निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 7 : लिखत के पक्षकार कौन होते हैं

Shadab Salim

11 Sep 2021 8:17 AM GMT

  • निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 7 : लिखत के पक्षकार कौन होते हैं

    परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत तीन प्रकार के लिखत पर प्रावधान किए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत उल्लेख किए गए लिखत के पक्षकारों पर चर्चा की जा रही है।

    किसी भी लिखत के विषय में प्रावधानों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण उसके पक्षकारों का उल्लेख है। इससे अधिनियम में यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार से संबंधित किस व्यक्ति को क्या कहा जाएगा।

    लिखत के पक्षकार-

    लिखत के पक्षकार विनिमय पत्र एवं चेक के पक्षकार होते हैं, 'लेखीवाल', 'ऊपरवाल' एवं 'पाने वाला' (आदाता) जबकि वचन पत्र के 'लेखक' एवं 'पाने वाला' दो पक्षकार होते हैं।

    'लेखीवाल' - अधिनियम की धारा 7 के अनुसार विनिमय पत्र एवं चेक के लेखक को 'लेखीवाल' कहा जाता है। वचन पत्र में ऐसे व्यक्ति को "लेखक" जाता है। लेखीवाल या लेखक ऐसे व्यक्ति होते हैं जो लिखतों को लिखते है। विनिमय पत्र एवं चेक की दशा में लेखीवाल एवं वचन पत्र की दशा में लेखक कहा जाता है। इन दोनों में मुख्य अन्तर है कि विनिमय पत्र एवं चेक का लेखक संदाय करने का आदेश करता है, जबकि वचन पत्र में लेखक स्वयं संदाय करने का वचन देता है।

    यद्यपि कि लेखीवाल एवं लेखक को एक दूसरे के सम्बन्ध में भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

    ऊपरवाल - इस अधिनियम की धारा 7 के अनुसार विनिमय पत्र एवं चेक के द्वारा वह व्यक्ति जिसे संदाय करने का निर्देश होता है ऊपरवाल कहलाता है। चेक की दशा में ऊपरवाल सदैव कोई बैंक होता है, जबकि विनिमय पत्र की दशा में ऊपरवाल कोई भी व्यक्ति हो सकता है यहाँ तक कि एक बैंक भी हो सकता है। विनिमय पत्र या बैंक की दशा में ऊपरवाल ही संदाय करने के लिए आबद्ध होता है, परन्तु ऊपरवाल की आबद्धता गौण होती है। लेखीवाल एवं विनिमय पत्र की दशा में स्वीकर्ता (प्रतिगृहीता) की आबद्धता प्राथमिक होती है।

    जिकरीवाल- विनिमय पत्र में (चेक में नहीं) ऊपरवाल के अतिरिक्त लेखीवाल के विकल्प पर किसी अन्य व्यक्ति का नाम दिया जाता है जिसे जिकरीवाल कहते हैं। दैनगी के लिए आवश्यकतानुसार ऐसे व्यक्ति का सहयोग लिया जा सकता है जहाँ विनिमय पत्र अस्वीकृति की वजह से अनादूत हो जाता है।

    विनिमय पत्र को ऊपरवाल का प्रतिग्रहण अपेक्षित होता है। जहाँ किसी विनिमय पत्र को ऊपरवाल प्रतिगृहीत नहीं करता है, तब इसे "जिकरीवाल" के समक्ष उपस्थापित किया जाता है और जब वह प्रतिग्रहण कर देता है तो यह मान लिया जाता है कि विनिमय पत्र प्रतिगृहीत कर लिया गया है और तब ऐसा व्यक्ति "ऊपरवाल" का स्थान ग्रहण कर लेता है, एवं संदाय के लिए बाध्य हो जाता है। मूल ऊपरवाल विनिमय पत्र से पृथक हो जाता है।

    अधिनियम की धारा 115 के अधीन जहाँ किसी विनिमय पत्र में या उस पर के किसी पृष्ठांकन में जिकरीवाल नामित है, यहाँ जब तक कि विनिमय पत्र ऐसे जिकरीवाल द्वारा अनादूत न कर दिया गया हो, यह अनादूत नहीं होता है।

    धारा 33 के अनुसार जिकरीवाल के सिवाय विनिमय पत्र केवल ऊपरवाल द्वारा ही प्रतिग्रहीत किया जाएगा। कोई भी व्यक्ति जो विनिमय पत्र का ऊपरवाल या जिकरीवाल नहीं है विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत (स्वीकृत) नहीं कर सकता है।

    किसी वचन पत्र में जहाँ ऊपरवाल का उल्लेख नहीं है, किसी अन्य पक्षकार द्वारा प्रतिगृहीत किया जाता है, वहाँ जब ऐसा वचन पत्र विनिमय पत्र में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार एक व्यक्ति जो वचन पत्र पर प्रतिग्रहण करता है, अपने को ऊपरवाल के रूप में स्वीकार करता है और इसके अधीन अपने को आबद्ध बनाता है यद्यपि कि उसका नाम ऊपरवाल के रूप में नामित नहीं है।

    धारा 34 के अधीन जहाँ कि विनिमय पत्र में कई ऐसे ऊपरवाल हैं, जो भागीदार नहीं हैं, वहाँ उनमें से हर एक उसे अपने लिए प्रतिगृहीत कर सकता है, किन्तु उनमें से कोई भी उसे किसी दूसरे के लिए उसके प्राधिकार के बिना प्रतिगृहीत नहीं कर सकता है।

    प्रतिगृहीता - धारा 7 के अनुसार जब किसी विनिमय पत्र का ऊपरवाल इसे प्रतिगृहीत करता है, विनिमय पत्र का प्रतिगृहीता बन जाता है। जहाँ विनिमय पत्र ऊपरवाल या जिकरीवाल से प्रतिगृहीत नहीं होता है, अनादृत हो जाता है। प्रतिग्रहण का कार्य विनिमय पत्र के पक्षकारों के बीच संविदा संसर्ग सृजित करना है। बिना प्रतिग्रहण के संविदा संसर्ग उत्पन्न नहीं होता है।

    एक विधिमान्य प्रतिग्रहण के लिए यह आवश्यक है कि इसे विनिमय पत्र पर ऊपरवाल द्वारा लिखा एवं हस्ताक्षरित होना चाहिए। ऐसा प्रतिग्रहण आत्यन्तिक एवं बिना शर्त के होना चाहिए। एक सशर्त एवं विशेषित प्रतिग्रहण को विनिमय पत्र का अनादर माना जा सकता है और वे पक्षकार जो ऐसे प्रतिग्रहण पर अपनों सहमति नहीं देते हैं अपनी आबद्धता से विनिमय पत्र के अधीन उन्मुक्त हो जाते हैं।

    धारा 83 ऊपरवाल को यह विचार करने के लिए कि वह विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत करे अथवा नहीं लोक अवकाश दिनों को छोड़कर 48 घण्टे पाने अनुज्ञात करती है।

    विनिमय पत्र के सामने या पृष्ठ पर ऊपरवाल द्वारा प्रतिगृहीत" शब्द को लिखकर उसके नीचे हस्ताक्षर करना प्रतिग्रहण करने का सामान्य प्ररूप होता है। "प्रतिगृहीत" शब्द के बिना केवल हस्ताक्षर भी एक विधिमान्य प्रतिग्रहण होता है।

    जगजीवन बनाम रणछोड़दास के मामले में यह धारित किया गया है कि प्रतिग्रहण के लिए विधि कोई विशेष प्रारूप विहित नहीं करती है। अभिस्वीकृति को प्रतिग्रहण मानने में कोई कठिनाई नहीं है, परन्तु इसे अधिनियम की धारा 7 की अपेक्षाओं को सन्तुष्ट किया जाना चाहिए अर्थात् इसे विनिमय पत्र पर एवं आवश्यक रूप से हस्ताक्षरित होना चाहिए।

    जहाँ ऊपरवाल विनिमय पत्र पर प्रतिगृहीत' बिना हस्ताक्षर के लिखता है तो यह प्रतिग्रहण नहीं होगा। यंग बनाम क्लोवर के मामले में यह धारित किया गया है कि विनिमय पत्र के पृष्ठ पर हस्ताक्षर करना विधि में प्रयाप्त होगा। विनिमय पत्र पर न कि मौखिक लिखा जाना आवश्यक है।

    खुशहालदास के प्रकरण में प्रतिवादी का हस्ताक्षर विनिमय पत्र की प्रति पर किया गया था यह माना गया कि धारा 7 की सारवान् अपेक्षा को पूरा नहीं किया गया था नतीजतन वहाँ कोई विधिमान्य प्रतिग्रहण नहीं था।

    यदि ऊपरवाल विनिमय पत्र को प्रतिग्रहण से मना कर देता है, वहाँ पाने वाला या किसी अन्य धारक द्वारा उस पर वाद नहीं लाया जा सकेगा भले ही लेखीवाल की निधि उसके पास है और केवल ऐसी निधि का प्रतिग्रहण, विनिमय पत्र का प्रतिग्रहण मान्य नहीं होगा

    वचन पत्र का प्रतिग्रहण एक वचन पत्र में प्रतिग्रहण अपेक्षित नहीं होता है। इस प्रकार एक वचन पत्र जिसमें ऊपरवाल का कोई उल्लेख नहीं है, किसी अन्य पक्षकार द्वारा उसे प्रतिगृहीत किया जाता है, विनिमय पत्र में परिवर्तित हो जाता है।

    एक व्यक्ति जो ऐसा प्रतिग्रहण कर्ता के अधीन अपने को ऊपरवाल की स्वीकृति देता है और इसके अधीन ऊपरवाल के रूप में आबद्ध बन जाता है, यद्यपि कि उसे ऊपरवाल के रूप में उल्लेख नहीं है। प्रतिग्रहीता जिसने प्रतिग्रहण किया है, यह कहने से रोक दिया जाएगा कि वह ऊपरवाल नहीं है

    परिदत्त किया जाना- एक प्रतिग्रहण उस समय तक पूर्ण एवं आबद्धकारी नहीं होगा जब तक ऊपरवाल प्रतिगृहीत विनिमय पत्र धारक को परिदत्त न कर दे या ऐसे प्रतिग्रहण की सूचना पाने वाला या धारक या उसकी ओर से किसी व्यक्ति को न दे दे।

    अतः जहाँ ऊपरवाल एक समय विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत करने के आशय से प्रतिग्रहीता लिखता है, तत्पश्चात् अपना मस्तिष्क बदल देता है एवं विनिमय पत्र को धारक को परिदान करने या प्रतिग्रहण की सूचना देने के पूर्व प्रतिग्रहण को मिटा देता है, यह धारित किया गया कि वह प्रतिग्रहण से आबद्ध नहीं था।

    आदरणार्थ प्रतिगृहीता- जब कोई अन्य व्यक्ति किसी विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत करता है, जबकि उसे अप्रतिग्रहण के कारण-

    (1) अनादर के लिए टिप्पण किया गया है, या

    (2) अ-प्रतिग्रहण के लिए प्रसाध्य किया गया है।

    (3) बेहतर प्रतिभूति के लिए टिप्पण और प्रसाक्ष्य किया गया है।

    ऐसे व्यक्ति को एक आदरणार्थं प्रतिगृहीता कहते हैं। इस प्रकार एक व्यक्ति आदरणार्थ प्रतिगृहीता होता है जो विनिमय पत्र के अनादर की टिप्पण की गई है, या प्रसाध्य धारा 99 एवं 100 के अधीन की गयी है या इसे बेहतर प्रतिभूति के लिए धारा 100 के अधीन टिप्पण एवं प्रसाध्य करा दिया गया है, जो इसे प्रतिगृहीत करता है आदरणार्थ प्रतिगृहीता होता है।

    ऐसा प्रतिग्रहण विनिमय पत्र के किसी भी पक्षकार के वास्ते धारक की सहमति से हो सकता है। ऐसा प्रतिगृहता विनिमय पत्र को लेखीवाल के या किसी पृष्ठांक के आदरणार्थ प्रतिगृहीत कर सकेगा। यदि यह लेखीवाल के आदरणार्थ प्रतिग्रहण करता है तो वह विनिमय पत्र के ऊपरवाल का स्थान ग्रहण करता है एवं जहाँ किसी पृष्टांक के आदरणार्थ की दशा में तत्पश्चात् विनिमय पत्र का लेखीवाल का स्थान ग्रहण करता है।

    पाने वाला- धारा 7 में पाने वाला को परिभाषित किया गया है, वह व्यक्ति जिसे या जिसके आदेश पर धन संदय किया जाना लिखत द्वारा निर्दिष्ट हो अत: पाने वाला होने के लिए

    (1) वह व्यक्ति लिखत में निर्दिष्ट है, जिसे धन संदन किया जाना है, या

    (ii) यह व्यक्ति जिसके आदेश पर धन संदत किया जाना है। इस प्रकार एक व्यक्ति जो लेखीवाल द्वारा लिखत में पाने वाला नामित नहीं किया गया है पृष्ठांकृत द्वारा धारक बन जाता है और उसे पाने वाला नहीं कहा जा सकता यद्यपि कि यह लिखत के अधीन धन संदाय पाने का हकदार होता है।

    धाराएं 9, 15 एवं 16 के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि पद "पाने वाला" को सीमित रूप में प्रयुक्त किया गया है, अर्थात् यह व्यक्ति जिसे लेखीवाल ने लिखत के अधीन संदाय पाने अथवा जिसके आदेश पर धन संदत किया जाना है, नामित है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि लिखत के पाने वाला को धारक कहा जा सकता है, परन्तु धारक को पाने वाला नहीं कहा जा सकता है।

    उदाहरण के लिए एक बैंक के लिए लिखा गया है: -

    (1) 'ग' को भुगतान करे

    (2) 'ग' के आदेशानुसार भुगतान करें।

    उक्त दोनों उदाहरणों में 'ग' पाने वाला है। परन्तु जहाँ इस बैंक को 'ग', 'घ' के पक्ष में पृष्ठांकित कर देता है, वहाँ यद्यपि कि ऐसे पृष्ठांकन से 'घ' चेक (लिखत) का धारक बन जाता है, परन्तु पाने वाला नहीं बन सकता है। पाने वाला एवं धारक का यह अन्तर अधिनियम की धारा 138 के लिए सारवान होता है।

    वाहक को देय लिखत- वाहक को देय लिखत जिसमें पाने वाला नामित नहीं है, वहाँ लिखत केवल धारक होगा, पाने वाला नहीं।

    उदाहरण के लिए एक लिखत लिखा गया है:

    (i) 'ग' या वाहक को संदाय करे।

    (ii) वाहक को संदाय करे।

    (i) उदाहरण में 'ग' पाने वाला है, जबकि (ii) उदाहरण में कोई पाने वाला नहीं है। वह व्यक्ति जिसके कब्जे में लिखत है, लिखत का धारक होता है।

    संयुक्तत: या वैकल्पिक पाने वाला— धारा 13 (2) में यह उपबन्धित है कि एक परक्राम्य लिखत दो या अधिक पाने वाले को संयुक्ततः देय रचित की जा सकेगी या वह अनुकल्पतः दो पाने वालों में से एक या कई पाने वालों में से एक या कुछ को देय रचित की जा सकेगी।

    अनुकल्पतः पाने वाला का उदाहरण- (i) 'ग' या 'घ' को संदाय करे।

    संयुक्त पाने वालों का उदाहरण-'ग', 'घ' एवं 'ढ' को संदाय करें।

    (ii) 'ग', 'घ' एवं 'ड' में से किसी एक को संदाय करे।

    कल्पित या बिना अस्तित्व का पाने वाला विनिमय पत्र अधिनियम, 1882 (इंग्लिश) की धारा 7 के अनुसार जहाँ विनिमय पत्र वाहक को देय नहीं है वहाँ पाने वाला आवश्यक रूप से नामित होना चाहिए या अन्यथा रूप में युक्तियुक्त निश्चितता के साथ उसमें इंगित होना चाहिए। जहाँ लिखत का पाने वाला कल्पित व्यक्ति है या बिना अस्तित्व के है तो लिखत को वाहक को देय मानना चाहिए।

    इस प्रकार का कोई प्रावधान भारतीय परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1872 में नहीं है। कल्पित (काल्पनिक) पाने वाला पर उल्लेखनीय वाद इलूटन बनाम एटेनवरों का वाद है।

    इस प्रकरण में नियोजक के क्लर्क ने उसे चेकों पर हस्ताक्षर करने के लिए उकसाया। तत्पश्चात् उसने पाने वाला के हस्ताक्षर की कूटरचना कर कुछ चेकों को मूल्य वास्ते एटेनबरो को अन्तरित किया और उसने उसे धन पा लिया। जब कपट का पता चला क्लट्टन ने एटेनबरो पर जो वह धन प्राप्त किया था उसके लिए वाद लाया। अब एटेनबरो एक कीमत के साथ सद्भावी अन्तरिती था।

    ब्रेट (पाने वाला) के कूटरचित पृष्ठांकन से आदेशित देय चेक के अच्छा स्वत्व के दावे को व्यर्थ बना दिया और उसे क्लटट्न को धन वापसी के लिए बाध्य होना था। परन्तु न्यायालय ने यह धारित किया कि पाने वाला कल्पित व्यक्ति (बिना अस्तित्व) के होने के नाते चेक वाहक को देय थे चूँकि वाहक को देय चेक का पृष्ठांकन चाहे सही हो या कूटरचित हो, स्वीकार नहीं किया जाएगा, एटेनबरो का चेक का स्वत्व स्थापित है, चूँकि वह वाहक को देय चेक का एक कीमत के साथ सद्भावी अन्तरिती था।

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