होगी जिसके तहत विचारणपूर्व रिहाई केवल प्रतिभुओं सहित जमानत के विरुद्ध ही आदेशित किया जा सकता है।

    यह अवधारणा अब पुरानी पड़ गयी है तथा अनुभव यह दर्शाते हैं कि इसने अच्छाई के बदले बुराई ही है। सामाजिक रूप से विकसित विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका में विचारण पूर्व रिहाई के सम्बन्ध में नया दृष्टिकोण विकसित हुआ है कि विचारण पूर्व रिहाई के सम्बन्ध में न्यायालयों के निर्णयों को सूचित किया जाना चाहिए

    इनसाइक्लोपीडिया विटानिश ने भी अधिक समृद्ध समाजों में इसी विचार को अगलिखित रूप में व्यक्त किया है,

    "जमानत वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करने के लिए कि रिहा किया गया बंदी न्यायालय की अग्रेतर कार्यवाहियों में बाद में उपस्थित होगा, प्रतिभूति की प्राप्ति पर गिरफ्तार या कारावासित किए गये व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करता है। मौद्रिक योग्यता के बारे में विचार की विफलता ने हाल के वर्षों में काफी विवाद पैदा किया है और जमानत की अपेक्षा में गरीब एवं कतिपय अल्पसंख्यक समूहों जो विचारण के लाजित रहते अपनी स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए समान अवसर से वंचित कर दिए गये हैं। कुछ न्यायालय निर्धन अभियुक्तों को जो अपने सामुदायिक स्थिति और भूतकालीन इतिहास के कारण न्यायालय में उपस्थित होने के तुल्य विचारित किए जा सकते हैं, के सम्बन्ध में विशेष रूप से ध्यान दिया है।

    गुजरात सरकार द्वारा गठित विधिक सहायता समिति ने निम्नवत् प्रेक्षित किया हमारा सुझाव है कि मजिस्ट्रेट को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि मौद्रिक जमानत आपराधिक कार्यवाही का एक आवश्यक तत्व नहीं है और यहाँ तक कि यदि मौद्रिक हानि न्याय से भागने के विरुद्ध एक प्रतिरोधक है, तो यह एकमात्र प्रतिरोधक नहीं है और ऐसे अन्य कई तत्य हैं जो न्याय से भागने के विरुद्ध पर्याप्त प्रतिरोधक हैं। मजिस्ट्रेट को अपनी इस पुरातन अवधारणा से मुक्ति पानी होगी जिसके तहत विचारण पूर्व रिहाई केवल प्रतिभुओं सहित जमानत के विरुद्ध ही आदेशित की जा सकती है।

    यह अवधारणा अब पुरानी पड़ गयी है तथा अनुभवों से यह दर्शित होता है कि इसने अच्छाई के बदले बुरा ही किया है। सामाजिक रूप से विकसित विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका में विचारण पूर्व रिहाई के सम्बन्ध में यह नया दृष्टिकोण विकसित हुआ है कि विचारण पूर्व रिहाई के सम्बन्ध में न्यायालयों के निर्णयों को सूचित किया जाना चाहिए। मौद्रिक जमानत को निर्धारित किए जाने के पूर्व विचारण पूर्व रिहाई को सुनिश्चित करने के लिए अन्य सम्भाव्य तरीकों को प्रयोग में लाया जाना चाहिए।

    वर्तमान में अमरीका में अनुसरित वाद यह है कि अभियुक्त को साधारण रूप से उपस्थित होने के आदेश या स्वयं के मुचलके पर रिहा कर दिया जाये जब तक कि यह दर्शित न हो कि न उपस्थित होने की पर्याप्त जोखिम है या परिस्थितियाँ ऐसी है जो रिहाई की स्थितियों पर अवरोध लगाती है। यदि अभियुक्त की दशा एवं पृष्ठभूमि के बारे में छानबीन करके मजिस्ट्रेट का यह समाधान हो जाता है कि अभियुक्त की जड़े उसके समुदाय में गहरी हैं और इस बात की सम्भावना है कि वह भागेगा नहीं तो वह अभियुक्त के स्वयं के मुचलके पर उपस्थित होने के आदेश पर सुरक्षित रूप से रिहा कर सकता है।

    न्यायधीशों, वकीलों, संसद सदस्यों एवं अन्य विधि विशेषज्ञों द्वारा गठित बाद की एक समिति भी ठीक इसी निष्कर्ष पर पहुँची तथा इस धारणा पर पहुंची कि बंधपत्र पर रिहा करने के अंतर्गत अभियुक्त के स्वयं के बंधपत्र पर रिहा करना भी आता है।

    विधिक सहायता पर विशेषज्ञ समिति ने व्यक्त किया,

    "हम समझते हैं कि मौद्रिक प्रतिभूति या वित्तीय प्रतिभूति रहित सशर्त रिहाई की उदार नीति तथा उल्लंघन की अवस्था में दण्ड के प्रावधान के साथ स्वयं के मुचलके पर रिहा किया जाना, जमानत व्यवस्था में सुधार के लिए एक लम्बा कदम होगा तथा समुदाय के कमजोर एवं गरीब वर्ग को विधि के अंतर्गत समान न्याय की प्राप्ति में सहायक होगा। सशर्त रिहाई अभियुक्त पर इस विश्वास को व्यस्त करना है कि उसे उसके सम्बन्धियों को संरक्षा में या उनके देखरेख में रखा जाए। न्यायालय या जमानत को मंजूर करने वाले प्राधिकारी को अपने विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिकतः करना चाहिए। जहाँ अभियुक्त इतना गरीब है कि वह प्रतिभूति नहीं दे सकता तो ऐसी स्थिति में उसे प्रतिभूति देने का आग्रह करने का कोई कारण नहीं है क्योंकि ऐसा उसे अभिरक्षा में रहने के लिए बाध्य करना है जिसका परिणाम उसे अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ बनाना है।"

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