निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 30: लिखत के सबूतों से संबंधित प्रावधान (धारा 118)
Shadab Salim
28 Sept 2021 6:22 PM IST
परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत धारा 118 साक्ष्य से संबंधित है। इस धारा में कुछ उपधारणा का उल्लेख किया गया है जो प्रकरणों के निर्धारण में सहायक होते हैं। यह इस अधिनियम की महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है।
प्रतिफल दिनांक इत्यादि के संबंध में यह धारा साक्ष्य का निर्धारण करती है और उससे संबंधित उपधारणा प्रस्तुत करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 118 की विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
धारा-118:-
अधिनियम की धारा 188 साक्ष्य के विशेष नियमों का उपबन्ध करती है। लिखत के अधीन कुछ उपधारणाएं होती हैं। जब तक कि प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता निम्नलिखित उपधारणाएँ की जाएंगी अर्थात न्यायालय इन्हें साबित मानकर ही मामले पर अपना निर्णय प्रस्तुत करेगा।
1. प्रतिफल के सम्बन्ध में (धारा 118 (क))
2. दिनाँक के सम्बन्ध में (धारा 118 (ख))
3. प्रतिग्रहण के समय के सम्बन्ध में (धारा 118 (ग))
4. अन्तरण के समय के सम्बन्ध में (धारा 118 (प))
5. पृष्ठांकन के क्रम के सम्बन्ध में (धारा 118 (ङ))
6. स्टाम्प के सम्बन्ध में (धारा 118 (च))
7. सम्यक् अनुक्रम धारक के सम्बन्ध में: धारा 118 (छ)
(1) प्रतिफल के सम्बन्ध में [ धारा 118 (क) ]:-
सभी लिखत अर्थात् वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक एक निश्चित धनराशि के संदाय करने का संविदा होते हैं। एक सामान्य संविदा में प्रतिफल सिने क्वानान (आवश्यक) होता है एवं बिना प्रतिफल के एक करार न्यूडम पैक्टम होता है, एवं अप्रवर्तनीय होता है। परन्तु परक्राम्य लिखत में जब तक प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता है, प्रतिफल उपधारित की जाती है।
धारा 118 की उपधारा (क) कहती है : "यह कि हर एक परक्राम्य लिखत प्रतिफलार्थ रचित या लिखी गयी थी और यह कि हर ऐसो लिखत जब प्रतिग्रहीत पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई थी।
परक्राम्य लिखतों के संविदा के सम्बन्ध में प्रतिफल को उपधारणा होती है जब तक कि प्रतिकूल साबित न कर दिया जाय। प्रत्येक परक्राम्य लिखत में यह उपधारित किया जाता है कि इसे प्रतिफल के लिए रचित, लिखित प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित किया गया है। परक्राम्य लिखत का यह विशेषाधिकार केवल लिखत के मूल पक्षकारों में ही नहीं, बल्कि उन पक्षकारों में भी माना जाता है जो पृष्ठांकन या अन्यथा रूप में सद्भावपूर्वक लिखत के धारक बनते हैं।
प्रतिफल की उपधारणा को हालांकि जहाँ लिखत को इसके विधिक स्वामित्व से कपट या असम्यक् असर या अवैध प्रतिफल से प्राप्त किया गया है, खण्डित की जाती है।
परक्राम्य लिखत के बाद में प्रतिवादी अपने दायित्व को प्रतिफल के अभाव में साबित के द्वारा लिखत का पक्षकार बनने की दशा में वर्जित कर सकता है। यदि प्रतिवादी, प्रतिफल के अभाव में वादी की धनराशि वसूल करने के अधिकार को विवादित करना चाहता है, तो उसे इसे साबित करना होगा। यदि प्रतिवादी प्रतिफल के बिना वाद को साबित करने में एक अच्छा याद बनाता है तो यह साबित करने का दायित्व वादी पर होता है कि वहाँ प्रतिफल था।
धारा 43 में उपबन्धित है कि प्रतिफल के बिना या ऐसे प्रतिफल के लिए, जो निष्फल हो जाता है, रचित, लिखित प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित या अन्तरणीय, परक्राम्य लिखत, उस संव्यवहार के पक्षकारों के बीच संदाय की कोई बाध्यता सृजित नहीं करती।
कब उपधारणा होती है- किसी लिखत में उपधारणा केवल प्रतिफल के सम्बन्ध में होती है न कि उसकी रचना, लिखने, पृष्ठांकन इत्यादि करने के सम्बन्ध में होती है। जब तक कि कोई विधिमान्य वचन पत्र विनिमय पत्र या चेक न हो, प्रतिफल साबित नहीं होती हैं।
रामुलू बनाम सिनौय्या में यह धारित किया गया है कि प्रतिफल की उपधारणा केवल उस समय उत्पन्न होती है, जबकि लिखत की सम्यक् निष्पादन स्थापित हो। उदाहरण के लिए एक वचन पत्र में वाद में वादी को प्रारम्भ में यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी के द्वारा वचन पत्र निष्पादित किया गया है।
ज्यों ही लिखत का निष्पादन साबित कर दिया जाता है न्यायालय यह उपधारणा रखेगा कि वचन पत्र प्रतिफल के लिए रचित किया गया है। यह उपधारणा उस समय तक बनी रहती है जब तक कि इसके प्रतिकूल साबित न कर दिया जाय।
कुन्दन लाल बनाम कस्टोडियन आफ इवैकुंद प्रापर्टी के मामले में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने यह सम्प्रेक्षित किया था कि "यह धारा परक्राम्य लिखत में प्रयोज्य साक्ष्य का विशेष नियम स्थापित करती है। यह : लिखतों के स्थापना के सम्बन्ध में उपधारणा नहीं करती है। ज्यों ही वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक की स्थापना साबित हो जाती है, तब यह विधि में यह उपधारणा होती है कि ऐसा लिखत, रचा, लिखा, प्रतिग्रहीत आदि प्रतिफल के लिए किया गया है।"
धारा 118 (क) का क्षेत्र प्रतिफल की उपधारणा तक ही सीमित होता है न कि प्रतिफल के मूल्य एवं प्रकार जिसमें यह दिया गया है। यह लिखत के स्थापना के सम्बन्ध में उपधारणा नहीं करता है।
थिरुमलाई बनाम सुब्बा राजू के मामले में यह धारित किया गया है कि प्रतिफल की मात्रा एवं लिखत में लिखित प्रतिफल के मूल्य के सम्बन्ध में उपधारणा नहीं होती है।
मोती गुलाब चन्द बनाम मोहम्मद के महत्वपूर्ण बाद में एक वृत्तिक ऋणदाता ने वचन पत्र पर एक युवक जो हाल ही में अपने पिता की सम्पदा का वारिस बना था, पर बाद लाया। युवक का कथन था कि उसने प्रतिफल का एक भाग प्राप्त नहीं किया था और दूसरा भाग अनैतिक था।
इस मामले के सम्बन्ध में मामले के तथ्यों को ध्यानगत रखते हुए न्यायालय ने यह धारित किया कि सामान्य उपधारणा कि एक लिखत प्रतिफलार्थं लिखा गया, इस सीमा तक कमजोर होता है और प्रतिवादी (युवक) के आरोप को ऋणदाता पर डालता है कि वह साबित करे कि उसने पूर्ण प्रतिफल का संदाय किया था।
धारा 118 (क) के क्षेत्र और साक्ष्य विधि की धारा 114 के सम्बन्ध में इसकी प्रयोज्यता को नारायण राव बनाम वेन्कटाप्पैय्या के बाद में स्पष्ट किया गया है :-
कि साक्ष्य का विशेष नियम जो इस धारा में स्थापित किया है, वह केवल लिखत पक्षकारों के बीच और उनसे अधिकारों का दावा करने वाले पर ही प्रयोज्य होता है। एक मृतक रचयिता के अविभक्त पुत्रों जो मिताक्षरा विधि से शासित थे, एक वचन पत्र के लिए वाद संस्थित किया गया। धारित किया गया कि रचयिता के उत्तराधिकारी या प्रतिनिधि के रूप में उन पर वाद नहीं लाया गया था, क्योंकि वादी ने हिन्दू विधि के पवित्र आबद्धता के सिद्धान्त पर पुत्रों के सम्बन्ध में जो उन्होंने सम्पत्ति के उत्तरजीवी के रूप में प्राप्त किए थे, वाद लाया था।
पवित्र आवद्धता तभी उत्पन्न हो सकती है जब पिता द्वारा देय ऋण आस्तित्व में हो। ऐसी दशा में ऋण के अस्तित्व को साबित करने की आवद्धता लेनदारों पर होती है जो साक्ष्य विधि के सामान्य सिद्धान्त जिसे साक्ष्य विधि की सामान्य विधि अर्थात् धारा 114 में अनुयोग्य उपधाराणा का सहयोग ले सकते हैं न कि इस अधिनियम की धारा 118 (क) के अधीन उपधारणा से।
इस धारा के अधीन उपधारणा वचन पत्र के रचयिता की मृत्यु पर प्रभावित नहीं होती है। यह सरकारी वचन पत्र भी लागू होता है।
( 2 ) तिथि के सम्बन्ध में उपधारणा [ धारा 118 (ख) ]:-
लिखतों में यह उपधारणा होती है कि प्रत्येक परक्राम्य लिखत पर जो तिथि होती है वह उस तिथि पर लिखत रचा या लिखा गया होगा, जब तक कि इसके प्रतिकूल साबित न किया जाए।
( 3 ) प्रतिग्रहण के समय की उपधारणा [ धारा 118 (ग) ]: -
यह कि प्रत्येक विनिमय पत्र इसके लिखे जाने के युक्तियुक्त समय के युक्तियुक्त समय के पश्चात् एवं परिपक्वता के पूर्व प्रतिग्रहीत किया गया होगा। हालांकि यह उपधारणा नहीं होती है कि प्रतिग्रहण का निश्चित समय क्या था। रावस बनाम बीधेल में एक विनिमय पत्र तिथि के तीन माह पश्चात् प्रतिग्रहीत किया गया था, प्रतिग्रहण की कोई तारीख नहीं थी, और ऊपरवाल वयस्कता प्राप्त किया, लिखत के परिपक्वता के दिन के पूर्व, यह उपधारित किया गया कि ऊपरवाल ने विनिमय पत्र को उस समय प्रतिग्रहीत किया था जब वह अवयस्क था।
(4) अन्तरण के समय की उपधारणा [ धारा 118 (घ) ]:-
लिखतों में यह उपधारणा होती है कि लिखत का प्रत्येक अन्तरण उसके परिवपक्वता के पूर्व किया गया था, परन्तु उसके अन्तरण करने के ठीक समय की उपधारणा नहीं होती है।
(5) पृष्ठांकन के क्रम की उपधारणा [ धारा 118 (ङ) ]:-
यह कि जिस क्रम में लिखत का पृष्ठांकन किया गया है उसके सम्बन्ध में उपधारणा होती है। इस उपधारणा को खण्डित किया जा सकता है।
(6) स्टाम्प की उपधारणा [ धारा 118 (च) ]:-
खोए हुए परक्राम्य लिखतों के सम्बन्ध में यह उपधारणा होती है कि उसे सम्यक् रूपेण स्टाम्पित किया गया होगा। ऐसी उपधारणा नष्ट किए गए लिखतों के सम्बन्ध में भी होती है। हालांकि कि चेक को स्टाम्पित होने की आवश्यकता नहीं होती है।
(7) प्रत्येक धारक को सम्यक् रूपेण होने की उपधारणा [ धारा 118 (छ) ]:-
महत्वपूर्ण उपधारणा प्रत्येक धारक को सम्यक् रूपेण धारक होने की होती है। परन्तु यह कि जहाँ लिखत को इसके विधिक स्वामी से उसके विधिपूर्ण अभिरक्षक से किसी अपराध द्वारा या कपट या उसके रचयिता या प्रतिग्रहीता से किसी अपराध या कपट या अवैध प्रतिफल से प्राप्त किया गया है, इसे साबित करने का कि धारक एक सम्यक् अनुक्रम धारक है, उसी पर होगा।
यह पहलू बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि केवल एक पाने वाला या एक सम्यक् अनुक्रम धारक ही धारा 138 के अधीन चेक के अनादर के लिए वाद संस्थित कर सकेगा। एक साधारण धारक ऐसा नहीं कर सकता है।
डी० एन० साहू बनाम बंगाल नेशनल बैंक लिले के मामले में यह धारित किया गया है कि परक्राम्य लिखत का प्रत्येक धारक प्रतिफल से प्राप्त किया है। यह एक सम्यक् अनुक्रम धारक को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं होगी कि वह कैसे सम्यक् अनुक्रम धारक बना है।
इस विषय को पूर्व में विस्तार से स्पष्ट किया गया है।
वचन पत्र के निष्पादन के सम्बन्ध में उपधारणा वचन पत्र के निष्पादन के सम्बन्ध में उपधारणा को मद्रास उच्च न्यायालय ने अशोक कुमार बनाम लाथ, के मामले में स्पष्ट किया है :-
वचन पत्र के निष्पादन की मूलतः साबित करने की आवद्धता सदैव वादी की होती है। उसे अकेले वचन पत्र के निष्पादन को साबित करना होता है और जब वह सफलतापूर्वक इसे साबित कर देता है तो इससे धारा 118 के अधीन प्रतिफल की सांविधिक उपधारणा स्थापित हो जाती है। ऐसी सांविधिक उपधारणा खण्डनीय होती है और प्रतिवादी इसे खण्डित करने के लिए स्वतंत्र होता है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह कोई आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी प्रत्यक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करे। यहाँ तक कि परिस्थितिजन्य या अधिसम्भावनाएँ (preponderance of possibilities) की प्रबलता भी विधिक उपधारणा को खण्डित करने के लिए पर्याप्त होगी।