निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 12 : पक्षकारों के दायित्व- (धारा 30, 31, 32)
Shadab Salim
16 Sept 2021 2:37 PM IST
परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत इससे पूर्व के आलेखों में पक्षकारों के संबंध में उल्लेख किया जा चुका है। विदित रहे कि इस अधिनियम के अंतर्गत तीन प्रकार के लिखत के संबंध में उल्लेख किया गया है जो क्रमशः वचन पत्र, विनिमय पत्र और चेक है।
इन लिखत के पक्षकारों कौन होते हैं इसका भी उल्लेख पूर्व के आलेखों में किया जा चुका है, पक्षकारों से संबंधित जानकारी के लिए पूर्व के आलेखों का अध्ययन किया जा सकता है। इस आलेख के अंतर्गत अधिनियम में प्रावधानित किए गए इन पक्षकारों के दायित्वों का उल्लेख किया जा रहा है जो इस अधिनियम की धारा 30, 31, 32 से संबंधित है।
लेखीवाल-
विनिमय पत्र या चेक का लेखीवाल (लेखक) धारक को क्षतिपूर्ति करने के लिए आबद्ध होते हैं यदि विनिमय पत्र की दशा में प्रतिग्रहीता एवं चेक की दशा में ऊपरवाल बैंक क्रमशः विनिमय पत्र या चेक का अनादर कर देते हैं, बशर्ते कि अनादर की सम्यक् सूचना लेखीवाल को की जाती है।
चेक की दशा में चेक द्वारा इसका लेखीवाल ऊपरवाल (बैंक) को एक निश्चित धनराशि पाने वाले को संदाय करने का आदेश अपने खाते से करने को देता है। जहाँ बैंक द्वारा चेक का अनादर कर दिया जाता है वहाँ चेक का धारक बैंक के विरुद्ध कोई उपचार नहीं रखता है, परन्तु धारक चेक के लेखक पर मुख्य ऋणी के रूप में वाद लाने का अधिकार रखता है। साथ ही साथ धारा 138 के अधीन लेखीवाल के दायित्व चेक के अनादर के सम्बन्ध में भी उत्पन्न होता है।
विनिमय पत्र की दशा में विनिमय पत्र में मूल ऋणी उसका प्रतिग्रहीता होता है अतः प्रतिग्रहीता ही विनिमय पत्र में मूल ऋणी के रूप में धारक के प्रति दायित्वाहीन होता है। परन्तु जब विनिमय पत्र का ऊपरवाल अपना प्रतिग्रहण देने से मना कर देता है या प्रतिग्रहण के पश्चात् विहित समय पर संदाय करने में असफल हो जाता है, तब इस धारा (धारा 30) के अधीन लेखीवाल धारक के प्रति दायी होता है।
लेखीवाल का विनिमय पत्र लिखने में जो व्यवस्था होती है उसके अनुसार वह ऊपरवाल से यह अपेक्षा करता है कि-
(1) सम्यक् उपस्थापन पर ऊपरवाल इसे प्रतिग्रहीत करेगा एवं इसके प्रकट शब्दों के अनुसार इसका संदाय करेगा।
(2) यदि इसे अनादृत किया जाता है वह, धारक को या किसी पृष्ठांकिती को क्षतिपूर्ति करेगा यदि अनादर की सम्यक् सूचना दी गई है।
विनिमय पत्र या हुण्डी के लेखीवाल का दायित्व केवल सशर्त होती है। लेखीवाल संदाय की आबद्धता उस समय लेता है जब विनिमय पत्र या हुण्डी का अनादर होता है। अतः अनादर के बिना माँग और ऋण नहीं होता है। परन्तु जब विनिमय पत्र का अनादर हो जाता है एवं अनादर की सूचना दे दी जाती है तो लेखीवाल एवं ऊपरवाल जो भी लेखे की स्थिति हो, लेखीवाल, पाने वाले के प्रति धनराशि के लिए आबद्ध हो जाता है जो उसे उस स्थिति में रखेगा जैसे कि धनराशि सम्यक् रूप में संदत्त कर दी जाती।
इसी प्रकार लेखीवाल का दायित्व इस धारा के अधीन उत्पन्न होता है, यदि विनिमय पत्र अप्रतिग्रहण के कारण अनादृत कर दी जाती है। क्योंकि लेखक की व्यवस्था के अनुसार विनिमय पत्र के उपस्थान पर उसे ऊपरवाल द्वारा प्रतिग्रहीत की जाएगी।
विनिमय पत्र के अप्रतिग्रहण की दशा में अनादर की दशा में इसकी सम्यक् सूचना देने पर तुरन्त लेखीवाल पर सम्पूर्ण धनराशि के लिए बिना परिपक्वता की प्रतीक्षा के वाद लाने का अधिकार होता है।
दालसुख बनाम मोतीलाल में यह धारित किया गया है कि विनिमय पत्र की दशा में जब तक यह प्रतिग्रहीत नहीं हो जाता है लेखीवाल मूल ऋणी होता है, परन्तु प्रतिग्रहण के पश्चात् लेखीवाल का दायित्व बदल जाता है और उसकी स्थिति प्रतिभू के रूप में हो जाती है और प्रतिग्रहीता मूल ऋणी हो जाता है। यह विनिमय पत्र के ऊपरवाल एवं प्रतिग्रहीता के दायित्व सम्बन्धी विधि है।
अधिनियम की धारा 32 वचन पत्र के रचयिता एवं विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता के दायित्व को समान बनाता है अर्थात् दोनों मूल ऋणी होते हैं।
{ऊपरवाल}
ऊपरवाल का संदाय करने का विधिक कर्तव्य-
अधिनियम की धारा 31 में चेक के ऊपरवाल (बैंक) का यह विधिक कर्तव्य है कि वह लेखीवाल (ग्राहक) की ऐसी पर्याप्त निधियाँ जो उसके हाथ में (ग्राहक के खाते में) है और उसे चेक के संदाय में उचित रूप में उपयोजित की जा सकती हो और ऐसा करने के लिए सम्यक् रूप से अपेक्षा किये जाने पर चेक का संदाय करे। ऐसे संदाय में यदि बैंक व्यतिक्रम करता है तो ऐसे किसी भी हानि या नुकसान के लिए प्रतिकर उसे लेखीवाल को देना होगा।
चेक के संदाय करने में बैंक के विधिक कर्तव्य की अपेक्षाएं-
1. लेखीवाल के खाते में पर्याप्त निधि का होना।
2. ऐसी निधि चेक के संदाय के लिए उचित रूप में उपयोजित की जा सकती है।
3. संदाय करने की सम्यक् रूप से अपेक्षा की जाती है।
इन परिस्थितियों में चेक के ऊपरवाल (बैंक) का यह विधिक कर्तव्य है कि चेक का संदाय करे और ऐसा न करने पर लेखीवाल को प्रतिकर देना होगा जो-
(i) कोई नुकसान, या
(ii) क्षति (ऐसे व्यतिक्रम से उत्पन्न)
परन्तु यह उपचार केवल चेक के लेखीवाल को प्राप्त है न कि चेक के धारक को इसका उपचार केवल लेखीवाल के विरुद्ध होता है। यह धारा इसे और स्पष्ट करती है कि चेक के अनादर की दशा में ऊपरवाल (बैंक) की आबद्धता केवल लेखीवाल के लिए होता है न कि चेक के धारक के प्रति । चेक का धारक अनादर के लिए उपचार लेखीवाल के विरुद्ध रखता है।
यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि बैंक एवं ग्राहक का सम्बन्ध जिसने बैंक में अपने खाते में जमा किया है सामान्यतया संविदा से उत्पन्न होता है और उनके बीच सम्बन्ध ऋणी एवं ऋणदाता का होता है एवं इसके साथ बैंक की अतिरिक्त आबद्धता होती है कि वह अपने खातेदार के चेकों का भुगतान करेगा यदि खाते में पर्याप्त निधि है। चेक के अनादर के संबंध में दाण्डिक प्रावधानों का उल्लेख इस अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत किया गया है।
बैंक को विधिक रूप में अनेक परिस्थितियों में लेखीवाल के चेक का भुगतान करने से मना कर सकता है।
{प्रतिग्रहीता}
वचन पत्र के रचयिता एवं विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता के दायित्व का उपबन्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 32 में किया गया है। उक्त दोनों लिखत के प्राथमिक पक्षकार मूल ऋणी होते हैं।
वचन पत्र का रचयिता-
लिखत के अधीन वचन पत्र का रचयिता प्रधान रूप से दायी होता है और उसकी वचनबद्धता आत्यन्तिक एवं बिना शर्त के होती है। वचनपत्र का रचयिता इसे लिखकर यह वचनबद्ध होता है कि इसका भुगतान वचन पत्र के प्रकट शब्दों के अनुसार करेगा। चूँकि रचयिता का दायित्व प्रधान रूप से आत्यन्तिक होता है अतः अनादर की सूचना उसे बाध्य बनाने के लिए आवश्यक नहीं होती है। परन्तु वचन पत्र के रचयिता की आबद्धता उसके द्वारा वचन पत्र पर हस्ताक्षर कर परिदत्त करने के बाद ही उत्पन्न होता है।
पुनः वचन पत्र के रचयिता का प्रधान एवं आत्यन्तिक दायित्व को विनिमय पत्र के लेखक की द्वितीयक एवं सशर्त दायित्व से अन्तर रखना होगा। सामान्य रूप में वचन पत्र के रचयिता से मिलता दायित्व विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता से होता है और दोनों समान नियम से शासित होते हैं।
जिस क्षण यह साबित हो जाता है वचन पत्र के रचयिता ने वचन पत्र को रचा है या विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता ने विनिमय पत्र को प्रतिग्रहीत किया है उस पर यह आबद्धता होती है कि वह इसे स्पष्ट करे कि वह लिखत के अधीन आबद्ध नहीं है।
विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता-
विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता विनिमय पत्र में संदाय के लिए प्रमुख व्यक्ति होता है और वह प्रतिग्रहण करने की वजह से आबद्ध होता है। उसका विनिमय पत्र पर प्रतिग्रहण करने का हस्ताक्षर प्रथम दृष्टया इसकी अभिस्वीकृति होती है कि लेखीवाल का कोई निधि उसके हाथ में है जिससे लेखीवाल उसे भुगतान करने का आदेश दिये हुए तरीके से किया गया है।
विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता की आबद्धता वचन पत्र के रचयिता के समान आत्यान्तिक बिना किसी शर्त के होता है। विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता इसे स्वीकार करता है कि अपने प्रतिग्रहण के स्पष्ट शब्दों के अधीन वह संदाय करेगा। लेकिन विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता की आबद्धता मात्र उसके विनिमय पत्र पर हस्ताक्षर से उत्पन्न नहीं होता जब तक या तो प्रतिग्रहण के पश्चात् विनिमय पत्र को परिदत्त करे या इसकी सूचना धारक को दे।
विनिमय पत्र का लेखीवाल विनिमय पत्र के प्रतिग्रहण के पूर्व संदाय के लिए दायी नहीं होता है और तब तक लेखक एवं पाने वाले या अन्य धारक के बीच संविदा संसर्ग (संविदात्मक सम्बन्ध) नहीं होता है। धारक या पाने वाला प्रतिग्रहण न करने की दशा में ऊपरवाल पर वाद नहीं ला सकता है। उसके अनादर की दशा में धारक का उपचार लेखीवाल के विरुद्ध होता है।
इस धारा के अधीन वचन पत्र के रचयिता एवं विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता की आबद्धता किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में होती है। तत्प्रतिकूल संविदा" की पदावलि धारा 59 के अधीन सौर्य पत्र या विप को सम्मिलित करती है। इस धारा के अधीन वचन पत्र के रचयिता एवं विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता की आबद्धता आनुषंगिक अनुबन्ध के द्वारा अपवर्जित या उपान्तरित की जा सकती है।
स्टोल बनाम मैक किनले के मामले में न्यायालय का यह सम्प्रेक्षण था कि "विनिमय पत्र के पक्षकार निःसन्देह आपस में अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा करने को सक्षम हैं कि वाणिज्यिक विधि द्वारा विहित स्थिति एवं अयोग्यताओं में बदलाव कर सकेंगे।
विनिमय पत्र के लेखक एवं प्रतिग्रहीता में यह अनुबन्ध हो सकता है कि उनके बीच प्रतिग्रहीता, लेखीवाल के अधिकार को रखेगा और लेखीवाल, प्रतिग्रहीता की आबद्धताओं के अधीन होगा और जब अनुबन्ध साबित हो जाएगा तो दोनों पर बाध्यकारी होगा, यद्यपि यह अन्य पक्षकारों को आबद्धताओं पर कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न करेगा। यहाँ पर जनजीवन का मामला उल्लेखनीय है। इस मामले में वादी एक हुण्डी में पाने वाला था। हुण्डी को बसरा से डाक द्वारा पाने वाले को भेजा गया।
हुण्डी अन्य पक्षकार को मिली जिसने ऊपरवाल से संदाय प्राप्त कर लिया। उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि चूँकि यहाँ हुन्डी पर प्रतिग्रहण नहीं था, अतः धारा 32 के अधीन ऊपरवाल आबद्ध नहीं था, क्योंकि ऊपरवाल की आबद्धता हुण्डी में उसके प्रतिग्रहण के पश्चात् ही उत्पन्न होती है।
अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि इस रूप में ऊपरवाल लिखत में आबद्ध होता है। इसका केवल एक ही अपवाद धारा 31 के अधीन है कि चेक का ऊपरवाल जो लेखीवाल का पर्याप्त निधि अपने हाथ में (खाते में) रखता है, परन्तु यहाँ पर आबद्धता लेखीवाल के प्रति न कि धारक के प्रति ऊपरवाल (बैंक) को होती है।
वचनपत्र या प्रतिग्रहण के प्रकट शब्दों के अनुसार संदाय धारा 32 के अनुसार-
(1) वचन पत्र का रचयिता इसके प्रकट शब्दों के अनुसार संदाय करे।
(2) विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता अपने प्रतिग्रहण के प्रकट शब्दों के अनुसार संदाय करे।
वचन पत्र के रचयिता एवं विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता के संदाय के तरीके में इससे अन्तर उत्पन्न होता है। वचन पत्र का रचयिता वचन पत्र का निर्माणकर्ता होता है और इसे रचने के बाद अन्य पक्षकार को सहमति के बिना इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है, जबकि विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता विनिमय पत्र का निर्माणकर्ता नहीं होता है, विनिमय पत्र का निर्माण लेखीवाल करता है, परन्तु जब इसे ऊपरवाल को उपस्थापित किया जाता है वह विशेषित प्रतिग्रहण दे सकता है।
इस प्रकार यदि जब प्रतिग्रहण सामान्य होता है, प्रतिग्रहीता जैसा विनिमय पत्र है संदाय के लिए आबद्ध होता है, यदि प्रतिग्रहण विशेषित है, वहाँ यह अपने प्रकट शब्दों के अनुसार संदाय करने को आबद्ध होता है न कि विनिमय पत्र के निर्माण के अनुसार प्रकट शब्दों के अनुसार (धारा 56) एक रचयिता या एक प्रतिग्रहीता, जैसी भी स्थिति हो, लिखत के प्रकट शब्दों के अनुसार संदाय करने को आबद्ध होते हैं, यह आवश्यक है कि-
संदाय वचन पत्र या विनिमय पत्र के धारक को किया जाय, इसके सिवाय किसी अन्य व्यक्ति को संदाय लिखत की उन्मुक्ति नहीं होगी सिवाय जहाँ लिखत वाहक को देय है और संदाय सम्यक अनुक्रम में किया जाता है।
व्यतिक्रम के लिए प्रतिकर ऐसे संदाय के व्यतिक्रम करने पर वचनपत्र का रचयिता या विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता केवल वचनपत्र या विनिमय पत्र के धारक को ही नहीं, बल्कि ऐसे व्यतिक्रम से उत्पन्न होने याला हानि या क्षति जो लिखत के अन्य पक्षकारों को उठानी पड़ती है को प्रतिकर देने की आबद्धता होगी।
अपवाद-परन्तु स्वीकार्य विनिमय पत्र या वचनपत्र की दशा में यह पक्षकार जिसके लिए स्वीकार्यता दी गयी है हानि या क्षति के लिए प्रतिकर पाने का हकदार नहीं होगा जब तक कि इस बीच उसके द्वारा वचनपत्र के रचयिता या विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता के पास लिखत के परिपक्वता पर संदाय के लिये पर्याप्त निधि की आपूर्ति कर दी गई है।
विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता इस धारा के अधीन प्रतिकर देने का आबद्ध होता है एवं उसकी यह आबद्धता इस वजह से समाप्त नहीं होती है कि प्रतिग्रहीता ने माल का परिदान अपने प्रतिग्रहण के सम्बन्ध में प्राप्त नहीं किया है।
यहाँ पर मोती शाह बनाम मर्केन्टाइल बैंक ऑफ इण्डिया का वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इस वाद के तथ्य थे-
24 जून, 1914 को एक जर्मन निवासी हैमबर्ग के निवासी पर एक विनिमय पत्र प्रतिवादियों पर वादियों के पक्ष में £ 65.0.6 जो दिखाने के 30 दिन बाद देय था। वादी के आदेश पर देय था। विनिमय पत्र प्रतिवादियों पर 50 मालों की गाँठ एक जर्मन स्टीमर एस० एस० लिवटेनफेल्स के सम्बन्ध में था। यह विनिमय पत्र 20 जुलाई, 1914 को प्रतिग्रहीत किया गया जो बम्बई में वादी के कार्यालय पर देय था।
एस० एम० लिबटेनफेल्स ग्रेट ब्रिटेन एवं जर्मनी में युद्ध प्रारम्भ होने के ठीक पूर्व बम्बई पहुंचा। पकड़ लिये जाने के डर से वह तटस्थ बन्दरगाह मरमागोवा में शरण ली। शिपिंग अभिलेखों के साथ विनिमय पत्र को देय तिथि पर संदाय के लिए प्रस्तुत किया, परन्तु असन्दय के कारण विनिमय पत्र अनादृत हो गया। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया जिसके द्वारा ब्रिटिश जनता को यह अधिकृत किया गया कि वे विदेशी शत्रु के जहाज मालिक के अभिकर्ता को अपने मालों जो तटस्थ बन्दरगाह पर स्थित है, के सम्बन्ध में संदाय करे।
वादियों का कथन था कि उन्होंने विनिमय पत्र के अधीन जो देय संदाय था अभिलेखों को संदाय के विरुद्ध देने को इच्छुक थे। अन्त में विनिमय पत्र की धनराशि के वसूली के लिए वाद लाए यह कहते हुए कि विनिमय पत्र पर प्रतिग्रहण आत्यन्तिक एवं बिना शर्त का था। अतः प्रतिवादीगण संदाय करने के लिए आबद्ध थे। प्रतिवादियों का कथन था कि उनका प्रतिग्रहण माल प्राप्ति के शर्त के साथ था।
अतः संदाय करने से मना कर दिया जब तक कि माल का परिदान उन्हें नहीं हो जाता न्यायालय ने यह धारित किया कि वादीगण संदाय के मतानुसार हकदार थे, क्योंकि न्यायालय का मानना था कि प्रतिग्रहण आत्यन्तिक एवं अविशेषित था, अतः विनिमय पत्र की परिपक्वता पर संदाय के लिए आबद्ध थे जब धनराशि अध्यादेश लागू करने के पश्चात् मांगी गयी थी, जबकि प्रतिवादियों को परिदान लेने के लिए अनुयोज्य किए गए थे।