निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 35: चेक के अनादरण के मुकदमे से संबंधित प्रक्रिया (अपराधों का संज्ञान) (धारा 142)
Shadab Salim
30 Sept 2021 3:00 PM IST
परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत धारा 142 धारा 138 में उल्लेखित किए गए अपराध के संज्ञान के संदर्भ में प्रक्रिया विहित करती है। जिस प्रकार धारा 138 एक सहिंता के समान प्रसिद्ध धारा है जो मूल विधि का उल्लेख कर रही है।
इस ही प्रकार यह धारा 142 उस अपराध के संज्ञान से संबंधित विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित करती है। इस आलेख के अंतर्गत इस ही प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया जा रहा है।
धारा 142:- यह धारा 142 धारा 138 के अंतर्गत गठित अपराध के संबंध में प्रस्तुत किए गए परिवाद के संज्ञान की शर्तों को निर्धारित कर रही है।
वह शर्ते निम्न है:-
(1) किसी परिवाद पर।
(2) परिवाद विधिक अवधि एक के अन्दर।
(3) महानगरीय मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष।
किसी अपराध का संज्ञान लेना किसी अपराधी के विरुद्ध न्यायिक कार्यवाही को साशय प्रारम्भ करने या यदि कोई न्यायिक कार्यवाही प्रारम्भ करने का आधार है तो कोई कदम उठाने को सम्मिलित करता है।
(1) परिवाद पर परिवाद मामला- धारा 142 का खण्ड (क) यह स्पष्ट करता है कि कोई न्यायालय धारा 138 के अधीन दण्डनीय किसी अपराध का संज्ञान, चेक के पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम धारक के लिखित परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं।
अतः इस धारा से स्पष्ट है कि धारा 138 के अधीन कार्यवाही एक परिवाद मामला है और इसे-
(i) लिखित में और
(ii) (क) पाने वाला द्वारा, या
(ख) सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा,
अतः एक सामान्य धारक धारा 142 के अधीन परिवाद नहीं ला सकेगा।हालांकि सामान्य विधि के नियमों के अनुसार परिवाद किसी अन्य व्यक्ति जो पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम धारक की ओर से भी परिवाद दाखिल किया जा सकेगा।
परिवाद क्या है- परिवाद मजिस्ट्रेट के द्वारा अपराधी के विरुद्ध कोई कार्रवाई प्रारम्भ करने के लिए मौखिक रूप से या लिखित में किए गए ऐसे अभिकथन को, जो किसी संज्ञेय अपराध के कारित किए जाने के सम्बन्ध में होता है, अन्तर्विष्ट करने वाले आवेदन पत्र के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर अपने दायरे से पुलिस रिपोर्ट अर्थात् चार्जशीट को अपवर्जित करती है।
कौन परिवादी हो सकेगा:-
धारा 142 के अधीन परिवाद दाखिल किया जा सकेगा-
1. पाने वाले द्वारा,
2. सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा (सामान्य धारक द्वारा नहीं),
3. प्रतिनिधि या अभिकर्ता दोनों (1) एवं (2) के द्वारा,
4. अटॉर्नी के धारक द्वारा दोनों (1) एवं (2) के,
5. कम्पनी की दशा में कम्पनी द्वारा किसी अधिकृत व्यक्ति, अटॉर्नी धारक द्वारा।
पावर ऑफ अटॉर्नी के धारक द्वारा विनिता एस० राव बनाम मे० एस्सेन कार्पोरेट सर्विस प्रा० लि० के मामले में उच्चतम न्यायालय का सम्प्रेक्षण था कि धारा 138 के अधीन परिवाद पावर ऑफ अटॉर्नी के धारक द्वारा भी लाया जा सकता है चाहे पावर ऑफ अटॉर्नी समुचित था या नहीं या पावर ऑफ अटॉर्नी प्रस्तुत नहीं किया गया था, के तथ्य को विचारणीय स्तर पर हो उठाया जाना चाहिए न कि उच्च न्यायालय या इससे ऊपर के स्तर की कार्यवाही पर धारा 138 के अधीन परिवाद कम्पनी के लिए।
व्यक्ति द्वारा वाद लाया जा सकता है जो ऐसा करने का प्राधिकार रखता है। ए० सौ० नरायन बनाम महाराष्ट्र राज्यों के मामले में परिवाद कम्पनी के एक कर्मचारी द्वारा जो कम्पनी द्वारा जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी का दावा करने वाला वाद लाया। परिवाद कम्पनी के न तो प्रबन्ध निर्देशक या निदेशक द्वारा हस्ताक्षरित नहीं था।
इसके पश्चात् 'आर' कम्पनी के उपमहाप्रबन्धक कम्पनी की ओर से साक्ष्य प्रस्तुत किया गया, परन्तु उसे कुछ भी जानकारी नहीं थी और न तो अभिलेख पर ऐसा कोई तथ्य था जो यह स्पष्ट करे कि वह प्रबन्ध निदेशक या किसी निदेशक द्वारा प्राधिकृत था। अभियुक्त का दोषमुक्त होना समुचित धारित किया गया। परिवाद बिना हस्ताक्षर के-धारा 142 में परिवाद के सम्बन्ध में केवल यह अपेक्षित किया गया है। कि इसे आवश्यक रूप में लिखित और इस चेक को पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा किया जाना चाहिए।
धारा 142 यह नहीं कहती है कि परिवाद पाने वाला या उसके प्रतिनिधि के द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। यहाँ प्रश्न है कि क्या बिना हस्ताक्षर के परिवाद को न्यायालय देख सकेगा?
इस प्रश्न के उत्तर को उच्चतम न्यायालय ने इन्द्र कुमार पटोदिया बनाम रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लि० के मामले में यह सम्प्रेक्षित किया है :-
"उपरोक्त के अतिरिक्त यह पूर्व में माना हुआ नहीं है कि इसे हस्ताक्षरित होना चाहिए। यह आपराधिक प्रक्रिया संहिता के धारा 2 (घ) से स्पष्ट होता है यह संहिता की धाराओं 61, 70 154, 164, 281 के प्रावधानों से अन्तर करता है। इन धाराओं के अध्ययन से यह दिखता है कि विधायिका ने इसे स्पष्ट किया है कि जहाँ कहीं भी एक लिखित अभिलेख को हस्ताक्षरित अपेक्षित करता है, इसे धारा में स्पष्टतः दिया होना चाहिए, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (घ) एवं इस अधिनियम की धारा 142 में गायब है। यहाँ तक कि सामान्य खण्ड अधिनियम, 1897 से भी अन्तर स्पष्ट है।
उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि धारा 142 के अधीन कोई परिवाद बिना हस्ताक्षर के पोषणीय होगा यदि ऐसा परिवाद परिवादी द्वारा प्रमाणित है एवं प्रमाणीकरण के पश्चात् मजिस्ट्रेट ने प्रक्रिया जारी कर दिया है। इस प्रकार इससे यह स्पष्ट है कि धारा 142 के अधीन परिवाद बिना परिवादी हस्ताक्षर के पोषणीय है।
चेक का क्रेता-
किसी चेक का क्रेता सम्यक् अनुक्रम धारक होता है भले ही उसके पक्ष में पृष्ठांकन न हो और वह परिवाद दाखिल कर सकता है जहाँ बैंक ने कोई चैक क्रय किया है, सम्यक् अनुक्रम धारक हो जाता है एवं धारा 138 के अधीन अभियोजित कर सकेगा।
संयुक्त खाते पर लिखा गया चेक-
जहाँ चेक किसी संयुक्त खाते पर लिखा गया है, केवल चेक का लेखीवाल ही धारा 138 के अधीन दायी होगा जब तक कि चेक पर संयुक्त हस्ताक्षर न हो। यही सिद्धान्त भागीदार फर्म पर भी लागू होगा। ऐसे मामलों में धारा 141 में स्थापित प्रतिनिधिक दायित्व लागू नहीं होगा। यह दाण्डिक विधियों के कठोर निर्वाचन की पुष्टि करता है। अतः एक संयुक्त खाते पर लिखा गया चेक की दशा में एक संयुक्त धारक को अभियोजित नहीं किया जाएगा जब तक कि चेक उनमें से प्रत्येक व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित न हो।
कौन संयुक्त खाता धारक है, के सम्बन्ध में प्रसिद्ध वाद अपर्णा ए० शाह बनाम मे० सेठ डेवलपर्स प्रा० लि है। इस मामले में एक चेक अपीलकर्ता की पति (पत्नी अपर्णा ए० सेठ) मे० सेठ डेवलपर्स के पक्ष में लिखा गया था। चेक के अनादरण होने पर प्रत्यर्थी ने धारा 138 के अधीन अपीलकर्ता की पत्नी पर परिवाद किया।
उच्चतम न्यायालय यह निर्णय था कि खाता के संयुक्त धारक अभियोजित नहीं किए जा सकेंगे जब तक कि चेक उनमें से प्रत्येक व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित न हो। पत्नी के पक्ष में अपील स्वीकृत को गई। पत्नी हालांकि संयुक्त धारक है, दायी नहीं होगी यदि उसने चेक पर हस्ताक्षर नहीं किया है।
श्रीमती नीना चोपड़ा बनाम महेन्द्र सिंह वैश्य में चेक याची के माता के द्वारा उसके स्वयं के दायित्व के उन्मोचन में परिवादी को जारी किया गया था, माता की मृत्यु हो गई। पुत्रों ने चेक पर हस्ताक्षर नहीं किया था जो अनादृत हो गया। पुत्री उत्तरदायी धारित नहीं की गयी। परन्तु यही पुत्र के द्वारा चेक जारी किया गया होता तो वह आबद्ध होती।
मनाली मलिक बनाम रेखा खन्ना में बैंक ने मृतक ऋणी का 5 लाख ऋण साबित किया ऐसे चेक की धनराशि ऋणी एवं उसके पत्नी के संयुक्त खाते में जमा किया गया था। अनादृत चेक पर पत्नी ने अपने पति के हस्ताक्षर को अभिस्वीकृत किया।
बैंक के पक्ष में 5 लाख रुपए पर 7% प्रतिवर्ष ब्याज की दर से पारित डिक्री को युक्तियुक्त एवं न्यायसंगत मान्य किया गया और यह अभिवाक् (Plea) कि चेक पर बैंक का नाम, तिथि, धनराशि के भिन्न लिखावट हैं, धारा 139 की उपधारणा के प्रभाव से चेक अवैध नहीं होता है। ऋण संव्यवहार की अनभिज्ञता को पत्नी द्वारा अभिवाक् किए जाने को बैंक के साक्ष्यों को खण्डित करने के लिए पर्याप्त नहीं माना गया।
चेक के संग्रहण के लिए पृष्ठांकिती- किसी चेक का संग्रहण के लिए पृष्ठांकिती, सम्यक् अनुक्रम धारक नहीं होता है, क्योंकि उसे चेक में कोई हित प्राप्त नहीं होता है।
(2) विधिक अवधि के अन्तर्गत परिवाद-
धारा 142 का खण्ड (ख) यह उपबन्धित करता है कि धारा 138 के अधीन अभियोजन के लिए परिवाद एक माह के अन्दर उस तिथि से जब से धारा 138 के खण्ड (ग) के अधीन वाद हेतुक उत्पन्न होता है। इस धारा के सरल पाठन से यह स्पष्ट है कि एक सक्षम न्यायालय धारा 138 के अधीन अपराध का संज्ञान विहित अवधि (एक माह) के अन्दर लिखित परिवाद पर ही ले सकता है।
सदानन्द भादरन बनाम माधवन सुनील कुमाएँ, के वाद में उच्चतम न्यायालय धारा 142 के अधीन खण्ड (ख) के अर्थ को स्पष्ट करने का अवसर मिला। यह ध्यान में रखने के लिए महत्वपूर्ण है कि 'वाद हेतुक' के सन्दर्भ में धारा 142 (ख) प्रतिबन्धित अर्थ देता है और उसमें यह केवल एक ही तथ्य को सन्दर्भ देता है जो वाद हेतुक के कारण को उत्पन्न करता है और वह है कि धारा 138 के खण्ड (ग) के प्रावधानों के अधीन दी गई सूचना की प्राप्ति की तिथि से 15 दिन के अन्दर संदाय करने में असफल होना, लेखीवाल को उसके द्वारा कारित अपराध के लिए अभियोजन का दायित्व उत्पन्न होता है और इसी तरह एक माह की अवधि की गणना धारा 142 के अधीन परिवाद दाखिल करने के लिए की जाएगी। उक्त दोनों धाराओं के संयुक्त अध्ययन, सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि धारा 142 (ग) के अधीन वाद हेतुक केवल एक बार उत्पन्न होता है।
इस प्रकार धारा 138 (ग) एवं धारा 142 (ख) के संयुक्त पाठन का प्रभाव होता है कि (i) ये वाद हेतुक को केवल एक ही बार अनुज्ञा देते हैं, एवं (ii) हेतुक की कार्यवाही का अन्त अर्थात् परिवाद का एक माह के अवसान के वाद दाखिल करना उस तिथि से जब लेखीवाल उक्त चेक धनराशि को पाने वाले को संदाय करने में 15 दिन के अन्दर असफल रहता है।
इण्डियन बैंक एसोसिएशन बनाम भारत संघ के मामले में न्यायालय को धारा 138 के अधीन संज्ञान लेने में उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण मार्गनिर्देशन दिया है।
वे हैं :-
(1) मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट/जुडीशियल मजिस्ट्रेट (MM/JM) उस तिथि को जब अधिनियम की धारा 138 के अधीन परिवाद प्रस्तुत किया जाता है, परिवाद की जाँच करेगा, यदि परिवाद शपथपत्र के साथ है, और शपथपत्र एवं अभिलेख, यदि कोई हो, ठीक पाए जाते हैं, संज्ञान लेगा और समन जारी करने का निर्देश देगा।
(2) एम०एम० जे० एम० को समन जारी करने में सिद्धांतवादी एवं वास्तविक पहुँच होनी चाहिए। समन समुचित पते के साथ डाक द्वारा साथ ही ई-मेल पते पर भेजा जाना चाहिए। न्यायालय की समुचित मामले में अभियुक्त को सूचना भेजने में पुलिस या समीप के न्यायालयों की सहायता लेनी चाहिए। उपस्थिति के लिए सूचना एक संक्षिप्त तिथि पर निर्धारित की जानी चाहिए। यदि सूचना बिना तामीली के वापस हो, तो उस पर अविलम्ब तुरन्त की कार्यवाही की जानी चाहिए।
(3) न्यायालय समन में इसका संकेत होना चाहिए कि यदि अभियुक्त मामले की प्रथम सुनवाई पर अपराध को शमनीय करने के लिए आवेदन करता है और यदि इसके लिए आवेदन किया जाता है, न्यायालय शीघ्रता से समुचित आदेश पारित कर सकता है।
(4) न्यायालय अभियुक्त को निर्देशित करे, जब वह विचारण के दौरान अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए बन्धपत्र देने के लिए आता है एवं उससे धारा 251 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन अपने बचाव का अभिवाक् करे एवं साक्ष्य बचाव के लिए वाद को निर्धारित करे जब तक कि अभियुक्त द्वारा धारा 145 (2) के अधीन एक साक्षी को प्रतिपरीक्षा के लिए पुनः वापसी के लिए आवेदन किया जाता है।
(5) सम्बन्धित न्यायालय इसे सुनिश्चित करे कि परिवादी की मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा एवं पुनः परीक्षा तीन माह के अन्दर सम्पन्न हो जाय। न्यायालय को यह विकल्प है कि साक्षियों को न्यायालय में परीक्षा करने के स्थान पर उनसे शपथपत्र प्राप्त करे। परिवादी के साक्षी एवं अभियुक्त प्रतिपरीक्षा के लिये उपलब्ध रहे, जब कभी भी उन्हें न्यायालय द्वारा इस सम्बन्ध में निर्देश होता है।
धारा 142 के अधीन अपरिपक्व परिवाद-
अपरिपक्व वाद से अभिप्रेत है किसी वाद को धारा 142 के अधीन धारा 138 (ग) अधीन 15 दिन के अवसान के पूर्व वाद हेतुक उत्पन्न होने के पूर्व दाखिल करने से होता है। कोई भी परिवाद जो वाद हेतुक उत्पन्न होने की सम्भावना में धारा 138 के खण्ड (ग) के अधीन वाद हेतुक उत्पन्न होने के पूर्व किया गया है, अपरिपक्व परिवाद होता है।
अपरिपक्व परिवाद के सम्बन्ध में विधि को संक्षेप में कहा जा सकता है:-
(1) अपरिपक्व परिवाद प्रारम्भ में ही इन्कार करने योग्य नहीं होता है।
(2) ऐसे परिवादों का संज्ञान इनकी परिपक्वता के पश्चात् लिया जा सकता है और न्यायालय-
(i) वापस कर सकते हैं जिसे वाद हेतुक उत्पन्न होने के बाद दाखिल किया जाय, या
(ii) परिपक्वता अवधि तक प्रतीक्षा करें।
(3) प्रत्येक मामले में अपरिपक्व परिवाद में लिया गया संज्ञान गलत होगा।
अपरिपक्व परिवाद के सम्बन्ध में विभिन्न उच्च न्यायालयों के मतों में विभिन्नता है और यहाँ तक उच्चतम न्यायालय का मत भी नरसिंह दास तपाडियाँ एवं साख इन्वेस्टमेन्ट एण्ड फाइनेन्सियल कंसलटेन्सी प्रा० लि० बनाम लायड रजिस्ट्रार, के मामलों में भिन्न रहा है। परन्तु अब योगेन्द्र प्रताप सिंह के मामले में सुस्थिर हो गया है।
नरसिंह दास तपाडिया के मामले में उच्चतम न्यायालय के खण्डपीठ ने "अपराधों का संज्ञान लेना" एवं "परिवादी द्वारा परिवाद दाखिल करना" में अन्तर स्थापित किया है। इस न्यायालय ने यह धारित किया है।
हालांकि मजिस्ट्रेट को ऐसे मामले का संज्ञान लेने का वर्जन है, परन्तु परिवाद दाखिल करने में कोई वर्जन नहीं है एवं यह कि 15 दिनों के अवसान के पूर्व दाखिल किये गये परिवाद को आधार बनाया जा सकता है कि उस पर 15 दिन के अवधि के अवसान पर संज्ञान लिया जा सके।
(3) मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट-
धारा 142 का खण्ड (ग) यह स्पष्ट करती है कि महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय से अवर कोई न्यायालय धारा 138 के अधीन दण्डनीय किसी अपराध का विचारण नहीं करेगा।
इस प्रकार चेकों के अनादरण का प्रथम विचारण न्यायालय महानगर मजिस्ट्रेट/प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट होते हैं। इस न्यायालय के निर्णयों की अपील जिला सत्र न्यायाधीश, उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय क्रमशः होंगे।
न्यायालय को मामले की विचारण की अधिकारिता—यह महत्वपूर्ण एवं मुख्य प्रश्न है कि कौन सा आपराधिक न्यायालय चेक के अनादरण के मामलों की अधिकारिता का प्रयोग कर सकेगा। चेकों के अनादरण में अनेक कृत्यों को अनुध्यात किया गया है और जहाँ कहीं भी कोई कृत्य होता है, वहाँ के न्यायालय को संज्ञान लेने की अधिकारिता होगी।
न्यायालय की अधिकारिता के प्रश्न के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय ने के० भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन के मामले में विधि सिद्धान्तों को स्थापित किया है।
यह धारित किया गया है कि धारा 138 के पाँच घटक हैं, अर्थात्:-
(1) चेक का लिखना;
(ii) संदाय के लिए बैंक में चेक का उपस्थापना;
(iii) बैंक द्वारा असंदत्त चेक की वापसी,
(iv) चेक के अनादरण के पश्चात् लेखीवाल को लिखित सूचना देना;
(v) लेखीवाल को संदाय करने में असफलता। यह कोई आवश्यक नहीं है कि उक्त सभी पाँच कृत्यों को एक ही स्थान पर किया गया होगा। यह सम्भव है कि इसमें से प्रत्येक कृत्यों को विभिन्न पाँच स्थानों पर किया गया होगा। परन्तु उक्त सभी पाँचों कृत्यों की कड़ियों की जंजीर एक दूसरे से आवश्यक रूप में धारा 138 के अधीन अपराध को पूर्णता से जुड़ी हुई है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 178 (घ) का सन्दर्भ देते हुए यह स्पष्ट है कि यदि पांचों विभिन्न कृत्य विभिन्न पाँच स्थलों पर किये गये हैं, कोई भी न्यायालय इन पाँचों स्थलों में से कोई भी स्थान पर धारा 138 के अधीन अपराध का विचारण किया जा सकेगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 178 के अधीन जहाँ अपराध विभिन्न कृत्यों को सम्मिलित करती है और उन्हें विभिन्न स्थानों पर किया गया है इसे वहाँ जाँच की जा सकती है और न्यायालय द्वारा विचारण उनमें से किसी भी स्थान पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग कर सकेगा।
यह मामला अधिकारिता को निर्णीत करने का एक मील का पत्थर है धारा 138 कोई जाँच एवं अन्वेषण अपेक्षित नहीं करती है। यहाँ विचारण संज्ञान के साथ प्रारम्भ होता है।
यहाँ पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 178 को कोट करना संगत होगा जाँच या विचारण का स्थान-
(क) जहाँ यह अनिश्चित है कि कई स्थानीय क्षेत्रों में से किसमें अपराध किया गया है, अथवा
(ख) जहाँ अपराध अंशत: एक स्थानीय क्षेत्र में और अंशत: किसी दूसरे में किया गया है, अथवा
(ग) जहाँ अपराध चालू रहने वाला और उसका किया जाना एक से अधिक स्थानीय क्षेत्रों में चालू रहता है, अथवा
(घ) जहाँ वह विभिन्न स्थानीय क्षेत्रों में किए गए कई कार्यों से मिलकर बनता है, यहाँ उसकी जाँच या विचारण ऐसे स्थानीय क्षेत्रों में से किसी पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय द्वारा की जा सकती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 178 के खण्ड (घ) धारा 138 (परक्राम्य लिखत अधिनियम) के सम्बन्ध में विशेष रूप से सम्बन्धित है।
नवीन भाई बनाम कोटक महिन्द्रा बैंक लिo के मामले में उक्त सभी कृत्य बाम्बे में घटित हुआ केवल विधिक सूचना बंगलौर में दी गई था। यह धारित किया गया कि केवल सूचना भेजना मात्र बंगलौर न्यायालय को अधिकारिता प्रदान नहीं कर सकता।
अधिकारिता नवीन सिद्धान्त स्थापित-
चेकों के अनादरण के संज्ञान लेने का न्यायालय को अधिकारिता के सम्बन्ध में अद्यतन सीमा चिह्न को निर्धारित करने वाला मामला दशरथ रूप सिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य है। उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि चेकों के अनादरण के परिवादों को केवल उन न्यायालयों में दाखिल किया जाएगा जिसके स्थानीय अधिकारिता में ऊपरवाल बैंक स्थित है। यह निर्णय भास्करन मामले में स्थापित सिद्धान्त के विपरीत है और उसे पलटता है।
इस सिद्धान्त को उच्चतम न्यायालय ने सुकु बनाम जगदीश, के मामले में अपनाया है। प्रश्नगत चेक प्रत्यर्थी ने सिंडिकेट बैंक, गोकरन शाखा, कर्नाटक पर लिखा था। परिवादी ने चेक को संग्रहण के लिए कृष्णापुरम कायकुलुम, केरल में जमा किया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि केरल में चेक के संग्रहण के लिए जमा करना केवल इस आधार पर केरल न्यायालय पर अधिकारिता प्रदान नहीं करता है।
इसी प्रकार हरमन इलेक्ट्रॉनिक प्रा० लि० बनाम नेशनल पैनासोनिक इण्डिया प्रा० लि के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि चेक के लेखीवाल को सूचना भेजने का स्थान केवल इस आधार पर वाद हेतुक के लिए न्यायालय को संज्ञान लेने की अधिकारिता प्रदान नहीं करता।
चेक का संदाय के लिए उपस्थापन, अधिकारिता प्रदान नहीं करता-
चेक का उपस्थापन स्थान धारा 138 के अधीन वहाँ के न्यायालय को अधिकारिता प्रदान नहीं करता है।
यह टाइम्स बिजनेस सालुशन लि० बनाम दत्याबाइट के मामले में धारित किया गया कि दिल्ली के बैंक में चेक का उपस्थापन से, जबकि ऊपरवाल बैंक दिल्ली में स्थित है, दिल्ली बैंक पर अधिकारिता प्रदान नहीं करता है।
पटियाला कास्टिंग प्रा० लि० बनाम भूषण स्टील लिक में परिवादी ने चेक के संग्रहण के लिए दिल्ली के एक बैंक में जमा किया, माँग सूचना दिल्ली से भेजा गया। परिवादी का पंजीकृत कार्यालय दिल्ली में स्थित था एवं वाद हेतुक दिल्ली में उत्पन्न हुआ, अतः दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह धारित किया कि दिल्ली उच्च न्यायालय को अधिकारिता थी।
2015 का संशोधन एवं अधिकारिता- 2015 में संशोधन द्वारा धारा 142 में नया खण्ड (2) जोड़ा गया-
(2) धारा 138 के अधीन दण्डनीय अपराध की जाँच और विचारण, केवल किसी ऐसे न्यायालय द्वारा किया जाएगा, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर (क) यदि चेक किसी खाते के माध्यम से संग्रहण के लिए परिदत्त किया जाता है, तो बैंक की शाखा जहाँ पर यथास्थिति पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम में धारक, खाता बनाए रखता है, स्थित है; या (ख) यदि चेक, पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम में धारक द्वारा संदाय के लिए खाते के माध्यम से अन्यथा प्रस्तुत किया जाता है, ऊपरवाल बैंक की शाखा, जहाँ लेखीवाल खाता बनाए रखता है, स्थित है।
अब धारा 138 के अधीन अपराध की 'जाँच और विचारण' केवल किसी ऐसे न्यायालय द्वारा किया जाएगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर
(क) जहाँ चेक संग्रहण के लिए जमा किये जाते हैं - यदि चेक किसी खाते के माध्यम से संग्रहण करने के लिए परिदत्त किए जाते हैं तो बैंक की शाखा जहाँ पाने वाला या सम्यक् अनुग्रह धारक खाता रखता है स्थित है, या
(ख) जहाँ चेक संदाय के लिए उपस्थापित किया जाता है- यदि चेक पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा संदाय के लिए प्रस्तुत किया जाता है, ऊपरवाल बैंक की शाखा जहाँ लेखीवाल खाता बनाए रखता है।
धारा 138 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिए न्यायालय की अधिकारिता के सम्बन्ध में धारा 142 (2) द्वारा परिवर्तन की विधिमान्यता को विकास बाफना बनाम भारत संघ, में चुनौती दी गयी थी जिसे छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विधिमान्य ठहराया।
(ग) जैसा कि संशोधन से उपबन्धित किया गया है, न्यायालयों की अधिकारिता सर्वोपरि खण्ड (अध्यारोही खण्ड)- चेकों के अनादरण का उपबन्ध करने वाला अधिनियम एक विशेष अधिनियम है एवं धारा 138 अपने आप में स्वयं की पूर्ण संहिता है।
यह अपराध एवं उसके दण्ड दोनों का उपबन्ध करती है और उसका सर्वोपरि खण्ड जिसे धारा 142 में उपबन्धित किया गया है कि " दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में किसी बात के होते हुए भी" धारा 142 के उपबन्ध को दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबन्धों पर सर्वोपरि प्रभाव दिया गया है। इस प्रकार दण्ड प्रक्रिया संहिता की अधिकारिता के प्रावधान यहाँ लागू नहीं होंगे।
सर्वोपरि खण्ड के विस्तार एवं सीमा को उच्चतम न्यायालय ने अद्यतन वाद इन्द्र कुमार बनाम रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लि. के मामले में विचार किया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय इस मत का था कि सर्वोपरि खण्ड को सीमित अर्थ देना चाहिए और कोई धारा जो इस खण्ड को सम्मिलित करती है तो किसी विशेष उपबन्ध को यह सन्दर्भित नहीं करती है कि वह सर्वोपरि है, परन्तु यह संविधि को सामान्य रूप में सन्दर्भित करती है, यह धारित करने के लिए अनुज्ञेय नहीं किया जा सकता कि यह सम्पूर्ण अधिनियम को अपवर्जित करती है और अपने आप में स्वयं में है।
दूसरे शब्दों में यह विनिश्चित करने की अपेक्षा करते है कि कौन सा उपबन्ध वर्णन का उत्तर देता है और कौन नहीं। सर्वोपरि खण्ड का निर्वचन करते समय न्यायालय से यह अपेक्षा होती है कि वह पता करे कि किस सीमा तक विधायिका का आशय ऐसा करना है एवं किस सन्दर्भ में सर्वोपरि खण्ड का प्रयोग किया गया है।
सर्वोपरि खण्ड के अनुसार धारा 142 (क) सीमित है और संहिता से केवल दो चीजों को अपवर्जित करता है, अर्थात्
(क) मौखिक परिवाद का अपवर्जन, एवं
(ख) परिवाद का संज्ञान केवल पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम के परिवाद पर लेना।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 उपबन्धित करती है कि एक मजिस्ट्रेट परिवाद का संज्ञान ले सकता है जो अपराध गठित करे इस तथ्य को बिना ध्यान में रखे कि किसने परिवाद किया है, या पुलिस रिपोर्ट पर, या पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर या स्वयं अपने संज्ञान पर। सर्वोपरि खण्ड जब यह मर्म को सन्दर्भित करता है, यह मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने को सीमित करता है कि केवल पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक के परिवाद पर ही संज्ञान लेने को और संहिता की धारा 190 के अन्य को अपवर्जित करता है।
दूसरे शब्दों में संहिता के अन्य उपबन्ध इससे अपवर्जित नहीं होते हैं। अत: मजिस्ट्रेट ने यदि परिवाद का संज्ञान ले लिया है तो उसे संहिता की धारा 200 में अन्तर्निहित प्रक्रिया को अपनाना होगा। जब वह पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक से परिवाद को लेता है तो वह परिवादी का कथन एवं अन्य साक्षियों का जो उस तिथि पर है, अभिलिखित करेगा एवं संशोधन के पश्चात।
(ग) जैसा कि संशोधन से उपबन्धित किया गया है, न्यायालयों की अधिकारिता । केवल परिवाद का प्रस्तुतीकरण केवल पहला कदम है एवं कोई वाद हेतुक को नहीं लिया जाएगा जब तक कि प्रमाणीकरण की प्रक्रिया पूरी न हो और, इसलिए मजिस्ट्रेट को शपथ पर कथन लेना होगा, अर्थात् धारा 200 के अधीन कथन का प्रमाणीकरण एवं अन्य साक्षियों के कथन एवं मजिस्ट्रेट को यह निर्णीत करना होगा कि वहाँ पर्याप्त आधार है जिससे धारा 203 के प्रभाव से प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाय या नहीं अर्थात् परिवाद की खारिजी करना। यहाँ पर उच्चतम न्यायालय ने जापानी साहू बनाम चन्द्र शेखर मोहन्ती, के मामले में प्रतिपादित सिद्धान्त को भी अनुसरित किया है।
ऑनलाइन कार्यवाही:–
मे० मीटरस एण्ड इनस्ट्रमेन्ट (प्रा०) लि० बनाम कंचन मेहता, प्रथम वाद है जिसमें उच्चतम न्यायालय ने "ऑनलाइन" कार्यवाही को स्थापित किया है। विधि आयोग के 213वें को ध्यान रखते हुए पक्षकारों की दैहिक उपस्थिति के बिना "ऑनलाइन" कार्यवाही की आंशिक या पूर्णता में करने की आवश्यकता है, क्योंकि न्यायालय में कुल मामलों के 20% मामले धारा 138 से सम्बन्धी मामले चुनौतीपूर्ण हैं। कम से कम कुछ ऐसे मामले "ऑनलाइन" निर्णीत किये जा सकते हैं।
यदि परिवाद शपथ पत्र सहित, अभिलेख ऑनलाइन दाखिल किये जा सकते हैं, ऑनलाइन आदेशिकायें जारी किये जा सकते हैं और अभियुक्त विहित धनराशि ऑनलाइन जमा कर सकता है। यह अभियुक्त या परिवादी के व्यक्तिगत उपस्थिति को निवारण कर सकता है।
केवल वहाँ जहाँ अभियुक्त विवादित करता है पक्षकारों की व्यक्तिगत उपस्थिति अपेक्षित होती है जो काउंसिलिंग के माध्यम से या जहाँ सम्भव हो एक वीडियो कान्फ्रेंसिंग का प्रयोग किया जा सकता है। स्वयं संचालित शर्तों में व्यक्तिगत उपस्थिति को छुटकारा प्रदान किया जा सकता है।