एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 29: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत धारा 50 के अपालन पर अपराध अप्रमाणित होना

Shadab Salim

14 March 2023 5:03 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 29: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत धारा 50 के अपालन पर अपराध अप्रमाणित होना

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 50 अधिनियम के प्रक्रिया अध्याय की एक महत्वपूर्ण धारा है। पुलिस अधिकारियों द्वारा इस धारा के अपालन की दशा में दशा में अभियुक्त पर अपराध प्रमाणित नहीं होता है।

    किसी भी अभियुक्त को तब ही दंडित किया जा सकता है जब उस पर अभियोजन अपराध प्रमाणित करने में सफल होता है। धारा 50 से संबंधित अनेक प्रकरण है जो भारत के विभिन्न हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में गए है। इस आलेख के अंतर्गत अप्रमाणित अपराध से संबंधित कुछ प्रकरणों के साथ विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    2005 क्रिलॉज 519 गुवाहाटी के मामले में अधिनियम की धारा 42 व 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया था। अधिनियम की धारा 57 की अपेक्षानुसार गिरफ्तारी व जब्ती के 48 घंटे के भीतर वरिष्ठ अधिकारी को सूचित नहीं किया गया। अधिनियम की धारा 42 में वर्णित किसी विभाग के नजदीकी राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करवाए जाने के अधिकार बाबत भी अवगत नहीं कराया गया। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    सुभाष बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1998 (2) क्रिमिनल केसेज पत्रिका 379 म.प्र के मामले में अभियोजन के मामले में निम्न कमियां होना पाई गई थी-

    1. अधिनियम की धारा 50 के उपबंध का अपालन था।

    2. रासायनिक परीक्षण असामान्य विलंब से था।

    3. रासायनिक परीक्षण के पूर्व प्रतिषिद्ध वस्तु सुरक्षित अभिरक्षा में भी यह प्रमाणित नही किया गया था। अभियोजन का मामला अप्रमाणित माना गया।

    नाहेरी बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1999 (1) क्राइम्स 66 राजस्थान के प्रकरण में अभियुक्त कथन में अभियुक्त ने इस तथ्य से इंकार किया था कि उसकी तलाशी ली गई थी। उसका यह कहना था कि उसे घर से गिरफ्तार किया गया था। मामले के तथ्यों व परिस्थितियों में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। परिणामतः अभियुक्त की अधिनियम की धारा 8/12 के तहत की गई दोषसिद्धि अपास्त की गई।

    बानो बी बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र. 2000 क्रिलॉज 589: के प्रकरण में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 50 की अपेक्षा अनुसार तलाशी करवाए जाने के संबंध में विकल्प उपलब्ध नहीं कराया गया था। अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का अपालन हुआ था। परिणामतः अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया।

    एक अन्य मामले में अधिनियम की धारा 50 एवं धारा 57 के प्रावधान का पालन होना पाया गया। अभियुक्त को दोषमुक्त किया गया।

    जापानी सेठी बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.1999 (1) एम.पी.जे.आर.19 म.प्र के मामले में कहा गया कि यदि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का अपालन होना पाया जाता है तो अभियुक्त दोषमुक्ति का हकदार होगा।

    एक अन्य मामले में विचारण को इस आधार पर दूषित होने का तर्क दिया गया था कि मामले में अधिनियम की धारा 42 व 50 के प्रावधान का पालन नहीं था तर्क स्वीकार किए जाने योग्य माना गया। दोषमुक्ति की गई।

    जोसिफ बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2002 (3) क्राइम्स 301 केरल के प्रकरण में अभियुक्त को धारा में वर्णित उसके अधिकार को संसूचित नहीं किया गया था और न ही विकल्प चुनने का उचित अधिकार दिया गया था। संदेह का लाभ देकर दोषमुक्ति की गई।

    रघुवीर बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 1998 (2) म.प्र. लॉज. 20 म.प्र के प्रकरण में अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/18 के तहत मामला था। साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। विचारण न्यायालय ने इस मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/18 के तहत दोषसिद्ध किया गया था। उसके आधिपत्य से 7.200 किलोग्राम अफीम का आधिपत्य होना पाया गया था। अपील प्रस्तुत किए जाने पर यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 42 व 50 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था।

    पंचनामा में यथावर्णित अनुसार तलाशी होना प्रमाणित नहीं हुआ था। तलाशी धारा 50 में वर्णित अधिकारियों की उपस्थिति में नहीं हुई थी। अभियुक्त को इस बाबत अवसर नहीं दिया गया था कि क्या वह तलाशी देना चाहता है। इन परिस्थितियों में अभियुक्त के विरुद्ध अपराध अप्रमाणित माना गया।

    अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाने का अवसर जो अधिनियम में वर्णित था यह उपलब्ध कराया जाना नहीं पाया गया। इस तथ्य व अन्य तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए संदेह का लाभ दिया गया।

    जमाल अली बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, 2006 क्रिलॉज. 1981 कलकत्ता के मामले में अभियुक्तगण को अधिनियम की धारा 21ग के तहत दोषसिद्ध किया गया था। उनमें से प्रत्येक पर 17 वर्ष का सश्रम निरोध व 1.5 लाख रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया था। दोषसिद्धि को अपील प्रस्तुत कर चुनौती दी गई। अपीलांट्स के तर्कों को श्रवण किया गया। अपीलीय न्यायालय ने व्यक्त किया कि विचारण न्यायालय ने अभियोजन की उस दुर्बलता पर विचार नहीं किया था जो कि अपीलीय न्यायालय के समक्ष इंगित की गई थी।

    अपीलीय न्यायालय ने व्यक्त किया कि इन सभी दुर्बलताओं को विस्तार से दोहराने की आवश्यकता नहीं है। अपील को इस आधार पर स्वीकार किए जाने योग्य माना गया कि अधिनियम की धारा 42 व 50 के प्रावधानों का अपालन हुआ था। अपील स्वीकार की गई। दोषसिद्धि य दंडादेश अपास्त किया गया।

    नंदू बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1993 (2) म.प्र.वी. नो. 223.म.प्र के मामले में अभिलेख से यह प्रतीत होना पाया गया कि जप्ती के संबंध में रिपोर्ट वरिष्ठ अधिकारीगण को नहीं भेजी गई थी। अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष नहीं ले जाया गया था।

    दंड प्रक्रिया संहितस की धारा 157 के प्रावधान के अधीन मामले में अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट को अपराध की जानकारी नहीं भेजी गई थी। उपरोक्त विवेचन के आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ पाने की पात्रता मानी गई। यह प्रमाणित होना नहीं पाया गया कि वह वास्तव में पोस्त के भूसे के आधिपत्य में पाया गया था अपराध अप्रमाणित माना गया।

    एक अन्य मामले में अधिनियम की धारा 50 के आदेशात्माक प्रावधान का उल्लंघन होना पाया गया। दोषमुक्ति किए जाने का उपयुक्त मामला माना गया।

    लालमन बनाम स्टेट, 1999 (1) क्राइम्स 484 देहली के मामले में राजपत्रित अधिकारी स्वयं की साक्ष्य से अभियोजन का मामला प्रमाणित नहीं होता था। राजपत्रित अधिकारी ने व्यक्त किया था कि ऐसा कोई सूचना पत्र नहीं दिया गया था। राजपत्रित अधिकारी का कहना था कि वह सूचना पत्र की प्रकृति से संतुष्ट नहीं था। उसने यह भी मंजूर किया था कि उसके द्वारा अभियुक्त के द्वारा उपयोगिक विकल्प बाबत संतुष्टि नहीं की गई थी बरामदगी पत्रक पर भी उसके हस्ताक्षर नहीं थे। अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का अपालन होना माना गया। अभियुक्त दोषमुक्त किया गया।

    अब्दुल गनी बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2005 (5) एम.पी.एच.टी.526 म.प्र के मामले में इस बाबत साक्ष्य अभाव होना पाया गया कि अभियुक्त के आधिपत्य से बरामद व जब्त अभिकथित पैकेट को संबंधित पुलिस अधिकारी के द्वारा सील्ड किया गया था। परिणामतः अधिनियम की धारा 17 के तहत अभियुक्त के विरुद्ध अपराध प्रमाणित नही माना गया।

    एक मामले में सूचना देने व अभिग्रहण के संबंध में अंतर होना पाया गया। संदेह का लाभ देते हुए अभियुक्त दोषमुक्त किया गया।

    मोहन सिंह बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1997 (2) म.प्र.वी. नो. 103 म.प्र के मामले में कहा गया है कि जब अभियोजन पुलिस अधिकारी की एक मात्र साक्ष्य पर निर्भरता व्यक्त करता हो और इस अधिकारी के द्वारा मामले में जप्ती को प्रभावी करना बताया गया हो व इस एक मात्र साक्षी की साक्ष्य के आधार पर अधिनियम की धारा 42, 50 व 57 के प्रावधानों का पालन होना दर्शित न किया गया हो तो ऐसी स्थिति में अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा।

    स्टेट ऑफ पंजाब बनाम वल्देवसिंह, ए.आई.आर. 1999 सुप्रीम कोर्ट 2378, मनसुख भाई बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 2006 (2) क्राइम्स 686 गुजरात के मामले में जहां कि दोषसिद्धि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान के उलंघन में संचालित तलाशी में बरामद प्रतिषिद्ध वस्तु के आधिपत्य मात्र के आधार पर की गई हो तो ऐसी दोषसिद्धि विधिपूर्ण नहीं होगी।

    मोती राम बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2006 (2) क्राइम्स 620 हिमाचल प्रदेश के प्रकरण में तलाशी व जब्ती पत्रक एवं रिपोर्ट को पुलिस स्टेशन के लिए मामला रजिस्टर्ड करने हेतु भेजा गया था तो उससे यह दर्शित होता था कि तलाशी को सुबह 6.30 बजे संचालित किया गया था। जबकि इस मामले में 2 पुलिस साक्षीगण का यह कहना था कि तलाशी को सुबह 7.20 बजे संचालित किया गया था। इस आधार पर यह उपधारणा की जा सकती है कि उपरोक्त दोनों पुलिस साक्षीगण स्थल पर उपस्थित नहीं रहे होंगे। अभियुक्त के विरुद्ध मामला प्रमाणित होना नहीं माना गया।

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