निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 36: चेक अनादर के मामलों का संक्षिप्त विचारण (धारा 143)

Shadab Salim

30 Sept 2021 8:00 PM IST

  • निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 36: चेक अनादर के मामलों का संक्षिप्त विचारण (धारा 143)

    परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत धारा 142 धारा 138 के संज्ञान के संदर्भ में प्रक्रिया विहित करती है और अगली ही धारा 143 धारा 138 के अंतर्गत होने वाले चेक अनादर के अपराध के विचारण को संक्षिप्त विचारण के रूप में निपटाने का निर्देश उपलब्ध करती है। ॉ

    इस आलेख के अंतर्गत इस ही धारा 143 जो संक्षिप्त विचारण का उल्लेख कर रही है पर विवेचन किया जा रहा है।ॉ

    धारा-143:-

    चेकों के अनादरण को अपराध के रूप में अधिनियम में उपबन्धित करने के बाद चेक अनादरण के मामलों में वृद्धि हुई। धारा 138 के अधीन परिवादों की संख्या में इतनी अधिक संख्या में वृद्धि हो गई कि न्यायालयों को इन्हें युक्तियुक्त समय में सम्भालना असम्भव सा हो गया और इसका न्यायालयों के आपराधिक के सामान्य कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा।

    अतः कुछ और अनुतोषीय उपाय को लाना आवश्यक हो गया और विधायिका ने अधिनियम में संशोधन द्वारा दो प्रावधान जोड़ा है।

    (i) संक्षिप्त विचारण का प्रावधान, धारा 143 के अधीन।

    (ii) अपराध को शमनीय बनाना धारा 147 के अधीन।

    संक्षिप्त विचारण- अधिनियम की धारा 143 चेकों के अनादरण के मामलों को संक्षिप्त विचारण करने का उपबन्ध करती है। अधिनियम के अधीन ऐसे सभी अपराधों का विचारण प्रथम संवर्ग के मजिस्ट्रेट या मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा।

    संक्षिप्त विचारण के होने पर भी मजिस्ट्रेट के लिए यह विधिपूर्ण होगा कि वह एक वर्ष से अनधिक कारावास या 10,000 रुपए से अनधिक जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा।

    पर जहाँ विचारण के दौरान मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि मामले में दण्ड एक वर्ष से अधिक का कारावास होना चाहिए एवं संक्षिप्त विचारण करना अवांछनीय होगा, वह पूर्ण विचारण का आदेश करेगा एवं साक्षियों का पुनः परीक्षण करेगा। इस धारा के अधीन मामले का विचारण दिन-प्रतिदिन के आधार पर जारी रखेगा।

    जब तक कि न्यायालय लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से विचारण स्थगित किया जाना आवश्यक नहीं समझता है। इस धारा के अधीन प्रत्येक विचारण यथासम्भव शीघ्रता से किया जाएगा। मजिस्ट्रेट को आबद्धता है कि विचारण को परिवाद फाइल करने की तिथि से छह मास के भीतर समाप्त करने का प्रयास करेगा।

    उच्चतम न्यायालय ने संक्षिप्त विचारण के सिद्धान्त को इण्डियन एसोसिएशन ऑफ बैंक बनाम भारत संघ के मामले में स्पष्ट किया है। धारा 143 न्यायालय को चेक के अनादरण के मामले को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 262-265 के अनुसार संक्षिप्त विचारण करने के लिए सशक्त करती है।

    अधिनियम की धारा 143 संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा अन्तःस्थापित करती है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में किसी बात के होते हुए भी परक्राम्य लिखत अधिनियम के अध्याय 18 के अधीन सभी अपराधों का विचारण जुडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा संक्षिप्त तौर पर किया जाएगा और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा -265 में विहित संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया प्रयोज्य होगी और मजिस्ट्रेट के लिए यह विधिपूर्ण होगा कि वह एक वर्ष से अनधिक कारावास का दण्ड एवं 5,000 रु० से अधिक का जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा।

    यहाँ यह पुनः उपबन्धित किया गया है कि संक्षिप्त विचारण के दौरान यदि यह मजिस्ट्रेट को प्रतीत होता है कि मामले की प्रकृति यह अपेक्षित करती है कि एक वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दण्डादेश पारित किया जा सकता है और किसी अन्य कारण से मामले का संक्षिप्त विचारण करना अवांछनीय होगा तो मजिस्ट्रेट पक्षकारों को सुनने के पश्चात् उस आशय का आदेश अभिलिखित करेगा और तत्पश्चात् ऐसे किसी साक्षी को वापस बुलाएगा जिसकी परीक्षा की जाँच की जा चुकी है और उक्त संहिता में उपबन्धित रीति से मामले को सुनने या पुनः सुनने के लिए अग्रसर होगा।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 143 न्यायालय को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 262-265 के उपबन्धों के अनुसार चेकों के अनादरण के मामलों को संक्षिप्त विचारण के लिए सशक्त करती है।

    धारा 143 के अधीन मजिस्ट्रेट की उन्मोचन करने की विवक्षित शक्ति मे० मीटरस एण्ड इन्स्ट्रूमेन्टल (प्रा०) लि० बनाम कंचन मेहता, उच्चतम न्यायालय ने जी० वी० वहरूनी एवं माण्डवी को आपरेटिव बैंक बनाम निमेश बी० ठाकोर के मामले में प्रतिपादित विधि सिद्धान्त का अनुसरण किया है कि 2002 के पश्चात् सांविधिक योजना अधिनियम की धारा 143 के अधीन मजिस्ट्रेट को अभियुक्त को उन्मोचित करने की विवक्षित शक्ति प्रदान करना है यदि परिवादी को न्यायालय के समाधान में प्रतिकर संदत्त कर दिया जाता है जहाँ अभियुक्त परिवादी को न्यायालय द्वारा निर्धारित ब्याज़ सहित चेक धनराशि एवं वाद व्यय का निवेदन करता है।

    न्यायालय को परिवादी एवं अभियुक्त के अधिकारों एवं न्याय के सम्बर्द्धन में सन्तुलन बनाना होता है। विधि का मूल उद्देश्य चेक संव्यवहार के विश्वसनीयता को परिवादी को त्वरित न्याय देकर अभियुक्त को दण्डित किये बिना, बढ़ाना है जिसका आचरण युक्तियुक्त है या जहाँ परिवादी को प्रतिकर देना न्यायपूर्ण हो जाता है। धारा 143 के अधीन इसमें अन्तर्निहित विवक्षित शक्तियों का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट समुचित आदेश पारित कर सकेगा।

    संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया-परक्राम्य लिखत अधिनियम के इस अध्याय के अधीन विचारण में दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन समन मामलों की विहित प्रक्रिया अपनायी जाएगी।" संक्षिप्त विचारण में मजिस्ट्रेट को एक वर्ष से अनधिक कारावास या 10,000 रुपए जुर्माना का दण्डादेश देना विधिमान्य होगा।

    प्रत्येक संक्षिप्त विचारण के मामले में, मजिस्ट्रेट जैसा राज्य सरकार निर्देशित करे निम्नलिखित विवरण को विहित फार्म में रखेगा, अर्थात् :-

    (i) मामले का क्रम संख्या,

    (ii) अपराध कारित करने की तिथि,

    (iii) परिवाद को रिपोर्ट करने की तिथि,

    (iv) परिवादी का नाम (यदि कोई है),

    (v) अभियुक्त एवं उसके पिता का नाम एवं पता,

    (vi) परिवादित अपराध और साबित अपराध एवं धारा 260, दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपधारा (1) के खण्डों (ii). (iii). या (iv) के अधीन आने वाले मामले, सम्पत्ति का मूल्य जिसके सम्बन्ध में अपराध किया गया है।

    (vii) अभियुक्त का अभिवाक्।

    (viii) मामले का निष्कर्ष, परीक्षण,

    (ix) दण्डादेश एवं अन्य अन्तिम आदेश।

    (x) कार्यवाही समाप्त होने की तिथि।

    संक्षिप्त विचारण में निर्णय-प्रत्येक संक्षिप्त विचारण के मामले में जहाँ अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक् नहीं करता है, मजिस्ट्रेट साक्ष्य के सार को और निष्कर्ष के कारणों का संक्षिप्त उल्लेख के साथ निर्णय को अभिलिखित करेगा।

    मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 138 के अधीन अपनायी जाने वाली प्रक्रिया-परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 से सम्बन्धित मामलों में विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा अपनायी जाने वाली प्रक्रिया के सम्बन्ध में अनेकों निर्देश दिए गए हैं जिसमें से कुछ प्रमुख रूप में हैं :-

    (1) मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट/जुडिशियल मजिस्ट्रेट (MM/JM) उस दिन जब धारा 138 के अधीन कोई परिवाद प्रस्तुत किया जाता है, परिवाद का और यदि परिवाद शपथपत्र के साथ है जो शपथपत्र एवं अभिलेखों की जाँच करेगा और यदि वह सब सही पाता है, तो संज्ञान लेगा एवं समन जारी करने का निर्देश देगा।

    (2) MM/JM एक व्यवहारिक एवं सही तरीका समन जारी करने में अपनाएगा। समन आवश्यक रूप में परिवादी से प्राप्त पते पर समुचित रूप से लिखे पते पर डाक द्वारा या ई-मेल द्वारा भेजेगा। समुचित मामलों में न्यायालय पुलिस या समीप के न्यायालय का भी सहयोग ले सकेगा। उपस्थिति के लिए एक संक्षिप्त तिथि निर्धारित की जाएगी। यदि समन बिना तामीली के वापस आती है तो तुरन्त की जाने वाली कार्यवाही की जाएगी।

    (3) न्यायालय समन में यह निर्देशित करेगा कि यदि अभियुक्त मामले की प्रथम सुनवाई पर अपराध के शमन के लिए आवेदन करता है, शीघ्रता से न्यायालय समुचित आदेश पारित करेगा।

    (4) न्यायालय अभियुक्त को निर्देशित करे जब वह विचारण के दौरान अपनी उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए बेल बाण्ड देने के लिये उपस्थित होता है, तो उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 251 के अधीन सूचना प्राप्त करे जिससे वह अपनी प्रतिरक्षा का बचाव कर सके और प्रतिरक्षा साक्ष्य के लिए तिथि निर्धारित कर सके जब तक कि दं० प्र० सं० की धारा 145 (2) के अधीन अभियुक्त द्वारा साक्षियों की प्रतिपरीक्षा के लिए पुन: बुलाने का आवेदन न करे।

    (5) न्यायालय इस बात को अवश्य सुनिश्चित करे कि मामला निर्दिष्ट करने के तीन माह के भीतर परिवादी को मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा एवं पुनः परीक्षा को सम्पन्न हो जाए।

    न्यायालय को साक्षियों को न्यायालय में परीक्षण के स्थान पर उनका शपथ स्वीकार करने का विकल्प होगा। न्यायालय का जो भी निर्देश हो उसके अनुसार परिवादी के साक्षी एवं अभियुक्त प्रतिपरीक्षा के लिए उपलब्ध रहेंगे।

    धारा-143(क):-

    परक्राम्य लिखत अधिनियम में प्रतिकर के संदाय के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं था। 2018 में संशोधन के द्वारा इस सम्बन्ध में धारा 143-क अन्तरिम प्रतिकर का प्रावधान किया गया है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 (3) का सन्दर्भ यहाँ लिया जाता है।

    धारा 143 - क के प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों पर अधिभावी प्रभाव रखते हैं। कब अन्तरिम प्रतिकर [ धारा 143 क (1) ] - धारा 138 के अधीन अपराध का विचारण करने वाला न्यायालय चेक के लेखीवाल को,

    (क) संक्षिप्त विचारण या समन मामले में जहाँ परिवाद में उसने किए गए अभियोग का दोषी नहीं होने का अभिवाक् किया हो, एवं

    (ख) अन्य किसी मामले में आरोप विरचित किए जाने पर परिवादी को अन्तरिम प्रतिकर का संदाय करने का आदेश कर सकेगा।

    अन्तरिम प्रतिकर की धनराशि : [ धारा 143 क (2) ] - अन्तरिम प्रतिकर चेक रकम के 20% से अधिक नहीं होगी।

    संदाय की समय-सीमा : [ धारा 143-क (3) ] - अन्तरिम प्रतिकर को जारी आदेश के तारीख से 60 दिन के भीतर या चेक के लेखीवाल द्वारा पर्याप्त कारण दर्शित किए जाने की तिथि पर 30 दिन से अधिक की ऐसी और अवधि के भीतर जिसका न्यायालय द्वारा निर्देश दिया जाए, संदाय किया जाएगा।

    जहाँ लेखीवाल दोषमुक्त किया जाता है:

    [ धारा 143 क (4)]-जहाँ चेक का लेखीवाल धारा 138 के अधीन अपराध से दोषमुक्त किया जाता है, वहाँ न्यायालय परिवादी को प्रतिकर की अन्तरिम रकम लेखीवाल को आदेश की तारीख से 60 दिन के भीतर या जहाँ परिवादी द्वारा पर्याप्त कारण दर्शित किए जाने पर तीस दिन से अनधिक की ऐसी और अवधि के भीतर जिसका न्यायालय द्वारा निर्देश दिया जाए ब्याज सहित प्रतिसंदाय का निदेश देगा।

    धारा 143क के अधीन अन्तरिम प्रतिकर भविष्यलक्षी है- जी० जी० राजा बनाम तेजराज सुराना, के मामले में उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय था कि धारा 143क भविष्यलक्षी प्रवर्तनीय है और यह कि धारा 143क के प्रावधान केवल वहाँ लागू किया जा सकेगा जहाँ धारा 138 के अधीन अपराध धारा 143क के संविधि बुक में स्थापित होने के बाद किये गये हैं।

    इस मामले में धारा 138 के अधीन परिवाद 4-11-2016 को किया गया था, जबकि धारा 143क का संशोधित प्रावधान 1-9-2018 से प्रभावी बनाया गया था। अतः परीक्षण न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश अपास्त किया जाए एवं इस न्यायालय द्वारा अन्तरिम निर्देश के अधीन जमा धनराशि को ब्याज सहित अपीलकर्ता को वापस किया जाए।

    परीक्षण न्यायालय ने चेक धनराशि का 15% धारा 143क के अनुसार अभियुक्त/अपीलकर्ता द्वारा परिवादी/प्रत्यर्थी को अन्तरिम प्रतिकर भुगतान करने का आदेश किया। उच्च न्यायलय ने अपील में मान्य किया अतः उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।

    जी० जी० राजा के मामले में उच्चतम न्यायालय का सम्प्रेक्षण था कि धारा 143क में अन्तर्विष्ट प्रावधानों के दो आयाम हैं :-

    प्रथम यह कि यह धारा अभियुक्त पर यह दायित्व सृजित करता है कि वह परिवादी को चेक धनराशि का 20% भुगतान करने के लिए आदेशित किया जा सकता है। ऐसा आदेश उस समय भी किया जा सकता है जहां परिवाद अन्तिम रूप से निर्णीत नहीं किया गया है।

    द्वितीय यह कि इस अन्तरिम प्रतिकर को भू-राजस्व के बकाया के रूप में वसूली के यंत्र के रूप में उपलब्ध कराया गया है।

    इस प्रकार यह अभियुक्त पर केवल नई आबद्धता या दायित्व सृजित नहीं करती है, बल्कि ऐसे अन्तरिम प्रतिकर की वसूली के लिए बाध्यकारी तरीके का भी प्रावधान करती है। इस धारा के अधीन अन्तरिम प्रतिकर की वसूली भू-राजस्व बकाए के समान राज्य के यंत्र द्वारा की जा सकती है। बाध्यकारी तरीकों में अभियुक्त को गिरफ्तारी एवं निरोध भी सम्मिलित है।

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