निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 34: चेक के अनादरण से संबंधित अपराध (धारा 138)

Shadab Salim

30 Sep 2021 1:30 AM GMT

  • निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 34: चेक के अनादरण से संबंधित अपराध (धारा 138)

    परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत धारा 138 इस अधिनियम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा है। यह प्रसिद्ध धारा है तथा आम जन साधारण में इस धारा के नाम से ही यह अधिनियम जाना जाता है। यह धारा अपने आप में ही एक अधिनियम जितना अर्थ रखती है।

    वर्तमान स्थिति में वचन पत्र और विनिमय पत्र का प्रचलन अत्यधिक कम हो गया है तथा चेकों का प्रचलन अधिक हो गया है। अनेक व्यापारिक गतिविधियां चेक के माध्यम से ही संचालित की जा रही है। भुगतान का एक माध्यम चेक भी है। ऋण चुकाने उधार माल खरीदते समय चेकों का प्रचलन अधिक है।

    एक व्यक्ति द्वारा जब धारक को चेक दिया जाता है तब उस चेक के अनादर हो जाने की भी संभावना अधिक होती है। चेक के अनादर को रोकने तथा इन व्यवहारों में छल कपट को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से ही इस अधिनियम में धारा 138 का समावेश किया गया है।

    अधिनियम की धारा 138 चेक के अनादर को एक अपराध बनाती है। इस धारा से संबंधित प्रावधानों को संक्षिप्त में इस आलेख में उल्लेखित किया जा है।

    चेक अनादर:-

    अपराध के रूप में चेकों के अनादर से सम्बन्धित विधि 1988 के संशोधन से मूल रूप में धारा 138 से 142 तक थी। धारा 143-147, 2002 के संशोधन से प्रभावी 2003 से एवं धारा 148, 2018 में जोड़ी गयी।

    अब इस सम्बन्ध में विधि धारा 138 से 142 तक है। खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण (चेक के लेखीवाल के खाते में) कतिपय चेकों के अनादर की दशा में शास्तियों के सम्बन्ध में उक्त उपबन्ध अपने आप में सम्पूर्ण संहिता है।

    अध्याय 8 की धारा 91 से 104 तक के परक्राम्य लिखतों के अनादर साथ ही साथ चेकों के अनादर उसकी सूचना टिप्पण एवं प्रसाक्ष्य से सम्बन्धित है, परन्तु इसमें चेकों के अनादर को अपराध के रूप में दण्ड की व्यवस्था नहीं है। 1988 के पूर्व चेकों का अनादर केवल एक नैतिक आबद्धता के रूप में ली जाती थी।

    इस प्रकार लोग चेकों के संदाय (आदर) को महत्व नहीं देते थे और चेकों के अनादर की घटनाएँ समाज में सामान्य रूप में होती थीं और कभी-कभी इसे कपट के माध्यम के रूप में भी अपनाया जाता था। अधिनियम में चेकों के अनादर से निपटने के लिए कोई प्रभावी उपबन्ध नहीं थे जिससे लोगों में चेक के प्रति विश्वास एवं स्वीकार्यता नहीं थी।

    लोगों में संदाय के माध्यम में चेक था स्वीकार करने में संकोच एवं भय की स्थिति थी। चेक का धारक इसके अनादर से व्यथित होकर असहाय था, क्योंकि चेक के लेखीवाल के विरुद्ध उसके पास कोई उपचार नहीं था।

    केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 415 एवं 420 में क्रमश: छल, छल एवं बेईमानी पूर्वक आशय से सम्पत्ति को परिदत करने के लिए उत्प्रेरित करने का प्रावधान है, परन्तु न्यायालय की बाधाएं एवं जाल से न्याय पाना आसान नहीं था। अतः एक सहज, प्रभावी एवं त्वरित उपचार की आवश्यकता थी।

    इससे चेकों के अनादर के लिए नई विधि की आवश्यकता हुई। इस प्रकार 1988 में अध्याय 17 "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के अनादर की दशा में शास्तियाँ" को जोड़ा गया नयी धाराएँ 138 से 142 तक अधिनियम में जोड़ी गयी और 2002 में पुनः संशोधन से धाराएं 143 से 147 तक और 2018 में धारा 148 जोड़ी गयी। उक्त सभी उपबन्ध चेक के अनादर को अपराध एवं उसके दण्ड के सम्बन्ध में सम्पूर्ण संहिता है।

    संशोधन के उद्देश्य मुख्यत: थे:-

    (i) चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना, एवं

    (ii) चेकों की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता में अभिवृद्धि करना।

    इस विधि का प्रयोजन-

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 का मुख्य उद्देश्य एवं प्रयोजन उस पद्धति को विधिमान्यता प्रदान करना है जिससे इसके अधीन अनुध्यात लिखतों को अन्य माल के समान परक्रामण द्वारा एक हाथ से दूसरे हाथ अन्तरित हो सकें।

    अधिनियम का उद्देश्य परक्राम्य लिखतों के सम्बन्ध में व्यवस्थित प्रमाणिक तौर पर निदेशक विधि का नियम प्रस्तुत करना है। अधिनियम का आशय पद्धति की विधिमान्यता से है जिसके अधीन व्यापारिक लिखतों को सामान्य माल जो एक हाथ से दूसरे हाथ को अन्तरित होते हैं, के समान बनाना है।

    वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं चेकों की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता स्थापित करना आधुनिक व्यापारिक संव्यवहारों एवं धन के संव्यवहार में मुख्य आवश्यकता है।

    नतीजतन, 1881 के अधिनियम में बैंकिंग पब्लिक फाइनेन्शियल इन्स्टीट्यूशन एवं निगोशिएबल इनस्ट्रमेन्ट लॉज (संशोधन) अधिनियम, 1988 से संशोधित किया गया।

    संशोधित उपबन्धों का विस्तार से उल्लेख करते हुए उद्देश्य एवं प्रयोजन है-

    (i) प्रथमतः चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं

    (ii) द्वितीयतः व्यापारिक व्यवहारों में चेक की विश्वसनीयता में सम्वृद्धि करना है।

    एन० ई० पी० सी० (नेपक) मेकान लि० बनाम मैग्मा लॉजिंग लिo के मामले में उच्चतम न्यायालय का सम्प्रेक्षण था कि संविधि पर धारा 138 को स्थापित करने का उद्देश्य बैंकिंग गतिविधियों एवं संव्यवहारों में परक्राम्य लिखतों में विश्वास उत्पन्न करना है एवं बैंकिंग गतिविधियों को प्रभावीकता में वृद्धि करना एवं चेकों द्वारा व्यापारिक संव्यवहारों को करने में विश्वसनीयता सुनिश्चित करना है।

    पुनः उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया है कि अधिनियम की धारा 138 एक संविदात्मक भंग को अपराध सृजित किया है और विधायिका का उद्देश्य बैंकिंग क्षमता में अभिवृद्धि और यह प्रयास करना है कि व्यापारिक एवं संविदात्मक सम्बन्धों में चेक का अनादर न हो और व्यापारिक संव्यवहारों को चेक द्वारा करने में विश्वसनीयता बनाया जाए।

    अशोक यशवन्त बादवे बनाम सुरेन्द्र माधवराव निघोचकर के मामले में न्यायालय का यह सम्प्रेक्षण कि यह नवीन अध्याय परक्राम्य लिखतों का बैंकिंग कार्यवाहियों में क्षमता एवं व्यापारिक संव्यवहारों में विश्वसनीयता उत्पन्न करना प्रकट करता है।

    लेखीवाल के विरुद्ध धन को उगाही के लिए सिविल उपचार के होते हुए, धारा 138 लेखीवाल की ओर से बेइमानी का निवारण करता है कि कोई लेखीवाल बैंक में संरक्षित खाते में अपर्याप्त धन की दशा में चेक जारी न करे और पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक इस पर कार्यवाही करे।

    मे० मोदी सीमेन्ट लि० बनाम के० के० नन्दी के महत्वपूर्ण वाद में उच्चतम न्यायालय अध्याय 17 "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के अनादर की दशा में शास्तियाँ" जिसका प्रावधान धारा 138 से 142 तक किया गया है, का उद्देश्य बैंकिंग कार्यवाहियों में क्षमता का सम्वर्द्धन एवं चेकों द्वारा व्यापारिक संव्यवहारों को सुनिश्चित करना है।

    मे० डालमिया सीमेन्ट (भारत) लि० बनाम मे० ग्लैक्सौ ट्रेडर्स एण्ड एजेन्सी लि, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि अधिनियम की धारा 138 एक सिविल संव्यवहार को विधि द्वारा एक अपराध बनाना है और इस विहित कमी को विशेष उपबन्ध से अपर्याप्त धन के अभाव में चेक के अनादर को कठोर दायित्व में निगमित किया गया है और यह पुनः सम्प्रेक्षित किया गया है कि इसके अधीन अनुध्यात किए गए व्यापारिक लिखतों को एक विशेषाधिकार प्रदान करना है कि किसी लिखत के अधीन आबद्धता का उन्मोचन नहीं किया जाता है तो उसके लिए विशेष शास्ति एवं प्रक्रिया का उपबन्ध करना है।

    विनय डेवन्ना नायक बनाम रायल सेवा सहकारी बैंक लि. के मामले में यह नियम स्थापित किया है कि धारा 138 का उद्देश्य बैंकिंग कार्यवाहियों में क्षमता में विश्वास उत्प्रेरित करना एवं व्यापारिक संव्यवहारों को करने में विश्वसनीयता उत्पन्न करना है एवं धारा 147 के प्रावधान को ध्यान में रखते हुए अपराधों की शमनीयता को सामान्यतया मना नहीं किया जा सकता है।

    विनियमित अपराध-परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 139 के लक्ष्यों एवं प्रयोजनों में उच्चतम न्यायालय ने एक अद्यतन वाद रंगप्पा बनाम मोहन, के मामले में यह सम्प्रेक्षित किया है कि यह सदैव ध्यान में रखना होगा कि धारा 138 के अधीन अपराध को दण्डनीय बनाने के पीछे विनियमित अपराध बनाने की मंशा है, क्योंकि चेकों का बाउन्स होना वृहद रूप में सिविल दोष है जिसका प्रभाव प्राविक रूप में प्राइवेट पक्षकारों में व्यापारिक संव्यवहारों को अन्तर्ग्रस्त करता है।

    दामोदर एस० प्रभु बनाम सईद बाबा लाल, में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि चेकों के अनादर को अच्छी तरह से विनियमित अपराध के रूप में वर्णित किया जा सकता है कि लोक हित में इन लिखतों की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करता है।

    इस अपराध का प्रभाव सामान्यतया प्राइवेट पक्षकारों के व्यापारिक संव्यवहारों तक सीमित होता है। यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि धारा 138 के अधीन जुर्माना अधिरोपित करना क्षतिपूर्ति प्रयोजनों को स्थापित करती है।

    उच्चतम न्यायालय ने गोवा प्लास्ट (प्रा०) लि० में यह स्पष्ट किया है कि अधिनियम में धारा 138 को स्थापित किया गया है जिसके बैंकिंग कार्यवाहियों को दक्षता में विश्वास उत्पन्न हो एवं व्यापारिक संव्यवहारों में विश्वसनीयता स्थापित करना है। ये उपबन्ध जनता को चेक के माध्यम से संदाय की आबद्धता को अनादर करने से रोकेगा।

    रंगप्पा बनाम मोहन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इसे स्पष्ट किया है कि उक्त उपबन्ध देश के बढ़ते हुए कारोबार, व्यापार, वाणिज्य एवं औद्योगिक क्रियाओं को विनियमित करने के लिए अन्तःस्थापित किया गया है और वित्तीय मामलों में अत्यधिक सतर्कता की वृद्धि के लिए कठोर दायित्व और लेनदारों का लेखीवाल के में विश्वास के रक्षोपाय के लिए जो किसी विकसित राष्ट्र के वित्तीय जीवन के लिए आवश्यक है।

    पुनः न्यायालय का सम्प्रेक्षण था कि-

    "यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि धारा 138 में जो अपराध दण्डनीय बनाया गया है वह बाउन्सिंग का चेक बृहद रूप में सिविल दोष है जिसका प्रभाव निजी पक्षकारों में व्यापारिक संव्यवहारों तक ही सीमित होता है। अधिनियम की धारा 139 में आदेशित उपधारणा आवश्यक रूप में विधिक प्रवर्तनीय ऋण या आबद्धता को ही सम्मिलित करता है। यह वास्तव में खण्डनीय उपधारणा की प्रकृति का है एवं यह अभिव्यक्त के लिये सदैव खुला है कि वह ऋण एवं आबद्धता को सदैव विवादित कर सकता है। हालांकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यहाँ पर प्रारम्भिक उपधारणा होती है जो परिवादी को सहयोग प्रदान करता है। अधिनियम की धारा 139 प्रतिकूल आभार खण्ड है जिसे लिखतों के विश्वसनीयता की संवृद्धि हेतु विधायिका के उद्देश्यों के लिए सम्मिलित किया गया है, जबकि धारा 138 चेकों के अनादर की दशा में एक बलशाली आपराधिक उपचार विहित करती है एवं धारा 139 में विखण्डनीय उपधारणा एक तरीका है जिससे मुकदमे के दौरान असम्यक् विलम्ब को रोकना है"

    अधिनियम की धाराएं 138 से 142 तक के उपबन्ध चेकों के अनादर को लागू करने के लिए अपर्याप्त पाए गए हैं। कथित परिस्थितियों में, विधायिका ने नवीन धाराएँ 143 से 147 तक परक्राम्य लिखत (प्रकीर्ण उपबन्धों एवं संशोधन) अधिनियम, 2002, जोड़ी गयी हैं जिसे 6 फरवरी, 2003 से प्रभावी बनाया गया है।

    उक्त संशोधन अधिनियम के उद्देश्यों एवं कारण के कतिपय महत्व हैं जो निम्नलिखित हैं:-

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 को बैंकिंग लोक वित्तीय संस्थानों एवं परक्राम्य लिखत विधियाँ (संशोधन) अधिनियम, 1988 से संशोधित की गई हैं जिसमें एक नया अध्याय 18 को अधिनियमित किया गया है, "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के अनादर की दशा में शास्तियाँ" इन उपबन्धों को चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं लिखतों की विश्वसनीयता की सम्वृद्धि करना है।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के वर्तमान उपबन्ध अर्थात् अध्याय 17 धाराएं 138 से 142 तक चेकों के अनादर के लिए अपर्याप्त पाए गए। यही नहीं "अधिनियम में उपबन्धित दण्ड भी अपर्याप्त साबित हुए, यहाँ तक कि न्यायालयों के लिए विहित प्रक्रिया भी कठोर पाए गए। न्यायालय ऐसे मामलों को अधिनियम में विहित प्रक्रिया से समयबद्ध तरीके से शीघ्रतापूर्वक व्ययन करने में असमर्थ पाए गए।

    देश के अनेकों न्यायालयों में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धाराएं 138 से 142 से सम्बन्धित मामले बहुत अधिक संख्या में विचाराधीन पाए गए। इसे ध्यानगत रखते हुए एक कार्यकारी दल गठित किया गया जिसका उद्देश्य परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 का पुनर्विलोकन करना एवं इस धारा के प्रयोजनों को प्रभावी ढंग से प्राप्त करने हेतु आवश्यक एवं अपेक्षित बदलावों की अनुशंसा करना था।

    अनेकों संस्थाओं एवं संगठनों के प्रतिवेदनों के साथ कार्यकारों दल की अनुशंसा की सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एवं अन्य विधि विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण किया गया एवं एक विधेयक परक्राम्य लिखत संशोधन विधेयक, 2001 संसद में दिनाँक 24 जुलाई, 2001 को पारित किया गया।

    यह विधेयक स्टैण्डिंग कमेटी को सन्दर्भित किया गया जिसके द्वारा कतिपय संशोधनों के साथ लोक सभा में नवम्बर, 2001 को भेज दिया।

    स्टैण्डिंग कमेटी के अनुशंसा एवं प्रतिवेदनों के दृष्टिकोण से परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में निम्नलिखित संशोधन सुझाए गए-

    (i) अधिनियम में विहित दण्ड एक वर्ष से दो वर्ष बढ़ाने।

    (ii) पाने वाले द्वारा लेखीवाल को भेजी जाने वालो सूचना अवधि को 15 दिन से 30 दिन बढ़ाना।

    (iii) अधिनियम के अधीन न्यायालय को मामले को संज्ञान लेने की अवधि 1 माह को परित्याग करने का न्यायालय का स्वविवेक

    (iv) परिवाद के प्रारम्भिक साक्ष्य की विहित प्रक्रिया से मुक्ति।

    (v) न्यायालय द्वारा अभियुक्त या साथी को स्पीड पोस्ट या इम्पैनलड निजी कोरियरों में सूचना तामीली की प्रक्रिया विहित करना।

    (vi) अधिनियम के अधीन मामलों के त्वरित व्ययन के लिए संक्षिप्त विचारण का प्रावधान करना।

    (vii) अधिनियम के अधीन अपराधों को शमनीय बनाना।

    (vii) धारा 141 के अधीन उन निर्देशकों को अभियोजन से अपवर्जित करना जो केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार या केन्द्र या राज्य सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण में वित्तीय कार्पोरेशन किसी पद धारण करने से किसी कम्पनी के नामित निदेशक हैं।

    (ix) यह उपबन्धित करना कि मजिस्ट्रेट जो मामले का विचारण कर रहा है, को एक वर्ष से अधिक एवं 5 हजार रुपये से अधिक जुर्माना देने की शक्ति।

    (x) परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 को इलेक्ट्रॉनिक चेक एवं संक्षेपित चेक के सम्बन्ध में प्रयोज्य बनाने के लिए उन उपान्तरों एवं संशोधनों के अधीन जिसे केन्द्रीय सरकार रिजर्व बैंक के परामर्श से अधिनियम के प्रयोजनों के लागू करने के लिए आवश्यक समझे, सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा कर सकेगी।

    (xi) बैंकर्स बुक्स साक्ष्य अधिनियम, 1891 में दिए गए" बैंकर्स बुक्स" एवं "प्रमाणित कापी" की परिभाषा को संशोधित करने के लिए।

    अध्याय 17 में अन्तःस्थापित नये उपबन्ध जब से अर्थात् 1 अप्रैल, 1989 से प्रवर्तन में आया है वस्तुत: आपराधिक न्याय पद्धति में सत्यता से वादों की बाढ़ आ गई है। देश के मेट्रोपोलिटन नगरों एवं व्यापारिक केन्द्रों पर, यह प्रकट होता है कि मजिस्ट्रेट न्यायालय का मुख्य कार्य पक्षकारों की तरफ से मुद्रा की वसूली हो गया है।

    धारा 138 के अधीन इतने अधिक संख्या में परिवाद आने लगे हैं जिससे न्यायालय के लिए इसे युक्तियुक्त समय में निपटाना असम्भव हो गया है एवं इससे न्यायालय के सामान्य आपराधिक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव होने लगा है।

    एक अनुतोषीय उपाय की अपेक्षा आवश्यक था और विधायिका ने अधिनियम में पुनः संशोधन अधिनियम, 2002 एवं 2018 में संशोधन के द्वारा क्रमश: धारा 143 से 147 एवं 148 अन्तः स्थापित किया।

    इसके साथ ही इन संशोधन अधिनियमों के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण संशोधन भी किया गया जो निम्नलिखित है : संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा-

    1. धारा 6 में इलेक्ट्रानिक प्ररूप में चेक को जोड़ा गया।

    2. धारा 143 से 147 अन्तःस्थापित किया गया।

    3. धारा 138 के खण्ड (ख) में 15 दिन की अवधि को 30 दिन बढ़ाया गया।

    4. धारा 138 में एक वर्ष के कारावास को दो वर्ष किया गया।

    संशोधन अधिनियम 2015 (प्रभावी 15-6-2015) द्वारा-

    5. धारा 6 में स्पष्टीकरण 1 का प्रत्यास्थापन

    6. धारा 6 में स्पष्टीकरण 3 का अन्तःस्थापन

    7. धारा 142 को उपधारा (1) के रूप में पुनः संख्यांकित किया गया।

    8. धारा 142 में उपधारा (2) जोड़ा गया जिसमें न्यायालय की अधिकारिता विहित की गयी।

    9. धारा 142क जोड़ा गया जिसके अधीन लम्बित मामलों के अन्तरण को विधिमान्यकरण किया गया। संशोधन अधिनियम 2018 (प्रभावी 1-9-2018) द्वारा।

    10. धारा 143क अन्त:स्थापित किया गया जिसमें अन्तरिम प्रतिकर का प्रावधान किया गया है।

    11. धारा 148 अन्तःस्थापित किया गया जिसमें दोषसिद्धि के मामले में अपील करने पर संदाय का आदेश करने की शक्ति का उपबन्ध है। अब वर्तमान रूप चेक के अनादर सम्बन्धी 17वें अध्याय में धारा 139 से धारा 148 तक के प्रावधान है।

    न्यायोचित अनादर कब बैंक चेक का अनादर कर सकेगा बैंकर्स अपने खातेदार (ग्राहक) के चेक का निम्नलिखित परिस्थितियों में अनादर कर सकेगा-

    (i) पर्याप्त निधि के अभाव में (धारा 31)

    (ii) जहाँ निधि का उपायोजन उचित रूप में चेक के संदाय में नहीं किया जा सकता (धारा 31)

    (iii) चेकों की कूटरचना

    (iv) चेक का कटा फटा होना

    (v) कालबाधित (पुराना) या भावी तिथि के चेक

    (vi) तात्विक परिवर्तन वाले चेक (धारा 87 )

    (vii) जहाँ लेखीवाल के हस्ताक्षर में अन्तर है या कूटरचित है

    (viii) जहाँ चेक की धनराशि शब्दों एवं अंकों में भिन्न है (धारा 18)

    (ix) विशेष रेखांकन का एक से अधिक बार करना (धारा 127)

    (x) जहाँ लेखीवाल ने चेक के संदाय को रोका है

    (xi) वाहक चेक को छोड़कर जहाँ पृष्ठांकन अनियमित है

    (xii) जहाँ चेक का उपस्थापन समुचित नहीं है, अर्थात् कार्यस्थान एवं कार्य दिवस के अतिरिक्त चेक का उपस्थापन

    (xiii) गार्निशी आदेश पर अर्थात् जहाँ सरकार ने ग्राहक के खाते का संदाय रोका गया है

    (xiv) ग्राहक की मृत्यु पर (संज्ञान होने की तिथि से)

    (xv ) ग्राहक के पागल होने पर

    (xvi) ग्राहक के दिवालिया होने पर

    (xvii) संक्षेपित चेक की दशा में [धारा 89 (3) ]

    (xviii) खाता बन्द होने की दशा में

    (xix) खाता ब्लाक करने की दशा में, इत्यादि

    चेक के अनादर के अपराध की प्रकृति [ धारा 138]- अधिनियम की धारा 138 चेकों के अनादर को अब दाण्डिक अपराध उपबन्धित करती है और यह धारा अपराध की शर्तें एवं दण्ड का उपबन्ध करती है।

    धारा 138 की प्रकृति को अनेक उच्च न्यायालयों ने एवं उच्चतम न्यायालय ने दाण्डिक अपराध स्पष्ट किया है। योगेन्द्र प्रताप सिंह बनाम सावित्री पाण्डेय के अद्यतन मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 138 को दाण्डिक अपराध अन्तर्वलित करने वाला कहा है अत: यह एक दाण्डिक उपबन्ध है। इस मामले में यह भी कहा गया है कि धारा 142 तरीका एवं समय विहित करती है जिसके अन्तर्गत परिवाद धारा 138 के अधीन दाखिल किया जा सकता है।

    धारा 142 के उपबन्ध से यह स्पष्ट है कि धारा 138 के अधीन अपराध का विचारण परिवाद पर समन मामलों के समान होता है और पर शमनीय प्रकृति का अपराध है।

    चेक अनादर के लिए कौन दायी है-एक बैंकर चेक का अनादर निम्नलिखित दो मामलों में कर सकता है-

    (i) लेखीवाल के खाते में अपर्याप्त निधि की दशा में, एवं

    (ii) लेखीवाल के खाते में पर्याप्त निधि होने की दशा में

    चेक के द्वारा ऊपरवाल (बैंक) को एक आदेश होता है कि वह उसके धारक को निश्चित धनराशि का भुगतान करे यह चेक के अधीन एक समादेश है जिसे बैंकर को आदरण करना है। यदि वह इसे बिना पर्याप्त कारण के आदरण नहीं करता है तो वह चेक के लेखीवाल के प्रति आबद्ध होगा।

    कब एक बैंकर चेकों को अनादर कर सकता है-

    चेक के सम्बन्ध में लेखीवाल एवं ऊपरवाल (बैंक) के बीच में संविदात्मक सम्बन्ध होता है। ऐसा सम्बन्ध पाने वाला या धारक एवं बैंक के बीच में नहीं होता है। इस प्रकार पाने वाला/धारक बैंक के विरुद्ध कोई उपचार नहीं रखता है।

    अतः उक्त (i) एवं (ii) के सम्बन्ध में चेक के अनादर की आबद्धता चेक के पाने वाला/धारक के प्रति आबद्धता लेखीवाल की होती है न कि बैंक की। जहाँ बैंक किसी ग्राहक के चेक का अनादर करता है, ग्राहक के खाते में पर्याप्त निधि के बावजूद बिना पर्याप्त कारण के वहाँ बैंक ग्राहक के प्रति आबद्ध होता है न कि चैक के धारक के प्रति। इस प्रकार का उपबन्ध अधिनियम की धारा 31 में किया गया है।

    इसके अनुसार-

    "चेक के लेखोवाल की ऐसी पर्याप्त निधियाँ, जो ऐसे चेक के संदाय के लिए उचित रूप में उपयोजित की जा सकती हों, अपने पास रखने वाले चेक के ऊपरवाल को अपने से ऐसा करने के लिए। सम्यक् रूप से अपेक्षा किये जाने पर चेक का संदाय करना होगा और ऐसा संदाय में व्यतिक्रम होने से हुई किसी भी हानि या नुकसान के लिये प्रतिकर उसे लेखीवाल को देना होगा।" अधिनियम की धारा 31 बैंकर की आबद्धता को लेखीवाल के प्रति बाँधता है यदि वह ग्राहक के खाते में पर्याप्त निधि के होते हुए उसके चेक का अनादर करता है।

    अतः यह स्पष्ट है कि संशोधित उपबन्धों के अधीन दाण्डिक दायित्व केवल लेखीवाल को होती है और यहाँ तक कि उन मामलों में जहाँ ग्राहक के खाते में पर्याप्त निधि के होते हुए बैंक चेक का संदाय करने में असफल रहता है या उपेक्षा करता है। बैंकर की भी आबद्धता केवल लेखीवाल के प्रति होती है न कि पाने वाले या सम्यक् धारक के प्रति।

    पर्याप्त निधि का होना यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि लेखीवाल को कारित नुकसान या क्षति के लिए बैंक की आबद्धता तभी होगी जहाँ ऐसी नुकसान या हानि उसके खाते में पर्याप्त निधि के होते हुए वह संदाय करने में असफल रहता है या उपेक्षा करता है और यहाँ तक कि ऐसा निधि ऐसे चैक के संदाय के लिए समुचित रूप में प्रयोज्य हो।

    पर्याप्त निधि से तात्पर्य उपस्थापित चेक के धनराशि के बराबर धनराशि का होना है। बैंकर के हाथ में पर्याप्त धनराशि अवश्य होनी चाहिए। पर्याप्त धनराशि देखने के लिये ग्राहक के केवल क्रेडिट अवशेष को ही नहीं, बल्कि बैंक द्वारा प्रदत्त अधिविकर्ष की सुविधा को भी ध्यान में रखना चाहिए।

    पर्याप्त धनराशि के होते हुए भी यदि बैंक ग्राहक के चेक का भुगतान नहीं करता है तो यह संविदा भंग होगा और बैंक को ऐसे संविदा भंग का प्रतिकर ग्राहक को देना होगा।

    दोहरे दण्ड के प्रयोज्यता का सिद्धान्त- संगीताबेन महेन्द्रभाई पटेल बनाम गुजरात राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि धारा 138 के अपराध के लिए अभियोजन में मेन्स रीया (आपराधिक आशय), कपटपूर्ण या बेईमानीपूर्ण आशय के चेक को जारी करते समय अपेक्षित नहीं होता है, जबकि धारा 407, 420 एवं 414 (भा० दे० सं०) के अन्तर्गत मेन्स रीया को साबित करना आवश्यक होता है।

    एक व्यक्ति जिसे धारा 138 के अधीन अपराध के लिए विचारण किया गया है उसे पुन: आपराधिक न्यास, बैंक, छल और दुष्प्रेरण के लिए चेक के अनादर से ही सम्बन्धित पुनः विचारण किया जा सकता है, क्योंकि इन सभी अपराधों के तत्व पृथक् हैं, अतः दोहरे जोखिम का सिद्धान्त प्रयोज्य नहीं होता है। ये अपराध धारा 138 के अपराध से भिन्न एवं स्वतंत्र हैं।

    चेकों का अनादर एक अपराध-

    चेकों का अनादर एक अपराध के रूप में सम्बन्धित विधि को अधिनियम के भाग 17 (नया) में धारा 138 से 142 तक 1988 में जोड़ा गया। वर्ष 2002 में धारा 143 से 147 तक जोड़ा गया और अब 2018 में अन्य संशोधनों के साथ धारा 148 जोड़ा गया है।

    2015 में धारा 142 में उपखण्ड (2) जोड़ा गया है जो न्यायालय की अधिकारिता को परिवाद प्राप्त करने एवं परिवादों पर संज्ञान लेने की महत्वपूर्ण व्यवस्था स्थापित करती है। धारा 142क को जोड़ा गया है जो लम्बित वादों के अन्तरण को विधिमान्यता प्रदान करती है।

    2018 में धारा 143क को जोड़ा गया है० जिसमें अन्तरिम प्रतिकर देने की शक्ति न्यायालय को प्रदान किया गया है। इस प्रकार चेकों के अन्तरण एक अपराध सम्बन्धी विधि को धारा 138 से 148 तक उपबन्धित है। यह चेकों के अनादर के सम्बन्ध में एक नया प्रतिमान स्थापित करती है ।

    अपराध गठन करने की शर्तें- चेक के अनादर के लिए अपराध की शर्तों का उल्लेख धारा 138 के अधीन किया गया है।

    वे हैं :

    1. लेखीवाल द्वारा किसी ऋण या किसी आबद्धता के उन्मोचन के लिए लिखा गया है। [धारा 138]

    2. अनुज्ञेय अवधि के अन्दर चेक बैंक को संदाय के लिए उपस्थापित किया जाना। [धारा 138 (क)]

    3. बैंक के द्वारा चेक की अपर्याप्त निधि के आधार पर असंदत वापस किया जाना। [धारा 138]

    4. लेखीवाल को संदाय की माँग की सूचना लिखित देना। [धारा 138 (ख)]

    5. लेखीवाल द्वारा संदाय में व्यतिक्रम करना, [धारा 138 (ग)] उच्चतम न्यायालय ने सदानन्दन भादरन बनाम माधवन सुनील कुमासे, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि लेखीवाल को चेक अनादर के अपराध के लिए धारा 138 के अधीन सफलतापूर्वक अभियोजन के लिए निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए:-

    1. चेकों को किसी ऋण या अन्य आबद्धता के उन्मोचन के लिये जारी किया जाना और चेक अनादर किया जाना।

    2. पाने वाले द्वारा धन का संदाय की माँग लेखीवाल को लिखित में विहित अवधि में किया जाना।

    3. कि लेखीवाल का इस सूचना प्राप्ति के 15 दिनों के अन्दर संदाय करने में असफल होना।

    रंगप्पा बनाम मोहनी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 138 के घटकों को स्पष्ट किया है, यथा (i) कि एक विधिक प्रवृत्तनीय ऋण का होना, (ii) कि किसी ऋण या आवद्धता को पूर्णत: या भागत: उन्मोचन के लिए बैंक के किसी खाते से संदाय के लिए चेक लिखा गया।

    (iii) इस प्रकार लिखा गया चेक बैंक द्वारा अपर्याप्त निधि के कारण लौटा दिया गया है।

    गोवा प्लास्ट प्रा० लि० बनाम चोको उरसुला डी 'सूजा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 138 के तीन घटकों का उल्लेख किया है :-

    (i) कि विधिक प्रवर्तनीय ऋण का होना,

    (ii) कि ऋण के संदाय के लिये किसी बैंक के खाते से चेक का लिखा जाना,

    (iii) कि ऐसा जारी किया गया चेक अपर्याप्त निधि के कारण वापस किया जाना।

    के० आर० इन्दिरा बनाम आदिनारायन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने शर्तो का निम्नलिखित उल्लेख किया है :-

    1. जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णत: या भागत: उन्मोचन के लिए किसी बैंकर के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से संदाय के लिए चेक लिखा गया है।

    2. पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा चेक का उपस्थापन।

    3. ऊपरवाल बैंक द्वारा चेक को बिना संदाय के इस कारण लौटा दिया जाता है कि उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिए अपर्याप्त है या उस रकम से अधिक है, जिसका बैंक के साथ किए गए करार द्वारा उस खाते में संदाय करने का ठहराव किया गया है।

    4. चेक के लेखीवाल को असंदत्त चेक के लौटाए जाने की बाबत बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर उक्त धनराशि के संदाय की माँग लिखित सूचना द्वारा किया जाना चाहिए।

    5. उक्त सूचना की प्राप्ति के पन्द्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम धारक को संदाय करने में लेखीवाल को असमर्थ रहना। उक्त के ही समान जुगदेश सहगल बनाम समशेर सिंह के मामले में भी अनुसरण किया गया।

    चेक का अनादर अपराध होने के लिए धारा 138 में विहित शर्तों को निम्नलिखित किया जा सकता है :-

    1. चेक का किसी ऋण या आबद्धता के उन्मोचन में जारी किया जाना । [धारा 138 ]

    2. चेक को संदाय के लिये ऊपरवाल बैंक को उपस्थापन करना। [ धारा 138 (क) ]

    3. अपर्याप्त निधि के आधार पर बैंकर द्वारा चेक को वापस किया जाना। [धारा 138 ]

    4. लेखीवाल को रकम की माँग सूचना भेजना। [धारा 138 (ख) ]

    5. लेखीवाल द्वारा संदाय में असफल रहना। [धारा 138 (ग) ]

    धारा-139:- धारक के पक्ष में उपधारणा-

    जब तक कि तत्प्रतिकूल साबित न हो, यह उपधारणा की जाएगी कि चेक के धारक ने धारा 138 में निर्दिष्ट प्रकृति का चेक किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णत: या भागत: उन्मोचन के लिए प्राप्त किया है।

    धारा 139 के अधीन यह विधिक उपधारणा होती है कि चेक किसी पूर्ववर्ती दायित्व के उन्मोचन के लिए लिखा गया था एवं इस उपधारणा को केवल उस व्यक्ति द्वारा खण्डन किया जा सकता है जिसने चेक को लिखा है। उक्त उपधारणा चेक के धारक के पक्ष में होता है। यह इस धारा में नहीं कहा गया है कि उक्त उपधारणा केवल लेखीवाल के विरुद्ध ही लागू होगी।

    सभी प्रकार से यह उपधारणा साबित करने का भार उस व्यक्ति का होगा जो किसी मामले में साक्ष्य देता है। जहाँ लेखोवाल ऋण या आबद्धता के अस्तित्व का खण्डन करता है तो धारक पर आबद्धता आ जाती है कि वह यह साबित करे कि चेक किसी ऋण या दायित्व के उन्मोचन के लिए लिखा गया था।

    जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने जॉन के जॉन बनाम टयम वर्गीज के मामले में यह नियम स्थापित किया है कि धारा 139 के अधीन उपधारणा खण्डनीय होती है। ऋण एवं दायित्व के उपधारणा के लिए उधार देने की क्षमता भी एक महत्वपूर्ण कारक होती है।

    डी० बी० सीडलीन बनाम श्रीमती शकुन्तला के मामले में 4,50,000 रुपये ऋण देना यह पाया गया कि पाने वाला या धारक के क्षमता के बाहर था, अतः यह असम्भाविक एवं स्वीकार करने योग्य नहीं था।

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