निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 6 : निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स की परिभाषा

Shadab Salim

8 Sep 2021 1:19 PM GMT

  • निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 6 : निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स की परिभाषा

    परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत पिछले आलेख में चेक की परिभाषा प्रस्तुत गई थी। सभी अधिनियम में अधिनियम से संबंधित शब्दों की परिभाषा धारा 2 या 3 में प्रस्तुत की जाती है परंतु इस अधिनियम में इस प्रकार शब्दोंं की परिभाषा प्रस्तुत नहीं है। जैसेे कि धारा 13 में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स की परिभाषा प्रस्तुत की गई है।

    इस आलेख केेे माध्यम से नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट की परिभाषा पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    परक्राम्य लिखते [ धारा 13 ]

    आधुनिक वाणिज्य को दुनिया में परक्राम्य लिखतों को बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका है। अब यह व्यापारिक आबद्धताओं को पूरा करने एवं भुगतानों के लिए प्रधान लिखतों के रूप में ख्याति प्राप्त कर लिए है। विहित शर्तों के अधीन एक परक्राम्य लिखत अन्तरणीय लिखत होते हैं और अनेकों हाथों में स्वतंत्रता से अन्तरणीय होते हैं एवं इस प्रकार आधुनिक व्यापारिक यंत्रीकरण से अविभाज्य समझे जाते हैं।

    भारत में परक्राम्य लिखतों का प्रावधान परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में प्रावधानित है एवं इंग्लिश विधि में विनिमय पत्रों का अधिनियम, 1882 में अन्तनिहित है। इन विधियों में वचनपत्रों विनिमय पत्रों एवं चेकों से सम्बन्धित सम्पूर्ण विधि का समावेश है।

    परक्राम्य लिखतों की परिभाषा -

    "व्यापारिक एवं मौद्रिक व्यवहारों में मुद्रा के रूप में प्रयुक्त किये जाने वाले कुछ अभिलेखों को परक्राम्य लिखत कहा जाता है।"

    "परक्राम्य लिखत" दो शब्दों से बना है, 'परक्राम्य' एवं 'लिखत' जिसका शाब्दिक अर्थ एक अभिलेख जो परिदान द्वारा अन्तरणीय होता है। दूसरे शब्दों में अभिलेख जिनमें परक्राम्यता की विशेषता होती है। परक्राम्य लिखत कहलाते हैं। अतः लिखत जो परक्राम्य है वे परक्राम्य लिखत है।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 13 परिभाषित करती है "परक्राम्य लिखत" – (1) "परक्राम्य लिखत" से या तो आदेशानुसार या वाहक को देय वचनपत्र, विनिमय पत्र या चेक अभिप्रेत है।

    स्पष्टीकरण (I)- वह वचनपत्र, विनिमय पत्र या चेक आदेशानुसार देय है जिसका ऐसा देय होना अभिव्यक्त हो या जिसका किसी विशिष्ट व्यक्ति को देय होना अभिव्यक्त हो और जिसमें अन्तरण को प्रतिषिद्ध करने वाले शब्द या यह आशय उपदर्शित करने वाले शब्द कि यह अन्तणीय नहीं है, अन्तर्विष्ट न हो।

    स्पष्टीकरण (ii) यह वचनपत्र, विनिमय पत्र या चेक वाहक को देय है जिसमें यह अभिव्यक्त हो कि वह ऐसे देय है या जिस पर एकमात्र या अन्तिम पृष्ठांकन निरंक पृष्ठांकन है।

    स्पष्टीकरण (III) जहाँ कि वचनपत्र, विनिमय पत्र या चेक को या तो मूलतः या पृष्ठांकन द्वारा विनिर्दिष्ट व्यक्ति के आदेशानुसार, न कि उसे या उसके आदेशानुसार देय होना अभिव्यक्त है यहाँ ऐसा होने पर भी वह उसके विकल्प पर उसे या उसके आदेशानुसार सन्देय है।

    (2) एक परक्राम्य लिखत दो या अधिक आदाताओं को संयुक्तत: या इसे दो में से किसी एक के विकल्प पर, या अनेक आदाताओं में से किसी एक या कुछ को देय बनाया जा सकता है।

    इस प्रकार धारा 13 से यह स्पष्ट है कि परक्राम्य लिखत से अभिप्रेत है:

    (i) वचनपत्र, या

    (ii) विनिमय पत्र, या

    (iii) चेक

    जो या तो वाहक को या आदेशित को देय बनाया गया है।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 परक्राम्य लिखतों से सम्बन्धित है और इनको शासित करने को विधि है, परन्तु यह वास्तव में परक्राम्य लिखत को परिभाषित न कर कुछ लिखतों को इसके अन्तर्गत सम्मिलित करती है। परक्राम्य लिखत को विशेषताओं को समझने के लिये वचनपत्र, विनिमय पत्र एवं चेक को विशेषताओं को और उन्हें शासित करने वाली विधि को विस्तार से अध्ययन करना होगा।

    इन लिखतों के कार्य एवं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि परक्राम्य लिखत लेखबद्ध लिखत है जिससे किसी व्यक्ति को एक निश्चित धनराशि प्राप्त करने के लिए अधिकृत किया जाता है और जो व्यक्ति से व्यक्ति को केवल परिदान या पृष्ठांकन एवं परिदान से अन्तरणीय होता है। व्यक्ति जिसे यह अन्तरित किया जाता है यह धनराशि के लिए एवं उसे पुनः अन्तरित करने के लिये हकदार हो जाता है।

    एक इंग्लिश विद्वान के अनुसार-

    एक परक्राम्य लिखत कार्य वस्तु है और जिसका सम्पूर्ण एवं विधिक स्थल केवल लिखत के परिदान (अन्तरक के पृष्ठांकन से) अन्तरणीय होता है नतीजतन लिखत का सम्पूर्ण स्वामित्व एवं सम्पूर्ण सम्पत्ति अन्तरितो की मंशा से स्वतन्त्र अन्तरित हो जाती है बशर्ते कि वह लिखत को सद्भावनापूर्वक एवं प्रतिफल से प्राप्त करता है।

    भारतीय विधि में परक्राम्य लिखत को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, परन्तु यह वचनपत्र, विनिमय पत्र या चेक को परिभाषित करती है।

    मे० डालमिया सोमेन्ट (भारत) लि० बनाम गैलेक्सी ट्रेडर्स एण्ड एजेन्सी लिले में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया है कि-

    "वाणिज्य विधि के संसार में परक्राम्य लिखतों से सम्बन्धित विधि का विधायन व्यापार एवं वाणिज्य के क्रियाओं को सुकर (सुविधा) बनाने के लिए किया गया है और लिखतों एवं साख की पवित्रता बनाने का प्रावधान किया गया है जिसे मुद्रा में परिवर्तनीय समझा जा सकता है और आसानी से एक हाथ से दूसरे हाथ अन्तरणीय होता है। इन लिखतों के अभाव में चेकों को लेते हुए वर्तमान समय में व्यापार एवं वाणिज्यिक क्रियाएं हानिकारक ढंग से प्रभावित होंगी, क्योंकि व्यापारिक समुदाय के लिए प्रवर्तनीय मुद्रा को परिमाण में साथ ले जाना व्यवहारिक नहीं होगा परक्राम्य लिखत वास्तव में साख लिखत होते हैं जो परक्राम्य किए जाने की वैधानिकता से परिवर्तनीय होते हैं एवं सुविधापूर्वक एक हाथ से दूसरे हाथ को अन्तरणीय होते हैं।

    परक्राम्य लिखतों की सारभूत लक्षण परक्राम्य लिखत का होना या न होना उसके सारभूत लक्षणों पर निर्भर करता है, जो निम्नलिखित है-

    (1) लिखत- परक्राम्य लिखत एक लिखत है अतः इसे आवश्यक रूप में लिखत होना चाहिए। यह आवश्यक है कि बैंक, विनिमय पत्र या वचनपत्र लिखित हो। यह टंकित, छपा हुआ या हस्तलिखित हो सकता है। चेक को छोड़कर वचनपत्र या विनिमय पत्र का कोई विहित प्रारूप नहीं है, परन्तु इन्हें इस तरह से लिखा होना चाहिए जिससे इनमें चेक, वचनपत्र या विनिमय पत्र की विशेषताएं सम्मिलित हो। मौखिक वचन का होना पर्याप्त नहीं होगा।

    स्टैम्पिंग – भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की धारा 49 के अनुसार वचनपत्र एवं मियादी विनिमयपत्र सिवाय माँग पर या दिखाने पर, को छोड़कर स्टाम्पित होना चाहिए चेक को स्टॅम्पिंग की आवश्यकता नहीं है। परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 20 भी विवक्षित रूप में यह अपेक्षा करती है कि चेक के सिवाय परक्राम्य लिखतों को स्टाम्पित होना चाहिए।

    (2) परक्राम्यता परक्राम्य लिखत सबसे अधिक सारभूत आवश्यक लक्षण इसकी परक्राम्यता है। सामान्य शब्दों में परक्राम्यता यही अर्थ है जो अन्तरणीयता का होता है। यद्यपि कि दोनों का अर्थ स्वामित्व का अन्तरण अन्तर्ग्रस्त करता है फिर भी परक्राम्यता एवं अन्तरणीयता में मौलिक अन्तर होता है।

    सम्पति अन्तरण से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्त है "नेमो डेट कोड नान हैबेट" अर्थात् कोई भी व्यक्ति अपने से बेहतर स्वत्व अन्तरित नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिये- 'क' एक सोने की अंगूठी पूर्ण कीमत देकर ख से क्रय करता है। 'क' यह नहीं जानता है कि 'ख' ने 'ग' से अंगूठी की चोरी किया है। उत सिद्धान्त के अधीन 'क' को अंगूठी 'ग' को वापस करने के लिए बाध्य किया जाएगा।

    परक्राम्य लिखत इस सिद्धान्त के अपवाद होते हैं। एक व्यक्ति जो परक्राम्य लिखत सद्भावनापूर्वक एवं प्रतिफल सहित प्राप्त करता है, सही स्वामी बन जाता है यद्यपि कि वह इसे किसी चोर या पाने वाले व्यक्ति से प्राप्त किया है।

    विलिस के शब्दों में" परक्राम्य लिखत एक है जिसकी सम्पत्ति उस व्यक्ति के द्वारा अर्जित की जाती है जो उसे सद्भावनापूर्वक प्रतिफल सहित प्राप्त करता है, बावजूद कि जिससे प्राप्त किया है उसके स्वत्व में कोई दोष था।"

    परक्राम्यता का सबसे बड़ा तत्व है कि अपने ही आचरण से न कि अन्य के आचरण से सम्पति को अर्जित करने से होता है। यदि कोई इसे सद्भावनापूर्वक एवं प्रतिफल सहित प्राप्त करता है तो उसे कोई इससे वंचित नहीं कर सकता है।

    राफेल बनाम बैंक ऑफ इंग्लैण्ड इस प्रतिपादन प्राधिकारी है। कुछ बैंक नोट्स लूटपाट में चोरी हो गये थे। बैंक ने तुरन्त बुराए गए नोटों की सूची तैयार कर वितरित किया। वादी जो पेरिस में एक मुद्रा बदलने वाला था, ने भी इसकी एक सूची प्राप्त किया। इस सूचना के प्राप्ति को 12 माह के पश्चात् वादी के पास एक व्यक्ति बैंक ऑफ इंग्लैण्ड को नोट बदलने के लिये आया।

    वादी को इस सूचना का ध्यान नहीं था और इसे पूर्ण रूप से भूलते हुए नोटों को नकदीकरण किया। नोट चोरी किये गये नोट थे। यह धारित किया गया कि वादी जिसने नोटों को सद्भावनापूर्वक लिया था, उसके भुगतान का हकदार था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह असावधान था, परन्तु उसने इमानदारी से कार्य किया था।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 14 परक्राम्यता को परिभाषित करती है एवं धारा 15 एक लिखत को कैसे परक्राम्य किया जा सकता है, का प्रावधान करती है जिसे परक्राम्यता के अध्याय में विस्तार से स्पष्ट किया गया है।

    अतः लिखत जिसमें यह विशेषता नहीं होती उसे परक्राम्य लिखत नहीं कहा जा सकता है।

    (3) मुद्रा भुगतान की संविदा परक्राम्य लिखत में एक निश्चित धनराशि (मुद्रा) भुगतान करने की संविदा अन्तर्निहित होती है। वचनपत्र में एक निश्चित धनराशि भुगतान करने का वचन होता है एवं विनिमय पत्र या चेक की दशा में एक निश्चित धनराशि भुगतान करने का आदेश होता है। इस प्रकार परक्राम्य लिखत की विषय सामग्री मुद्रा भुगतान करने की होती है। लिखत की इस प्रकार की सम्पत्ति जिसे इसका धारक इसे प्राप्त करने या वसूल करने के लिए देय पक्षकार से हकदार होता है।

    एक चेक विदेशी मुद्रा में लिखा जा सकता है और ऐसी दशा में भुगतान उपस्थापना करने के समय के प्रचलित विनिमय दर से किया जाएगा।

    (4) बेहतर स्वत्व का अर्जन परक्राम्य लिखत की प्रकृति के अनुसार इसका धारक एक बेहतर हक प्राप्त करता है उस व्यक्ति से जिसका स्वत्व दोषपूर्ण है या स्वत्व नहीं है या ऐसे व्यक्ति से जो चोर है या लिखत को पाने वाला है, बशर्ते कि धारक ने इसे-

    (1) सविश्वास पूर्वक।

    (ii) प्रतिफल सहित।

    (iii) अन्तरक के हक में कोई दोष है, के जानकारी के बिना प्राप्त किया है। यहाँ तक कि एक सम्यक् अनुक्रम धारक का स्वत्व अन्तरक के स्वत्व के दोष या इसके किसी पूर्ववर्ती पक्षकार के स्वत्य में कोई दोष था, प्रभावित नहीं होता है।

    (5) विधिक स्वामित्व - परक्राम्य लिखत का धारक लिखत का विधिक स्वामी बन जाता है और ऐसा धारक

    (1) अपने नाम से लिखत के कब्जे का हकदार होता है,

    (2) इसे परक्राम्य करने का हकदार होता है, और

    (3) अपने नाम से लिखत में दावे को प्रवर्तनीय कराने का हकदार होता है।

    ( 6 ) परक्राम्य लिखत आदेशित या वाहक को देय हो सकता है।

    ( 7 ) प्रतिफल – चूँकि परक्राम्य लिखत एक निश्चित धनराशि भुगतान करने की संविदा करता है, अत: एक विधिसम्मत संविदा के समर्थन के लिए प्रतिफल का होना आवश्यक होता है। लिखतों के सम्बन्ध में प्रतिफल की उपधारणा होती है।

    अधिनियम की धारा 118 (क) में यह उबन्धित है कि प्रत्येक परक्राम्य लिखत जब यह प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित परक्राम्य या अन्तरित किया जाता है तो ऐसा प्रतिग्रहण, पृष्ठांकन, परक्रामण या अन्तरण प्रतिफल से किया गया है परन्तु वह उपधारणा खण्डनीय होती है। तातोपमुला नागराजू बनाम पैटेम पदमावती के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि टेम्परड वचनपत्र में जहाँ वादी की ओर से प्रतिफल नहीं है, प्रतिवादी को आबद्ध धारित नहीं किया जा सकता है।

    प्रतिफल की उपधारणा का खण्डन प्रतिफल को विद्यमानता की सांविधिक उपधारणा होता है। इसका अर्थ है कि यह उपधारित है कि जब कोई लिखत लिखा, प्रतिगृहीत परक्रामित या अन्तरित किया है तो यह प्रतिफल के लिये किया जाता है। व्यक्ति जो यह कहता है कि प्रतिफल नहीं है, इसे साबित करने की आबद्धता उस पर होती है कि उक्त कार्य बिना प्रतिफल के किए गए हैं। ऐसे मामलों में पुनः बाध्य दूसरे पक्षकार पर आ जाता है कि वह साबित करे कि प्रतिफल था। यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है, यह माना जाएगा कि प्रतिफल नहीं था।

    विजय किशोर बनाम पेट्टा ब्रह्मानन्द राजे के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय महत्वपूर्ण है। इस मामले में यह अभिकथित था कि लेखक (प्रतिवादी प्रत्यर्थी) ने क से (लेनदार) 27,500 रु० कर्ज लेकर 19-9-90 को एक वचनपत्र लिखा 24% की दर से ब्याज के साथ उक्त राशि चुकाने का वचन दिया और इसे क ने अपीलकर्ता (के० वी० किशोर) को 18-10-90 को पृष्ठांकित किया।

    अपने प्रत्यर्थी (लेखक) पर वचनपत्र के पृष्ठांकन के आधार पर उसके वसूली के लिए वाद लाया। अपीलार्थी का कथन था कि प्रत्यर्थी ने 27,500 रु० का कर्ज 'क' से लिया और एक वचनपत्र निष्पादित किया जिसे अपीलार्थी ने पृष्ठांकन द्वारा 27,500 रु० प्रतिफल के लिए प्राप्त किया था। वचनपत्र की धनराशि की बार-बार माँग करने पर भी लेखक ने भुगतान नहीं किया।

    अपीलकर्ता उन परिस्थितियों जिसके अधीन वचनपत्र लिखा गया था उसका स्पष्टीकरण देने में असमर्थ रहा। सबसे ऊपर के प्रत्यर्थों की कर्ज देने की क्षमता स्थापित नहीं हो सकी। क की आर्थिक स्रोत और कहाँ से और कैसे उसने सम्बन्धित धनराशि की व्यवस्था की थी, जबकि यह एक साधारण चिट फण्ड में एक क्लर्क था।

    समुचित रूप में जवाब देने में असमर्थ रहा था। न्यायालय का मानना था कि वचनपत्र का एवं प्रतिफल का भुगतान साबित नहीं हो सका है। अतः विचारण न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया और उच्च न्यायालय में अपील होने पर अपोल उन्हीं आधारों पर खारिज कर दिया।

    कुन्दन लाल रालाराम बनाम कस्टोडियन इवैकुई प्रापटॉ, बाम्बे में यह निर्णत किया गया है कि परक्राम्य लिखत निष्पादित या पृष्ठांकित बिना प्रतिफल के किया या पृष्ठांकित किया गया है, को साबित करने का भार लेखक/पृष्ठांकितो की होती है।

    के० पी० ओ० मोईदीन हाजी बनाम पप्पू मंजूरन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि अधिनियम की धारा 118 (क) के अधीन यह उपधारणा होती है कि जब तक प्रतिफल साबित न हो, यह उपधारित की जाएगी कि प्रत्येक लिखत प्रतिफल के लिए लिखा गया है। जहाँ किसी वचनपत्र के निष्पादन की स्वीकृति है, धारा 118 (क) के अधीन प्रतिफल को उपधारणा की जाती है।

    केदार सिंह बनाम भगवान सिंह में भी यह धारित किया गया है कि धारा 118 के अधीन यह उपधारणा को जाती है कि परक्राम्य लिखत जब तक कि प्रतिकूल साबित न हो प्रतिफल से समर्थित होता है।

    विशम्भर दयाल बनाम विश्वनाथ अग्रवाल में यह धारित किया गया है कि यह उपधारणा कि वचनपत्र प्रतिफल सहित लिखा गया है केवल इस आधार पर निष्फल नहीं करेगा कि दिखाया गया प्रतिफल वचनपत्र में इंगित प्रतिफल के समान नहीं है।

    बेनी माधव नाथ बनाम जुबान में यह धारित किया गया है कि परक्राम्य लिखत के निष्पादन की स्वीकृति धारा 115 (क) के अधीन प्रतिफल की उपधारणा को प्रबल उपधारणा उत्पन्न करता है यद्यपि कि यह उपधारणा खण्डनीय है।

    ए० वी० मुर्ची बनाम बी० एस० नागबसवन्ना के मामले में अधिनियम की धारा 118 (क) के विस्तार पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। मामले के प्रभाव की सराहना के लिए मामले के तथ्यों का वर्णन करना आवश्यक है।

    अपीलकर्ता (बैंक का धारक) मजिस्ट्रेट के समक्ष एक परिवाद लाया कि प्रत्यर्थी ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1891 की धारा 138 के अधीन दण्डनीय अपराध कारित किया है। अपीलकर्ता का कथन था कि उसने एवं उसके दो मित्रों ने चार वर्ष पूर्व प्रत्यर्थी को पेट्रोल पम्प खोलने के लिए 7.5 लाख रुपए ऋण दिये थे और प्रत्यर्थी ने इस धनराशि को वापस नहीं लौटाया, परन्तु अपीलकर्ता के अनुरोध पर प्रत्यर्थी ने एक चेक उसे जारी किया जो बैंक ने "खाता बन्द" टिप्पण के साथ अनादूत कर दिया।

    सांविधिक सूचना के पश्चात् प्रत्यर्थी चेक धनराशि का भुगतान नहीं किया अतः यह परिवाद किया गया। प्रत्यर्थी का यह कथन था कि चेक 4 वर्ष पूर्व दिये गए ऋण के बाबत चेक जारी किया गया था जो एक प्रवर्तनीय ऋण या आबद्धता नहीं था जिससे यह वाद पोषणीय नहीं है। विद्वान मजिस्ट्रेट ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध समन जारी किया।

    प्रत्यर्थी ने अपर जनपद न्यायाधीश, मैसूर के समक्ष आपराधिक रिवीजन दाखिल किया। न्यायालय ने प्रत्यर्थी के कथन को स्वीकार करते हुए सम्पूर्ण कार्यवाही को रद्द कर दिया। अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय में आपराधिक रिवीजन प्रस्तुत किया। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को मान्य किया, अतः उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।

    उच्चतम न्यायालय ने अपील को मान्य करते हुए यह धारित किया कि सत्र न्यायाधीश एवं उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने याचिका को खारिज करने में धारा 118 (क) के अधीन भूल की है कि क्योंकि रूप की आबद्धता की धारा 118 (क) में उपधारणा है जब तक कि इसके विरुद्ध यह साबित न कर दिया जाए, क्योंकि धारक ने चेक को धारा 138 के अनुक्रम में ऋण एवं आबद्धता के लिये प्राप्त किया था।

    संविदा अधिनियम की धारा 25 (3) के अधीन भी यह एक विधिमान्य संविदा था साथ ही साथ प्रत्यर्थी ने अपने खातों में प्रत्येक वर्ष इसे ऋण के रूप में दिखाया है जो ऋण की अधिस्वीकृति भी है और याची अद्यतन को अभिस्वीकृति से परिसीमा अवधि रखता है।

    इस प्रकार चेक किसी ऋण एवं आबद्धता के लिये लिखा गया का मामला नहीं है, जो विधि के अधीन होने से पूर्ण वर्जित है। उदाहरण के लिए जहाँ एक चेक प्रथम संविदा के अधीन किसी ऋण या आबद्धता के लिये लिखा गया है, यह कहा जाएगा कि चेक किसी ऋण एवं आबद्धता के लिए नहीं लिखा है क्योंकि यहाँ पर दावा विधि के अधीन वर्जित है।

    यह मामला उस प्रकार का मामला नहीं है। परन्तु प्रक्रिया के इस प्रक्रम पर हम यह कहने के लिए निश्चित हैं कि प्रत्यर्थी द्वारा लिखा गया चेक किसी ऋण एवं आबद्धता के लिये नहीं है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं था, स्पष्टतः अविधिक एवं भ्रामक है।

    पुनः विजय शंकर राय बनाम सुजीत अग्रवाला में यह धारित किया गया है कि अभिलेखों के साक्ष्य से यह साबित है कि प्रतिवादियों द्वारा किसी एक प्रतिवादी के विवाह के लिए ऋण लिया गया था प्रतिवादी द्वारा नोट पर अपने हस्ताक्षर का प्रत्याख्यान करने के लिए साक्ष्य बाक्स में उपस्थित न होना हस्तलिखित नोट का सबित होना- यह एक वचनपत्र था जिसके अन्तर्गत प्रतिवादी द्वारा वादी से लिए गए ऋण का माँग पर संदाय करने का वचन था। जब वचनपत्र का निष्पादन साबित हो जाता है, न्यायालय के पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता सिवाय इसके कि वचनपत्र में लिखित प्रतिफल एवं तिथि जिस पर लिखा गया है, साबित माने।

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