एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 28: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत तलाशी की शर्तों का पालन न करना

Shadab Salim

13 March 2023 9:41 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 28: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत तलाशी की शर्तों का पालन न करना

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा की धारा 50 अभियुक्त की तलाशी के संबंध में शर्ते निर्धारित करती है। यह अधिनियम के आज्ञापक प्रावधान है जिनका पालन पुलिस अधिकारियों को करना होता है। धारा 50 की शर्तों के अपालन की दशा में क्या परिणाम होंगे इसे अदालत द्वारा समय समय पर दिए निर्णयों के माध्यम से समझा जा सकता है। इस आलेख के अंतर्गत तलाशी की शर्तों के अपालन की विवेचना करते हुए निर्णय प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

    बानो बी बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र, 2000 क्रिलॉज 589:1999 क्रि.लॉ रि 740:1999 (9) सुप्रीम 174 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 50 में वर्णित इस अधिकार से अवगत नहीं कराया गया था कि वह मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी देने का अधिकार रखता है। इसके प्रभाव की विवेचना की गई। इस अपालन कआधार पर अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया।

    द्वारिका बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा, 2001 (1) क्राइम्स 540 उड़ीसा के मामले में अधिनियम की धारा 42 (1) के परंतुक का अपालन होना पाया गया। जब्त पदार्थ से निकाले गए नमूने को ही रासायनिक परीक्षण के लिए भेजा गया था। इस बिन्दु पर संदेहास्पद स्थिति थी। मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का अपालन भी होना पाया गया। अपराध अप्रमाणित माना गया। हालांकि अभियुक्त से जब्त वाहन को उसके पक्ष में निर्मुक्त नहीं किया गया क्योंकि अभियुक्त की दोषमुक्ति संदेह के लाभ के आधार पर की गई थी।

    उस्मान हैदर खान बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 1991 के मामले में अधिनियम की धारा 42, 50 व 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। इन प्रावधानों के अपालन में होने वाली पुलिस अधिकारीगण की साक्ष्य पर दोषसिद्धि आधारित करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    मोती राम बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2006 (2) क्राइम्स 620 हिमाचल प्रदेश के मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का पालन होना नहीं पाया गया। मामले में उप निरीक्षक इस बाबत स्थिति को स्पष्ट कर सकता था परंतु दुर्भाग्यवश विचारण न्यायालय में उसके कथन अभिलिखित किए जाने के पूर्व ही वह मृत हो गया था। इन परिस्थितियों में अपराध प्रमाणित होना नहीं माना गया।

    धनपालसिंह बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 1995 क्रिलॉज 3751 गुजरात के मामले में सभी अभियुक्तगण को तलाशी के बाबत् अपेक्षित प्रस्ताव नहीं दिया गया था। इसके प्रभाव की विवेचना की गई। इसे उचित प्रक्रिया नहीं माना गया।

    जोन ओहुमा बनाम इंटेलीजेंस ऑफीसर नारकोटिक्स ब्यूरो, 1999 (1) क्राइम्स 309 बम्बई के प्रकरण में कहा गया कि यदि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों के अपालन की स्थिति होना पाया जाए तो इसका प्रभाव यह होगा कि तलाशी के दौरान संग्रहीत साक्ष्य अग्राह्य हो जाएगी। हालांकि इसका प्रभाव संपूर्ण विचारण दूषित होने के रूप में नहीं होगा। यदि अन्य साक्ष्य हो तो दोषसिद्धि की जा सकेगी। प्रत्येक मामले के तथ्यों व परिस्थितियों के आधार पर विचार कर इस बाबत मनोनियोग किया जाना चाहिए कि क्या अन्यथा कोई साक्ष्य भी है।

    वेंकटराव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज. 2326 छत्तीसगढ़ के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 20 (ख) (i) के तहत दोषसिद किया था और 5 वर्ष के सश्रम निरोध व 5,000 रुपए जुर्माना को अधिरोपित किया गया था। इसे चुनौती दी गई। अपीलीय न्यायालय ने यह अभिमत दिया कि यह कहा जा सकता है कि विचारण न्यायालय ने अपीलांट-अभियुक्त को अत्यधिक यांत्रिक रीति में बिना न्यायिक मस्तिष्क को प्रयोज्य किए दोषसिद्ध किया था। न्यायालय ने जप्ती के दस्तावेजों को देखने का भी कष्ट नहीं उठाया था।

    मालखाना में नमूने को न्यसित किए जाने वाले दस्तावेज को भी देखने के संबंध में भी ध्यान नहीं रखा था। इसके अलावा अधिनियम की धारा 50 एवं 55 के आदेशात्मक प्रावधान पर भी विचार नहीं किया था और साधारण तौर पर ही निर्णय के पद 9 में यह लिख दिया गया था कि अभियोजन साक्षी 8 की विश्वसनीय साक्ष्य से यह प्रमाणित होता था कि उसके द्वारा अधिनियम के सभी आदेशात्मक प्रावधानों का पालन किया गया था। इस प्रक्रिया को अमान्य किया गया। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    सनत कुमार बनाम स्टेट ऑफ एम.पी. 2005 क्रिलॉज 2272 म.प्र के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/22 के तहत दोषसिद्ध किया था। इस संबंध में इस पर 10 वर्ष का सश्रम निरोध व 1,00,000 रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया था। अपीलांट अभियुक्त ने दोषसिद्धि को इस आधार पर चुनौती दी थी कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52 एवं 57 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि इस संबंध में अभियुक्त के एडवोकेट द्वारा लगाया गया आरोप सही व उचित होना पाया जाता है।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने यह बताया था कि उसने अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी करने के उसके अधिकार बाबत अवगत करा दिया था। एस.डी.ओ.पी. अभियोजन साक्षी 6 ने यह नहीं बताया था कि उसने अभियुक्त को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी द्वारा तलाशी करवाने के अभियुक्त के अधिकार को अभियुक्त को बता दिया था।

    एस.डी.ओ.पी. अभियोजन साक्षी 6 ने यह बताया था कि उससे यह कहा गया था कि वह एक राजपत्रित अधिकारी है और वह तलाशी या तो स्टेशन हाउस ऑफीसर को दे सकता है अथवा राजपत्रित अधिकारी को दे सकता है। उपरोक्त कथित खंडन के आधार पर यह स्पष्ट था कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाए जाने के अधिकार बाबत अवगत कराया गया था।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि उसने रोजनामचा में गोपनीय सूचना अभिलिखित की थी व गोपनीय सूचना को आरक्षक के माध्यम से एस.डी.ओ.पी. आगर को भेजा गया था। इसके उपरांत एस.डी.ओ. पी. आगर पुलिस स्टेशन पर आ गया था। मामले में अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से एस.डी.ओ.पी. आगर के लिए गोपनीय सूचना प्राप्त की थी।

    एस.डी.ओ.पी. ने भी यह नहीं बताया था कि उसने आरक्षक के माध्यम से सूचना प्राप्त हुई थी। इसके विपरीत उसने बताया था कि स्टेशन हाउस ऑफीसर के द्वारा उसे टेलीफोन पर अवगत कराया गया था कि अभियुक्त के बाबत गोपनीय सूचना प्राप्त हुई थी। इस प्रकार यह प्रमाणित होना नहीं माना गया कि स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने आरक्षक के माध्यम से वरिष्ठ प्राधिकारियों को सूचित किया था। इस प्रकार अधिनियम की धारा 42 का पालन भी संदेहास्पद माना गया।

    यह भी स्पष्ट किया गया कि अभियोजन ने यह दर्शित करने के लिए कोई साक्षी अथवा दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की थी कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के उपरांत उसके आधिपत्य से स्मैक की बरामदगी के संबंध में अधिनियम की धारा 57 में यथाप्रावधानित अनुसार सूचना को वरिष्ठ प्राधिकारियों को भेजी गई थी।

    स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने अधिनियम की धारा 57 के पालन के संबंध में एक शब्द भी नहीं बताया था। इस में प्रकार अधिनियम की धारा 57 के प्रावधानों का भी अपालन होना पाया गया। स्टेशन हाउस ऑफीसर अभियोजन साक्षी 1 ने बताया था कि जप्त प्रतिषिद्ध वस्तु को नमूनों के साथ पुलिस स्टेशन के मालखाना में रखा गया था। अभियोजन ने मालखाना के मुख्य आरक्षक को यह प्रमाणित करने के लिए परीक्षित नहीं कराया था कि इसे सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था। मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि भी प्रस्तुत नहीं की गई थी।

    अभियोजन ने उस आरक्षक का परीक्षण भी नहीं कराया था जिसने कि पुलिस स्टेशन से फोरेंसिक साइंस लेबोटरी इंदौर के लिए नमूना प्राप्त किया था। यह दर्शित करने की कोई साक्ष्य नहीं थी कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरी को नमूना भेजने के पूर्व इसे पुलिस स्टेशन में सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया था एवं नमूना अविकल व सीलयुक्त बना रहा था।

    म.प्र. हाई कोर्ट ने स्वापक औषधि अधिनियम के तहत होने वाले गंभीर दंडादेश को दृष्टिगत रखते हुए यह व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 42, 50, 52, 55 एवं 57 के प्रावधान का उल्लंघन जप्ती की साखता एवं उचितता पर संदेह उत्पन्न करता है। अधिनियम की धारा 42, 50. 52, 55 एवं 57 के प्रावधान के अपालन के आधार पर तलाशी व जप्ती दूषित होना मानी गई। अभियुक्त की दोषसिद्धि स्थिर रखने योग्य नहीं मानी गई।

    हीरा गिरि उर्फ हरदेव गिरि बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2004 (3) क्राइम्स 384 हिमाचल प्रदेश के प्रकरण में अभियोजन साक्षी 11 की साक्ष्य से अभियोजन के इस वृत्तांत का पूरा समर्थन होता था कि अभियुक्त को प्रदर्श पी. ए के द्वारा अपेक्षित विकल्प प्रदान किया गया था और अभियुक्त ने प्रदर्श पी.ए/1 के द्वारा अभियोजन साक्षी 11 से ही तलाशी करवाने के बाबत् सहमति दी थी।

    इस साक्षी का कथन तर्कपूर्ण, विश्वसनीय व विश्वास अर्जित करने वाला माना गया। यह स्पष्ट किया गया कि अभियुक्त का ऐसा कोई मामला नहीं था कि उसने प्रदर्श पी.-ए/1 पर को नहीं लिखा था व हस्ताक्षर नहीं किए थे, अपितु अभियुक्त का मामला यह था कि प्रदर्श पी. ए / 1 पर उसकी पिटाई करके उससे हस्ताक्षर करा लिए थे जैसा कि अभियोजन साक्षी 11 को सुझाव दिया गया था।

    परंतु अभियोजन साक्षी 11 ने इससे इंकार किया था ऐसे सुझाव को अन्य साक्षीगण को नहीं दिया गया था और न ही ऐसा अभियुक्त ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसके कथन में बताया था। अभियोजन साक्षी 1 एवं अभियोजन साक्षी 2 आंशिक तौर पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन होने वाले कथनों से मुकर गए थे। फिर भी उनकी साक्ष्य अभियोजन साक्षी 11 के कथन को जो कि अभियुक्त को विकल्प दिए जाने के संबंध में था, समर्थन देती थी।

    अभियुक्त ने सहमति प्रदान की थी। वह भी इससे समर्थित होती थी। अभियोजन साक्षी 1 के कथन का सुसंगत भाग इस प्रकार का था- "मैं न्यायालय में उपस्थित अभियुक्त को नहीं जानता हूँ। पुलिस के द्वारा एक बाबा से यह पूछा गया था कि क्या वह उसे अथवा राजपत्रित अधिकारी अथवा जज में समक्ष तलाशी चाहेगा। कथित बाबा (साधु) ने पुलिस को प्रकट किया था कि उसे इस बाबत कोई आपत्ति नहीं है। यदि कथित पुलिस अधिकारी जिसने कि बाबा से उपरोक्त कथन प्रश्न पूछा था। उसके द्वारा संचालित की जाती है।"

    इस साक्षी ने अन्यथा निम्नानुसार बताया था,

    "प्रदर्श पी. ए को मेरी उपस्थिति में संपूर्ण तौर पर लिखा गया था। यह बात सही है कि मैने प्रदर्श पी. ए को सही होना मंजूर किया है एवं इसके उपरांत मैंने हस्ताक्षर किए थे। मैं यह नहीं जानता हूँ कि क्या कथित बाबा ने उसका नामा हरदेव गिरि होना प्रकट किया था व नहीं। परंतु उसने उसका नाम प्रकट नहीं किया था। हालांकि कथित बाबा ने उसका जो भी नाम प्रकट किया था उसको सम्यक तौर पर प्रदर्श पी.ए में लिखा गया था अभियोजन साक्षी 1 के उक्त संदर्भित कथन अंश के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि अभियोजन साक्षी 11 ने अभियुक्त को अपेक्षित विकल्प प्रदान किया था और अभियुक्त ने अभियोजन साक्षी 11 से ही तलाशी करवाने के बाबत उसकी सहमति दी थी।

    अभियोजन साक्षी 2 के द्वारा भी अभियोजन के मामले का संपूर्ण तौर पर समर्थन किया गया था अर्थात् यह बात सही है कि अभियोजन साक्षी 1 एवं अभियोजन साक्षी 2 ने अभियोजन के मामले का संपूर्ण तौर पर समर्थन नहीं किया था और उन्हें पक्षद्रोही घोषित किया गया था। फिर भी अभियोजन अभियोजन साक्षी 1 एवं अभियोजन साक्षी 2 की साक्ष्य से अधिनियम की धारा 50 के तहत विकल्प दिए जाने के बिन्दु पर लाभ लेने का हकदार माना गया।

    अभियोजन से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का पालन करे। वर्तमान मामले में इस बिन्दु पर अभियोजन विफल होना पाया गया। अधिनियम की धारा 50 के अपालन के आधार पर दोषमुक्ति की गई।

    विश्वनाथसिंह बनाम स्टेट ऑफ आसाम, 2006 (1) क्राइम्स 684 गुवाहाटी के मामले में अभियोजन का मामला इस प्रकार का था कि अभियुक्त दिनांक 18.12.1993 को अप्सरा सिनेमा कॉम्पलैक्स गुवाहाटी के नजदीक संदेहास्पद परिस्थिति में पाया गया था और वह कतिपय युवा मणिपुरी लड़कों से फुसफुसाकर बात कर रहा था। अभियुक्त पर कतिपय संदेह होने पर अभियोजन साक्षी 1 जो कि एक लोक व्यक्ति था उसने अभियुक्त से पूछताछ की थी और उसने तब इस तथ्य को अपेक्षा में लिया था कि अभियुक्त उसकी पॉकेट में कतिपय वस्तु को छुपाने का प्रयास कर रहा था।

    जब इस साक्षी ने अभियुक्त को हाथ से पकड़ा था तो अभियुक्त ने उसे चुनौती दी थी। अभियोजन साक्षी 1 ने उस समय वर्दी में होने वाले एक पुलिसजन को देखा था। इस साक्षी ने इस पुलिसजन से अपीलांट को थाना ले जाने की प्रार्थना की थी परंतु उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी तब अभियोजन साक्षी 1 ने बलपूर्वक अपीलांट को रिक्शा में बिठाया था। उस समय कई व्यक्ति इकट्ठे हो गए थे। अन्य व्यक्तियों की मदद से अभियुक्त को पुलिस स्टेशन लाया गया था।

    इस मामले में अभियोजन साक्षी 10 सी.आई.डी. इंस्पेक्टर स्थल पर अन्य स्टाफ के व्यक्तियों के साथ आया था और उन्होंने अभियुक्त की तलाशी ली थी और सफेद रंग के पदार्थ वाली 3 पुड़ियों को बरामद किया था। इसे हेरोइन होना बताया गया था। इसका फील्ड टेस्ट किया गया था व तदनुसार इसे जब्त किया गया था। मामले में अभियोजन की महत्वपूर्ण कमी यह थी कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का पालन होना नहीं पाया गया था। परिणामतः अभियुक्त की दोषसिद्धि अपास्त किए जाने योग्य मानी गई।

    वेंकटराव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज 2326 छत्तीसगढ़ के प्रकरण में अधिनियम की धारा 50 के तहत जो सूचना पत्र था उससे यह दर्शित नहीं होता था कि अपीलांट की व्यक्तिगत तलाशी भी प्रभावी की गई थी। इस प्रकार अपीलांट-अभियुक्त के द्वारा दी गई सहमति को संपूर्ण तौर पर बिना किसी परिणाम के माना गया। यह प्रतीत होना पाया गया कि अपीलांट अभियुक्त को यह सूचित किए बिना कि उसके शरीर की तलाशी ली जानी है असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर अभियोजन साक्षी 8 ने अभियुक्त के शरीर की भी तलाशी ली थी।

    हालांकि तलाशी के दौरान अभियुक्त के आधिपत्य में कोई भी अपराध में लिप्तता वाली वस्तु नहीं पाई गई थी। यह अभिमत दिया गया कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का गंभीर तौर पर अपालन था। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    ओम प्रकाश बनाम स्टेट ऑफ यू.पी., 2004 (3) क्राइम्स 126 इलाहाबाद के प्रकरण में यह तर्क दिया गया था कि अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करने के उसके अधिकार के उपयोग बाबत् कोई विकल्प प्रदान नहीं किया गया था। इस मामले में यह पाया गया कि ए.एस.आई के निर्देश पर असिस्टेंट कमांडर एक राजपत्रित अधिकारी को आहूत किया गया था। असिस्टेंट कमिश्नर को दूरभाष से संदेश भेजा गया था।

    उससे कहा गया था कि यह स्थल पर पहुँचे और उसकी उपस्थिति में बरामदगी प्रभावी की गई थी। हालांकि असिस्टेंट कमांडर के फर्द बरामदगी पर हस्ताक्षर नहीं थे और न ही न्यायालय में उसका परीक्षण कराया गया था। इसे अभियोजन के मामले में घातक माना गया। दोषसिद्धि अपारत कर दी गई।

    स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम पवन कुमार, 2004 (7) सुप्रीम कोर्ट केस 735 के प्रकरण में इस आशय का तर्क दिया गया था कि वर्तमान मामले में छापादल के द्वारा संचालित तलाशी अभियुक्त की व्यक्तिगत तलाशी थी अतः ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान आकर्षित होते हैं। इस तर्क को स्वीकार किए जाने योग्य नहीं माना गया।

    इस बिन्दु पर कि अभियुक्त के कंधे पर ले जाने जाने वाली बैग की तलाशी के संबंध में क्या अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान आकर्षित होते हैं एवं क्या अभियुक्त को अधिनियम की धारा 50 में वर्णित आवश्यक विकल्प न दिए जाने के आधार पर अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान के उल्लंघन में तलाशी होना मानी जाएगी विभिन्न प्रकार की राय होने को अपेक्षा में लिया गया था और मामला सुप्रीम कोर्ट की विस्तृत पीठ को संदर्भित किया गया है।

    सुप्रीम कोर्ट ने आगे व्यक्त किया कि उसके न्यायालय के कतिपय पूर्व निर्णयों में इस आशय का विचार ग्रहण किया गया है कि शरीर की तलाशी वाहन, कंटेनर, बैग अथवा स्थल की तलाशी तक विस्तारित नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्त किया कि चूंकि मामला विस्तृत पीठ को संदर्भित किया गया है। अतः हम इस प्रश्न पर कोई राय व्यक्त करना आवश्यक नहीं समझते हैं। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वर्तमान मामले के तथ्य पूरी तौर पर भिन्न हैं। वर्तमान मामला सुप्रीम कोर्ट की विस्तृत पीठ को संदर्भित प्रकृति का मामला नहीं है।

    वर्तमान मामले में सड़क के किनारे पर पोस्त भूसी के 15 बैग पाए गए थे। याचिकाकार इन पर बैठा हुआ पाया गया था। अभियुक्त की तलाशी लिए जाने पर अपराध में लिप्तता वाला कुछ नहीं पाया गया था एवं मात्र 200 रुपए की बरामदगी हुई थी। परंतु बैगों की तलाशी लिए जाने पर यह पाया गया था कि इसमें पोस्त भूसी अंतर्निहित था। मामले में विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या मामले के तथ्यों व परिस्थितियों में बैगों की तलाशी को अभियुक्त के शरीर की तलाशी की कोटि में होना समझा जाए।

    सुप्रीम कोर्ट का अभिमत रहा कि स्पष्ट तौर पर यह मामला व्यक्तिगत तलाशी से संबंधित नहीं है और इसलिए अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान आकर्षित नहीं होंगे। हाई कोर्ट ने इस तरह के मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों को प्रयोज्य करने में त्रुटि की थी। परिणामतः इस आधार पर अभियुक्त की गई दोषमुक्ति को स्थिर रखने योग्य नहीं माना गया कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का अपालन था। अभियुक्त को दोषी होना माना गया।

    स्टेट ऑफ एम.पी. बनाम जुबेदा, 2000 (2) म.प्र. वीकली नोट्स 115 म.प्र के मामले में तलाशी व जब्ती के पूर्व अधिनियम की धारा 50 में यथावर्णित अनुसार अभियुक्त को विकल्प प्रदान किया गया था यह इंगित करने के लिए स्टेशन हाउस ऑफिसर एवं अन्वेषण अधिकारी ने कोई दस्तावेज अथवा पंचनामा प्रस्तुत नहीं किया था।

    मामले में यह तथ्य प्रमाणित होना नहीं पाया गया कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का पालन किया गया था। उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों में लोपता के आधार पर न केवल विचारण दूषित हो जाएगा अपितु इस कारण से अभियुक्त को प्रतिकूलता भी होगी। परिणामतः इस प्रावधान के अपालन के आधार पर अभियुक्त को दोषमुक्ति की पात्रता मानी गई।

    गोविन्द राम बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज 2177 छत्तीसगढ़ के मामले में दी गई सूचना में यह वर्णित नहीं था कि अभियुक्त को नजदीकी मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी के द्वारा तलाशी करवाने के उसके विधिक अधिकार बाबत अवगत कराया गया था। मात्र यह वर्णित किया गया था कि यदि अभियुक्त चाहता तो किसी नजदीकी मजिस्ट्रेट अथवा एस.डी.ओ. (पी)/सी.एस.पी. के द्वारा उसकी तलाशी की जा सकती थी।

    इस प्रकार सूचना पत्र में यह वर्णित नहीं था कि अभियुक्त किसी राजपत्रित अधिकारी द्वारा तलाशी करने के उसके अधिकार को चुन सकता था। मुख्य आरक्षक अभियोजन साक्षी 9 जो कि ए.एस.आई. के साथ उपस्थित था उसने भी यह अभिसाक्ष्य नहीं दी थी कि अभियुक्त को ए.एस.आई. ने अधिनियम की धारा 50 के अधीन तलाशी करवाने के उसके अधिकार से अवगत कराया था। पद 6 में उसने यह बताया था कि ए.एस.आई. ने अभियुक्त से यह पूछा था कि क्या वह ए.एस.आई. अथवा किसी राजपत्रित अधिकारी के द्वारा तलाशी करवाना पसंद करेगा।

    इस प्रकार इस साक्षी की साक्ष्य से यह दर्शित नहीं होता था कि अभियुक्त को नजदीकी मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाने के विश्व को प्रदान किया गया था। एक ओर जहां सूचना पत्र में अधिनियम की धारा 50 के अधीन अभियुक्त को उसके विधिक अधिकार के बाबत अवगत कराए जाने के संबंध में सारवान लोपता थी।

    वहीं दूसरी ओर ए.एस.आई. अभियोजन साक्षी 8 एवं मुख्य आरक्षक अभियोजन साक्षी 9 की साक्ष्य भी स्वखण्डनकारी थी। स्वतंत्र साक्षीगण अभियोजन की कथा का समर्थन नहीं करते थे। मामले के तथ्यों परिस्थितियों में अधिनियम की धारा 50 व 55 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। परिणामतः अपील स्वीकार करते हुए अपीलांट को अधिनियम की धारा 22 के आरोप से दोषमुक्त कर दिया गया।

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