निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 23: उपस्थापन कब अनावश्यक होता है (धारा 76)

Shadab Salim

25 Sep 2021 4:46 AM GMT

  • निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 23: उपस्थापन कब अनावश्यक होता है (धारा 76)

    परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) इससे पूर्व के आलेख में उपस्थापन से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की गई थी। उपस्थापन कब आवश्यक नहीं होता है यह भी एक महत्वपूर्ण विषय है। पराक्रम लिखत अधिनियम की धारा 76 के अंतर्गत इस बात का उल्लेख किया गया है कि उपस्थापन कब आवश्यक नहीं होता है।

    इस आलेख के अंतर्गत उन सभी परिस्थितियों का उल्लेख किया जा रहा है जिन परिस्थितियों के अंतर्गत उपस्थापन आवश्यक नहीं होता है।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम धारा 76 में उन परिस्थितियों को उपबन्धित किया गया है जिसके अन्तर्गत संदाय के लिए लिखतों का उपस्थापन अनावश्यक होता है और लिखत देय तिथि पर अनादृत मान लिया जाता है। धारा 64 का अपवाद धारा 76 है जहाँ संदाय के लिए लिखतों का उपस्थापन आवश्यक बनाया गया है।

    धारा 76 में वर्णित परिस्थितियों को निम्न समूह में अध्ययन के लिए रखा जा सकता है :-

    (1) जहाँ उपस्थापन को निवारित किया जाता है : [ धारा 76(क) ] -जहाँ लिखत का रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता साशय उपस्थापन का निवारण करता है। ऐसा निवारण साशय लिखत के रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता के अभिव्यक्त या विवक्षित कार्य या चूक से हो है। सकता ।

    (2) कारबार स्थान को बन्द रखना [ धारा 76 ( क ) ] - यदि लिखत को रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता के कारबार स्थल पर देय बनाया गया है, यदि वह कारबार के दिन कारबार को प्रायिक समय के दौरान में ऐसा स्थान बन्द कर देता है, लिखत को उपस्थापन करना अनावश्यक होगा और लिखत अनादृत मान लिया जाएगा। ऐसे स्थान को कारबार के दिन बन्द करना यह दिखाता है कि रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता संदाय से बच रहा है।

    (3) संदाय के स्थान पर किसी का हाजिर न रहना [ धारा 76(क) ] -जहाँ लिखत किसी अन्य विनिर्दिष्ट स्थान पर देय बनाया गया है और वहाँ पर न तो वह या उसकी ओर से कोई प्राधिकृत व्यक्ति कारबार के प्रायिक समय में हाजिर रहता है, उपस्थापन आवश्यक नहीं होगा।

    हाईन बनाम एलें के वाद में यह धारित किया गया है कि यदि लिखत को किसी गृह पर देय बनाया गया है, वह बन्द है वहाँ कोई व्यक्ति नहीं है वहाँ वास्तविक मनाही नहीं माना जाएगा। परन्तु सैन्डस बनाम क्लार्की के मामले में यह धारित किया गया है कि यह साबित करना हो पर्याप्त नहीं होगा कि प्रतिग्रहीता का या रचयिता का घर बन्द था। यहाँ पर धारक को आगे बढ़कर यह दिखाना होगा कि उसने पूछताछ की है और उसे पाने का प्रयास किया है।

    (4) सम्यक् तलाशी के पश्चात् न पाया जाना [ धारा 76 (क) ] - यदि लिखत किसी विनिर्दिष्ट स्थान पर देय नहीं बनाया गया है एवं वह सम्यक् तलाशी के पश्चात् भी नहीं पाया जाता है। जहाँ लिखत किसी विनिर्दिष्ट स्थान पर देय नहीं है वहाँ धारक की यह आवद्धता है कि वह पूछताछ करे एवं सम्यक् परिश्रम का प्रयोग करे जिससे लिखत के रचयिता, प्रतिग्रहीता या ऊपरवाल को पता लगाया जा सके और वचन पत्र, विनिमय पत्र एवं चेक को संदाय के लिए उपस्थापित किया जा सके। यदि सम्यक् तलाशी के पश्चात् भी रचयिता, प्रतिग्रहीता या ऊपरवाल को न पाया जा सके तो लिखत का उपस्थापन आवश्यक नहीं होगा।

    (5) परित्याग द्वारा [धारा 76(ख), (ग) ] - धारा 76 के खण्ड (ख) एवं (ग) में उन परिस्थितियों का उपबन्ध किया गया है जिसके अन्तर्गत रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता जो उपस्थापन की माँग करने का अधिकार रखता है, उपस्थापन का परित्याग कर दिया है। ऐसा परित्याग अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकता है।

    ऐसी परिस्थितियाँ हैं :-

    (i) जहाँ लिखत में अभिव्यक्तत: उपस्थापन का परित्याग किया गया है।

    (ii) उस पक्षकार को जिसे उससे भारित किया जाना इप्सित है, यदि वह अनुस्थापन के बावजूद भी शोध्य रकम का संदाय भागत: या पूर्णतः कर देता है।

    (iii) उस पक्षकार को जिसे उससे भारित किया जाना इप्सित है यह ज्ञान रखते हुए कि लिखत को उपस्थापित नहीं किया गया है उस शोध्य रकम को भागत: या पूर्णत: संदाय करने का वचन देता है।

    (iv) यदि पक्षकार जो संदाय के लिए आबद्ध है, उपस्थापन में किसी व्यतिक्रम का लाभ लेने का अपना अधिकार अन्यथा अभिव्यक्त कर देता है।

    (6) जहाँ लेखीवाल को नुकसान नहीं पहुंच सकता [ धारा 76 (घ) ] - जहाँ तक कि लेखीवाल का प्रश्न है, यदि लेखीवाल को ऐसे उपस्थापन के अभाव से नुकसान नहीं पहुँच सका है। यह खण्ड (घ) केवल चेक के सम्बन्ध में सामान्यतया प्रयोज्य होता है। अतः यह खण्ड वचन पत्र के सम्बन्ध में प्रयोज्य नहीं होता है। मुहम्मद बनाम अब्दुल्ला में यह धारित किया गया है कि यह खण्ड वचन पत्र के सम्बन्ध में लागू नहीं होता है, क्योंकि अधिनियम में पूर्णतया "लेखीवाल" एवं "रचयिता" में अन्तर स्थापित किया है और इन शब्दों को पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त नहीं किया है।

    एक चेक का लेखीवाल कोई नुकसान या क्षति नहीं उठाता है जहाँ उसके खाते में पर्याप्त निधि नहीं होती है जिससे चेक का संदाय किया जा सके। परन्तु जहाँ लेखीवाल यह विश्वास रखने का कारण रखता है कि चेक के उपस्थापन पर खाते में पर्याप्त निधि की व्यवस्था हो जाएगी वहाँ धारक, लेखीवाल को भारित करने के लिए चेक का उपस्थापन करना आवश्यक होगा।

    यह साबित करने का भार कि लेखीवाल को कोई हानि या क्षति कारित नहीं हुई है उस पर होगी जो उपस्थापन का दावा करता है-

    एक सौकर्य विल जब किसी पक्ष कर्य करने के लिए लिखा जाता है, वहाँ भी उपस्थापन से क्षति कारित नहीं होती है। अतः सौकर्य बिल भी धारा 76 के खण्ड (घ) से आच्छादित होता है।

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