एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 35: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी और सीज़िंग की रिपोर्ट देना

Shadab Salim

24 March 2023 3:53 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 35: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी और सीज़िंग की रिपोर्ट देना

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 57 इस अधिनियम की महत्वपूर्ण आज्ञापक प्रावधान करती धारा है। इस धारा के प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि गिरफ्तारी करने वाले किसी भी अधिकारी को ऐसी गिरफ्तारी या अभिग्रहण की रिपोर्ट अपने वरिष्ठ अधिकारी को करेगा।

    यह धारा अभियुक्त पर असत्य आधारों पर प्रकरण बनाए से रोक लगाती है। यह आलेख के अंतर्गत धारा 57 पर न्याय दृष्टांत सहित विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 57

    गिरफ्तारी और अभिग्रहण की रिपोर्ट- जब कोई व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन कोई गिरफ्तारी या अभिग्रहण करता है तब वह ऐसी गिरफ्तारी या अभिग्रहण के ठीक पश्चात् अड़तालीस घंटों के भीतर, ऐसी गिरफ्तारी या अभिग्रहण की सभी विशिष्टियों की पूरी रिपोर्ट अपने अव्यवहित पदीय वरिष्ठ अधिकारी को देगा ।

    इस प्रावधान का अपालन

    2005 क्रिलॉज 519 गुवाहाटी के मामले में अधिनियम की धारा 42 व 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया था। अधिनियम की धारा 57 की अपेक्षानुसार गिरफ्तारी व जब्ती के 48 घंटे के भीतर वरिष्ठ अधिकारी को सूचित नहीं किया गया। अधिनियम की धारा 42 में वर्णित किसी विभाग के नजदीकी राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करवाए जाने के अधिकार बाबत भी अवगत नहीं कराया गया। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    उसमान हैदर खान बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 1991 (1) क्राइम्स 777:1991 क्रिलॉज 232 बम्बई के मामले में अधिनियम की धारा 42, 50 व 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। इन प्रावधानों के अपालन में होने वाली पुलिस अधिकारीगण की साक्ष्य पर दोषसिद्धि आधारित करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    एक अन्य मामले में अधिनियम की धारा 42, 50 व 57 के प्रावधानों का पालन होना नहीं पाया गया। जमानत स्वीकार कर ली गई। शंकर बनाम स्टेट, 1994 (2) ई.एफ.आर. 359 बम्बई मामले में अधिनियम की धारा 52,55, व 57 के प्रावधानों के अपालन का तर्क दिया गया था। इन प्रावधानों के अपालन के आधार पर अभियुक्त को कोई प्रतिकूलता होना प्रमाणित नहीं की गयी थी। परिणामतः अभियुक्त को दोषमुक्त किए जाने की प्रार्थना अस्वीकार कर दी गयी।

    देवीसिंह बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.,2002 (2) म.प्र.वी. नो. 111 म.प्र. मामले में अधिनियम की धारा 55 व 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। अभियुक्त को दोषसिद्ध करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    सम्पत लाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1993 (1) म.प्र.वी. नो. 159 म.प्र के मामले में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान का अपालन होना पाया गया। एक्साइज सब-इंस्पेक्टर ने प्रतिपरीक्षण में यह मंजूर किया था कि उसने उसके वरिष्ठ अधिकारियों को जब्ती व गिरफ्तारी के संबंध में सूचित नहीं किया था। सब इंस्पेक्टर का यह कहना था कि वह यह समझता था कि ऐसी जानकारी भेजना आवश्यक नहीं था। उपरोक्त स्थिति में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान का अपालन होना माना गया।

    अधिनियम की धारा 57 यह अपेक्षा करती है कि जब कोई व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत कोई गिरफ्तारी अथवा जप्ती करता है तो वह 48 घंटे के भीतर वरिष्ठ अधिकारी को गिरफ्तारी अथवा जप्ती के ब्यौरों की पूर्ण रिपोर्ट देगा। यदि इस प्रावधान का अपालन किया जाता है तो मामले के अन्वेषण में गंभीर दुर्बलता होना मानी जाएगी। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    सनत कुमार बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.,2005 क्रिलॉज 2272 म.प्र के प्रकरण में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/22 के तहत दोषसिद्ध किया था। इस संबंध में इस पर 10 वर्ष का सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया था। अपीलांट अभियुक्त ने दोषसिद्धि को इस आधार पर चुनौती दी थी कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52 एवं 57 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि इस संबंध में अभियुक्त के एडवोकेट द्वारा लगाया गया आरोप सही व उचित होना पाया जाता है।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने यह बताया था कि उसने अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी करने के उसके अधिकार बाबत अवगत करा दिया था। एस.डी.ओ.पी. अभियोजन साक्षी 6 ने यह नहीं बताया था कि उसने अभियुक्त को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी द्वारा तलाशी करवाने के अभियुक्त के अधिकार को अभियुक्त को बता दिया था।

    एस.डी.ओ.पी. अभियोजन साक्षी 6 ने यह बताया था कि उससे यह कहा गया था कि वह एक राजपत्रित अधिकारी है और वह तलाशी या तो स्टेशन हाउस ऑफीसर को दे सकता है अथवा राजपत्रित अधिकारी को दे सकता है। उपरोक्त कथित खंडन के आधार पर यह स्पष्ट था कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाए जाने के अधिकार बाबत अवगत कराया गया था।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि उसने रोजनामचा में गोपनीय सूचना अभिलिखित की थी व गोपनीय सूचना को आरक्षक के माध्यम से एस.डी.ओ.पी. आगर को भेजा गया था। इसके उपरांत एस.डी.ओ.पी. आगर पुलिस स्टेशन पर आ गया था। मामले में अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से एस.डी.ओ.पी. आगर के लिए गोपनीय सूचना प्राप्त की थी। एस.डी.ओ.पी. ने भी यह नहीं बताया था कि उसने आरक्षक के माध्यम से सूचना प्राप्त हुई थी। इसके विपरीत उसने बताया था कि स्टेशन हाउस ऑफीसर के द्वारा उसे टेलीफोन पर अवगत कराया गया था कि अभियुक्त के बाबत गोपनीय सूचना प्राप्त हुई थी।

    इस प्रकार यह प्रमाणित होना नहीं माना गया कि स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने आरक्षक के माध्यम से वरिष्ठ प्राधिकारियों को सूचित किया था। इस प्रकार अधिनियम की धारा 42 का पालन भी संदेहास्पद माना गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियोजन ने यह दर्शित करने के लिए कोई साक्षी अथवा दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की थी कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के उपरांत उसके आधिपत्य से स्मैक की बरामदगी के संबंध में अधिनियम की धारा 57 में यथाप्रावधानित अनुसार सूचना को वरिष्ठ प्राधिकारियों को भेजी गई थी।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने अधिनियम की धारा 57 के पालन के संबंध में एक शब्द भी नहीं बताया था। इस प्रकार अधिनियम की धारा 57 के प्रावधानों का भी अपालन होना पाया गया। स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि जप्त प्रतिषिद्ध वस्तु को नमूनों के साथ पुलिस स्टेशन के मालखाना में रखा गया था। अभियोजन ने मालखाना के मुख्य आरक्षक को यह प्रमाणित करने के लिए परीक्षित नहीं कराया था कि इसे सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था।

    मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि भी प्रस्तुत नहीं की गई थी। अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण भी नहीं कराया था। जिसने कि पुलिस स्टेशन से फोरेसिक साइंस लेबोटरी इंदौर के लिए नमूना प्राप्त किया था। यह दर्शित करने की कोई साक्ष्य नहीं थी कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरी को नमूना भेजने के पूर्व इसे पुलिस स्टेशन में सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था एवं नमूना अविकल व सीलयुक्त बना रहा था।

    म.प्र. हाई कोर्ट ने स्वापक औषधि अधिनियम के तहत होने वाले गंभीर दंडादेश को दृष्टिगत रखते हुए यह व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52, 55 एवं 57 के प्रावधान का उल्लंघन जप्ती की साखता एवं उचितता पर संदेह उत्पन्न करता है। अधिनियम की धारा 42,50, 52, 55 एवं 57 के प्रावधान के अपालन के आधार पर तलाशी व जप्ती दूषित होना मानी गई। अभियुक्त की दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं मानी गई।

    दिवाकरण बनाम स्टेट ऑफ केरल, 1999 (1) क्राइम्स 5 केरल के मामले में अधिनियम की धारा 52 व 57 के प्रावधान की प्रकृति आदेशात्मक स्वरुप की नहीं मानी गई। इन प्रावधानों को अधिनियम की धारा 41 से 44 के अधीन गिरफ्तारी व जप्ती को प्रभावी करने के उपरांत उपयोग में लाया जाता है।

    स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम सोरनसिंह, 1998 क्रिलॉज 1829 हिमाचल प्रदेश पूर्णपीठ के मामले में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान की प्रकृति निर्देशात्मक मानी गई। इसका स्वरूप आदेशात्मक नहीं माना गया। अधिनियम की धारा 20 (ख) (i) के तहत अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित मानी गई। (सुनील कुमार बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2000 (1) म.प्र.वी. नो. 195.म.प्र.) अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान की प्रकृति आदेशात्मक मानी गई। यदि विहित अवधि के भीतर वरिष्ठ अधिकारी को रिपोर्ट प्रस्तुत न की गई हो तो अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान का अपालन होना माना जाएगा। ऐसी स्थिति में अभियुक्त दोषमुक्ति का हकदार होगा।

    गुरुवशसिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाना, ए.आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 1002 के मामले में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान के पालन के बिन्दु पर विचार किया गया। यह प्रावधान यह दर्शाता है कि जब कोई व्यक्ति अधिनियम के अधीन कोई गिरफ्तारी या जब्ती करता है तो वह ऐसी गिरफ्तारी या जब्ती के बाबत उसके ठीक वरिष्ठ अधिकारी संपूर्ण ब्यौरों की पूर्ण रिपोर्ट भेजेगा। यह माना गया कि अधिनियम की धारा 57 के प्रावधान का पालन निर्देशात्मक है।

    स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम सोरन सिंह, 1998 क्रि. लॉज. 1829 हिमाचल प्रदेश पूर्णपीठ के प्रकरण में अधिनियम के निम्न प्रावधानों को आदेशात्मक माना गया-

    धारा 42.

    धारा 50.

    धारा 52 एवं

    अधिनियम की धारा 57

    इस मामले में उक्त आदेशात्मक प्रावधानों का पालन होना नहीं पाया गया था। परिणामतः अधिनियम की धारा 15 के अपराध में दोषमुक्ति की गई।

    रमेश बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2001 (1) म.प्र.वी. नो. 63 म.प्र के मामले में अभियुक्त को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में तलाशी करवाने के उसके अधिकार को अवगत कराने के लिए सूचना पत्र निर्वाहित कराया गया था। अभियुक्त स्टेशन अधिकारी से ही तलाशी करने के विकल्प को चुना था। इस अधिकारी ने अभियुक्त के बैग की तलाशी ली थी और इसमें गाँजा होना पाया था। 5.800 किलोग्राम गाँजा जप्ती पत्रक के अनुसार जप्त किया गया था। 50 ग्राम के नमूने को इसमें से लिया गया था और इसे सीलबंद किया गया था।

    उसने तलाशी एवं जब्ती के संबंध में वायरलेस के माध्यम से अधिकारी को सूचित किया था। इसकी एक प्रतिलिपि प्रदर्श पी 19 के रुप में थी। उसने फोरेंसिक साइंस लेबोटरी को नमूना भेजा था। रासायनिक परीक्षक की रिपोर्ट प्राप्त हो गई थी और उसमें प्रतिषिद्ध वस्तु गाँजे के रुप थी। मामले में अन्वेषण अधिकारी की परिसाक्ष्य का समर्थन पंचसाक्षीगण ने नहीं लिया था।

    हालांकि अन्वेषण अधिकारी की परिसाक्ष्य उसके द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों से पूरी तौर पर समर्थित थी। अन्वेषण अधिकारी ने अधिनियम की धारा 42, 50 व 57 में प्रावधानित प्रक्रियात्मक संरक्षाओं का पालन किया था उसकी साक्ष्य पूरी तौर पर विश्वसनीय थी। अपराध प्रमाणित माना गया।

    सम्पत लाल बनाम स्टेट ऑफ एम. पी., 1993 (1) म.प्र.वीकली नोट्स 159 म.प्र के मामले में जब्ती दिनांक 25/4/1989 के होना बताया गया था। रासायनिक परीक्षक के कथन के अनुसार रासायनिक परीक्षण के लिए नमूना प्रयोगशाला में दिनांक 18/10/1989 को प्राप्त हुआ था अर्थात् यह जब्ती से लगभग 6 माह उपरांत प्राप्त हुआ था। यह नमूना पत्र दिनांकित 8/9/1989 के साथ अग्रेषित किया गया था।

    एक्साइज सब-इंस्पेक्टर ने इस संबंध में मात्र इस आशय का साधारण कथन दिया था कि उसने नमूने को नीमच परीक्षण के लिए भेज दिया था व शेष अफीम को एक्साइज विभाग में जमा करा दिया था। इस 6 माह की अवधि में नमूना अथवा सामग्री कहाँ रही एवं क्या उचित सतर्कता के अधीन रही यह ज्ञात करना संभव नहीं माना गया। इस बाबत भी कोई स्पष्टीकरण नहीं था कि रासायनिक परीक्षक को नमूना भेजे जाने में इतना समय क्यों लगा था। अभियोजन का मामला अप्रमाणित माना गया।

    मोहन सिंह बनाम स्टेट ऑफ एम. पी., 1997 (2) म.प्र.वीकली नोट्स 103 के मामले में कहा गया है कि जब अभियोजन पुलिस अधिकारी की एक मात्र साक्ष्य पर निर्भरता व्यक्त करता हो और इस अधिकारी के द्वारा मामले में जब्ती को प्रभावी करना बताया गया हो व इस एक मात्र साक्षी की साक्ष्य के आधार पर अधिनियम की धारा 42, 50 व 57 के प्रावधानों का पालन होना दर्शित न किया गया हो तो ऐसी स्थिति में अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा।

    सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2003 (1) म.प्र क्रिलॉज 118 म.प्र के प्रकरण में अधिनियम की धारा 20 के तहत मामला था। जमानत की मांग की गई थी। आधार यह बताया गया था कि अभियुक्त निर्दोष है उसे जमानत पर शर्तें अधिरोपित कर निर्मुक्त कर दिया जाए। प्रकरण में अन्यथा यह तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 40, 42, 50, 52 व 57 के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि उपरोक्त बिन्दुओं का परीक्षण साक्ष्य के मूल्यांकन मात्र के आधार पर किया जा सकता है और जो कि इस प्रकरण पर संभव नहीं है। जमानत अस्वीकार की गई।

    रामचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 1994 जे.एल.जे. 706:1995 म.प्र. लॉ ज 46 मप्र के प्रकरण में इस आधार पर जमानत चाही गई थी कि अधिनियम की धारा 55 व 57 के प्रावधानों का अपालन था। इस बिन्दु पर विचार किया गया। म.प्र हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि जो व्यक्ति अभियोजन के द्वारा अभियोजन साक्षी के रूप में परीक्षित किए जाते हैं वह इस बाबत स्पष्टीकरण दे सकते हैं कि कथित लचरता क्यों घटित हुई थी।

    इसके अलावा यह भी स्पष्ट किया गया कि यह विचारण न्यायालय का देखने का कार्य है कि क्या अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधानों का अपालन हुआ था। अपराध की गंभीरता के तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए व इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि विस्तृत मात्रा में ब्राउन शुगर की जप्ती हुई थी व समाज के वृहद हित को दृष्टिगत रखते हुए जमानत स्वीकार करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    भोपाराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2005 क्रि लॉ ज 12 एन.ओ.सी. राजस्थान के मामले में साक्षी जिसकी उपस्थिति में तलाशी की गई थी उसकी साक्ष्य अभियोजन के इस प्रभाव के मामले को मिथ्या दर्शाती थी कि अधिनियम की धारा 50 के अधीन सूचना की तामील के पूर्व किसी ने बैग नहीं देखा था जिसमें से कि प्रतिषिद्ध वस्तु बरामद हुआ बताया गया था। पुलिस स्टेशन के मालखाना में सीलयुक्त पैकेटों को जमा करने के पूर्व पुनः सील किए जाने को सुझावित करने बाबत कोई साक्ष्य नहीं थी।

    अभिकथित बरामदगी के उपरांत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को कोई वरिष्ठ रिपोर्ट निर्वाहित किए जाने बाबत भी साक्ष्य अभाव था। उस दशा में अभियोजन का मामला प्रमाणित होना नहीं माना गया। यह अभिमत दिया गया कि अधिनियम की धारा 50, 55 व 57 के प्रावधानों का उल्लंघन था।

    स्वर्णकी बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2006 क्रिलॉज 65 केरल के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 58 के प्रावधान अधिनियम की धारा 57 की संगतता में नहीं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 58 के प्रावधान को एनडीपीएस एक्ट की धारा 57 की संगतता में होना नहीं माना गया। गिरफ्तारी अथवा तलाशी को प्रभावी करने वाले अधिकारी का जिला मजिस्ट्रेट को कोई रिपोर्ट भेजने की वैधानिक आबद्धता अरो नहीं की गई है।

    मनोहरलाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 2006 के मामले में धारा 57 के प्रावधानों को पूरी तौर पर अनदेखा करने का अधिकार नहीं अन्वेषण अधिकारी अधिनियम की धारा 57 के प्रावधानों को पूरी तौर पर अनदेखा नहीं कर सकता है। यदि ऐसी विफलता की जाती है तो अभियुक्त की गिरफ्तारी या वस्तु की जब्ती से संबंधित साक्ष्य के मूल्यांकन पर प्रभाव होगा। वर्तमान मामले में अन्वेषण अधिकारी ने यह दर्शित करने के लिए क्या उसके द्वारा 48 घंटे के भीतर उसके वरिष्ठ अधिकारी को रिपोर्ट व पूरी जानकारी भेज दी गयी थी अथवा नहीं कुछ नहीं बताया था और यह दर्शित करने के लिए कोई दस्तावेज प्रस्तुत किया था।

    अन्वेषण अधिकारी ने गिरफ्तारी व जब्ती के बाबत भी कुछ नहीं बताया था न उसे दर्शित करने के लिए कोई दस्तावेज प्रस्तुत किया था। स्वीकृत तौर पर वर्तमान मामले में अधिनियम की धारा 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। इसके प्रभाव की विवेचना की गयी। प्रकरण के तथ्यों व परिस्थितियों में इसे घातक माना गया। अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/15 के अधीन अपराध अप्रमाणित माना गया।

    एक अन्य मामले में नमूने को बिगाड़ने की कोई संभावना न होने को प्रमाणित किया जाना अभियोजन को उसका मामला प्रमाणित करने के लिए यह भी प्रमाणित करना चाहिए कि नमूने को बिगाड़ने की कोई संभावना नहीं थी।

    मोहम्मद रजाक बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1999 के मामले में अल्प मात्रा में स्मैक पाई गई थी। अभियुक्त की प्रतिरक्षा यह थी कि पुलिस वाले को आइसक्रीम देने से इंकारी करने पर पुलिस वाला नाराज हो गया था और इस कारण उसे मिथ्या फंसा दिया था। प्रकरण के तथ्यों व परिस्थितियों में प्रतिरक्षा स्वीकार किए जाने योग्य मानी गई। अपराध अप्रमाणित माना गया।

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