एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 22: एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 से संबंधित निर्णय

Shadab Salim

17 Nov 2023 1:01 PM IST

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 22: एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 से संबंधित निर्णय

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 37 इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराधों को संज्ञेय एवं गैर जमानती बनाती है। यह अधिनियम की एक प्रक्रियात्मक धारा है जो अभियुक्त के जमानत के संबंध में भी प्रावधान करती है जहां स्पष्ट किया गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराध गैर जमानती है। समय समय पर विभिन्न अदालतों द्वारा फैसले दिए गए हैं जो इस धारा से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत ऐसे कुछ निर्णय प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

    स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम मुंशीराम, 2003 क्रिलॉज 1946 का 1 किलो चरस बरामदगी का मामला था। इस मात्रा को अधिनियम की धारा 2 (viia), 37 के आशय के लिए व्यवसायिक मात्रा में माना गया। चरस की बरामदगी व्यवसायिक मात्रा में थी अतः धारा 37 के निर्बन्धनों को दृष्टिगत रखते हुए जमानत की प्रार्थना अस्वीकार की गई।

    रामचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1994 क्रिलॉरि 296 म.प्र के मामले में 3 करोड़ रुपए मूल्य की प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी हुई थी। अधिनियम की धारा 50 के आदेशात्मक प्रावधानों के अपालन के आधार पर जमानत की मांग की गई थी। यह अभिमत दिया गया कि वस्तु की तलाशी लिए जाने के मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान प्रयोज्य नही होते हैं। अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला पाया गया। जमानत की प्रार्थना स्वीकार करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    स्टेट ऑफ एम.पी. बनाम काजड़, एआईआर 2001 सुप्रीम कोर्ट 3317:2001 के मामले में 7 किलोग्राम अफीम का मामला था जमानत उस दशा में ही स्वीकार की जा सकती है जबकि यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार हो कि अभियुक्त आरोपित अपराध का दोषी नहीं है और वह जमानत पर होने के दौरान कोई अपराध कारित करने वाला प्रतीत न होता हो। दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन प्रावधानित परिसीमाओं के अलावा अधिनियम की धारा 37 (1) (ख) में वर्णित शर्तें आती हैं। मामले में जमानत का आदेश उक्त आधार पर नहीं था अतः निरस्त कर दिया गया।

    तासिम बी बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1994 क्रिलॉरि 321 म.प्र के मामले में अभियुक्त ने जमानत की माँग की थी। जमानत की माँग स्वीकार किए जाने योग्य नहीं मानी गई। यद्यपि यह निर्देश दिया गया कि अभियुक्त को प्रतिरक्षा साक्ष्य प्रस्तुत करने का समुदित अवसर दिया जावे।

    भोलाराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1999 क्रिलॉज 2729 राजस्थान के मामले में अभियुक्त महिला थी। उसकी साड़ी के नीचे से प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी हुई थी। प्रतिषिद्ध वस्तु चरस थी। औपचारिक प्रावधानों का अपालन किए जाने का तर्क दिया गया था। यह अभिमत दिया गया कि जमानत के प्रक्रम पर यह बिन्दु विचारयोग्य नहीं होगा। परिणामतः उक्त आधार पर जमानत पाने की पात्रता नहीं मानी गई।

    रतनलाल बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1994 के मामले में प्रतिषिद्ध वस्तु अफीम के रुप में होने के बाबत रासायनिक विश्लेषक की रिपोर्ट उपलब्ध थी। ऐसी स्थिति में जमानत की प्रार्थना अमान्य की गई।

    रामचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ एमपी, जे.एल.जे. 706:1995 म.प्र. लॉज 46 म.प्र 1994 के मामले में प्रकरण में इस आधार पर जमानत चाही गई थी कि अधिनियम की धारा 55 व 57 के प्रावधानों का अपालन था। इस बिन्दु पर विचार किया गया। म.प्र हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि जो व्यक्ति अभियोजन के द्वारा अभियोजन साक्षी के रुप में परीक्षित किए जाते हैं वह इस बाबत् स्पष्टीकरण दे सकते हैं कि कथित लचरता क्यों घटित हुई थी।

    इसके अलावा यह भी स्पष्ट किया गया कि यह विचारण न्यायालय का देखने का कार्य है कि क्या अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधानों का अपालन हुआ था। अपराध की गंभीरता के तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए व इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि विस्तृत मात्रा में ब्राउनशुगर की जप्ती हुई थी व समाज के वृहद हित को दृष्टिगत रखते हुए जमानत स्वीकार करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    एक प्रकरण में अभियुक्त से पर्याप्त मात्रा में स्मैक की बरामदगी की गई थी। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त से 8 किलोग्राम अफीम भी बरामद हुई थी। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त से 4 किलोग्राम अफीम की बरामदगी हुई थी। आक्षेपित आदेश के द्वारा इन तीनों प्रकरणों का निराकरण किया गया। यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 41, 42, 50 व 52 में प्रावधानित तलाशी एवं गिरफ्तारी आदि की प्रक्रिया के प्रावधानों का पूर्ण पालन किए जाने के अभाव में अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त कर देना चाहिए क्योंकि इन प्रावधानों की प्रकृति आदेशात्मक है।

    महेश चन्द बनाम स्टेट ऑफ एम.पी 1991 (1) म.प्र.वी. नो. 213 म प्र के प्रकरण में हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि मरिप्पा वाले निर्णय के पद 26 के विचार से यह प्रतीत होता है कि अधिनियम के अधीन प्रावधानित प्रक्रियात्मक संरक्षण का पालन होना अथवा अन्यथा होना अभियोजन के परिणाम पर सारवान प्रभाव डालेगा और इस आधार पर यह विश्वास गठित करने में सहायता उपलब्ध होगी कि क्या अभियुक्त आरोपित अपराध का दोषी नहीं है।

    उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त किया कि मरिप्पा वाले न्याय दृष्टांत में यह अभिनिर्धारित नहीं किया गया है कि प्रक्रियात्मक संरक्षण को अनुसरित करने में विफलता का परिणाम जमानत प्रदान करने के अधिकार के रूप में हो जाएगा। अधिनियम की धारा 37 के अधीन जमानत प्रदान करने के संबंध में मस्तिष्क निर्मित करने हेतु प्रक्रियात्मक संरक्षण को अनुसरित करने में विफलता को विचारयोग्य एक कारण माना जा सकता है।

    मामले के जो तथ्य व परिस्थितियां थीं उनके आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकलता था कि अभियुक्त अधिनियम की धारा 8/18 के संबंध में दोषी नहीं हो सकता है। परिणामतः जमानत प्रदान किए जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई। इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया कि अभी रासायनिक परीक्षण की रिपोर्ट आना शेष थी और अन्वेषण जारी था।

    शकील अख्तर बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्रप्रदेश, 2001 क्रिलॉज 3881 आन्ध्रप्रदेश के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8(ग), 22, 25, 28 व 29 के अधीन गंभीर आरोप थे। यह अपराध 5 वर्ष से अधिक की अवधि से दंडित किए जाने योग्य थे इस बाबत कोई युक्तियुक्त आधार होना नहीं पाया गया जिसके आधार पर यह विश्वास किया जा सके कि अभियुक्तगण अभिकथित अपराध के दोषी नहीं थे और वह जमानत पर रहने के दौरान अपराध कारित करने वाले प्रतीत नहीं होते थे। परिणामतः अभियुक्तगण को जमानत पर निर्मुक्त करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2003 (1) म.प्र. लॉज 118 मध्यप्रदेश के मामले में अधिनियम की धारा 20 के तहत मामला था जमानत की मांग की गई थी। आधार यह बताया गया था कि अभियुक्त निर्दोष है उसे जमानत पर शर्तें अधिरोपित कर निर्मुक्त कर दिया जाए। प्रकरण में अन्यथा यह तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 40, 42, 50, 52 व 57 के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि उपरोक्त बिन्दुओं का परीक्षण साक्ष्य के मूल्यांकन मात्र के आधार पर किया जा सकता है और जो कि इस प्रकरण पर संभव नहीं है। जमानत अस्वीकार की गई।

    समीउल्ला बनाम सुपरिटेंडेंट नारकोटिक्स सेंट्रल ब्यूरो, 2009 क्रिलॉज. 1300 के मामले में जमानत निरस्त करने से अनिच्छा जमानत निरस्ती की मांग की गयी थी जमानत प्रदान करने के आदेश के विरुद्ध होने वाली अपील एवं जमानत को निरस्त करने को निर्देशित करने वाले आदेश के विरुद्ध होने वाली अपील को भिन्न-भिन्न स्वरुप का होना समझा जाना चाहिए। जब जमानत को निरस्त करने के आवेदन को ग्रहण किया जाता है तो यह पाया जाना चाहिए कि अभियुक्त ने उसे प्रदान की गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया था।

    इसके परिणामस्वरूप उसने-

    1. साक्ष्य को बिगाड़ने का प्रयास किया था।

    2. उसने साक्षीगण पर प्रभाव डालने का प्रयास किया था। 3. अभियुक्त के फरार होने की संभावना है एवं इसलिए इस बात की संभावना है कि अभियुक्त विचारण के लिए उपलब्ध नहीं होगा। जमानत निरस्ती की मांग का वर्तमारन मामला उपरोक्त परिस्थितियों के अधीन नहीं आता था । परिणामतः जमानत निरस्त करने से अनिच्छा व्यक्त की गयी।

    हालांकि स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम स्व अंतर्निहित संहिता है परंतु फिर भी दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों की प्रयोज्यता को न तो व्यक्त तौर पर और न आवश्यक विवक्षा से अपवर्जित किया गया है। यह अभिमत दिया गया कि जमानत प्रदान करने के आदेश के विरुद्ध होने वाली अपील एवं जमानत को निरस्त करने को निर्देशित करने वाले आदेश के विरुद्ध होने वाली अपील में अंतर होता है जब जमानत को निरस्त करने के आवेदन को ग्रहण किया जाता है तो यह पाया जाना चाहिए कि अभियुक्त ने उसे प्रदान की गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया था।

    इसके परिणामस्वरुप उसने-

    1. साक्ष्य को बिगाड़ने का प्रयास किया था।

    2. उसने साक्षीगण पर प्रभाव डालने का प्रयास किया था।

    3. अभियुक्त के फरार होने की संभावना है एवं इसलिए इस बात की संभावना है कि

    अभियुक्त विचारण के लिए उपलब्ध नहीं होगा।

    वर्तमान मामले में अपीलांट जमानत निरस्त करने के संबंध में अपेक्षित वैधानिक अपेक्षाओं की संतुष्टि करने में विफल रहा था। परिणामतः जमानत निरस्ती का आदेश निरस्त होना पाया गया।

    डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंसी बनाम तेहलसिंह, 2006 (1) क्राइम्स 596 देहली) के मामले में जमानत निरस्त करने की प्रार्थना की गई थी। प्रार्थना स्वीकार नहीं की गई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त कर दिए जाने पर भी वह उसके जमानतदार से न्यायालय की आन्वयिक अभिरक्षा में होना जारी रहता है उसे जब अपेक्षा की जाए अथवा निर्देश दिया जाए न्यायालय में उपस्थित होना होता है। इस सीमा तक उसकी स्वतंत्रता निर्बंधित होती है।

    अभियुक्त को सदैव ही अभिरक्षा में लिया जाना आदेशित करता है जबकि परिस्थितियाँ ऐसी पाई जाएँ। वर्तमान मामला ऐसा नहीं था कि अभियुक्त विचारण में उपस्थित न हो रहा हो अथवा अभियोजन साक्ष्य को बिगाड़ रहा हो अथवा उसके फरार होने की संभावना हो। परिणामतः जमानत को निरस्त करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    एक अन्य मामले में अभियुक्त अफीम की खेती करने के लिए अनुज्ञप्तिधारी था। अभियुक्त ने खेती करने वाले खेत को परिवर्तित किया था और इस बाबत स्पष्टीकरण दिया था परन्तु अभियुक्त ने खेत परिवर्तन किए जाने के तथ्य को अवगत कराने में विफलता की थी। प्रकरण के उक्त तथ्यों व परिस्थितियों में अभियुक्त की स्वीकृत जमानत निरस्त नहीं की गई।

    स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम दीन मोहम्मद, 1999 (3) क्राइम्स 315 के प्रकरण में अधिनियम के अधीन जमानत प्रदान करने का मामला अधिनियम की धारा 37 से आच्छादित होता है। न्यायालय के लिए यह आदेशात्मक है कि वह लोक अभियोजक को सुने और प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर आए कि प्रथम दृष्टया यह निष्कर्ष निकाले जाने के लिए कोई सामग्री नहीं है कि अभियुक्त को उस पर लगाए गए आरोप में दोषी होना माना जा सकता है। वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय के द्वारा इस तरह का निष्कर्ष अभिलिखित नहीं किया गया था परिणामतः जमानत का आक्षेपित आदेश निरस्तीयोग्य माना गया।

    जीतू बनाम नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, 2004 (3) क्राइम्स 559 केरल के मामले में कहा गया है कि मात्र इस आधार पर कि लोक अभियोजक कहता है कि वह जमानत प्रदान करने का विरोध करता है जमानत की प्रार्थना निरस्तीयोग्य नहीं हो जाएगी विचार किया गया।

    उच्च न्यायालय ने इस प्रकरण में यह व्यक्त किया कि यदि यह भी मान लिया जाए कि लोक अभियोजक के द्वारा की गई आपत्ति विधिमान्य आधारों पर थी तो भी यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार थे कि अभियुक्त अपराध का दोषी नहीं था और वह जमानत पर रहने के दौरान कोई अपराध कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता था। ऐसी स्थिति में अभियुक्त को जमानत प्रदान की जा सकती है। अभियुक्त को 20,000 रुपए की जमानत पर निर्मुक्त कर दिया गया।

    शिवाय के.यू. बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2006 671 के एक अन्य मामले में संपूर्ण जब्त पिप्रेशन आइटम 239 सहपठित आइटम 169 के अधीन व्यवसायिक मात्रा अथवा अल्प मात्रा के अधीन नहीं थी। यदि अपराध प्रमाणित हो जाए तो भी यह धारा 22ख मात्र के अधीन आता था न कि अधिनियम की धारा 22ग अथवा 22क के अधीन प्रथम अभियुक्त जो कि जब्त एम्पल्स (Ampules) के आधिपत्य में होना पाया गया था उसे विशेष न्यायालय ने निर्मुक्त कर दिया था। विशेष न्यायालय ने 13.10.2004 को इस संबंध में जमानत आदेश पारित किया था। याचिकाकार को दिनांक 25.6.2005 को गिरफ्तार किया था। वह पूर्व से 110 दिवस से निरोध में था।

    समक्ष में रखी गई सामग्री पर विचार करते हुए उच्च न्यायालय ने याचिकाकार की जमानत निम्न शर्तों के अधीन मंजूर कर ली-

    1. याचिकाकार दो सक्षम जमानतदार समेत 25,000 रुपए का बंधपत्र निष्पादित

    2. याचिकाकार अन्वेषण में हस्तक्षेप नहीं करेगा। साक्षीगण को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करेगा। साक्षीगण को धमकी नहीं देगा और ऐसी किसी गतिविधि में लिप्त नहीं होगा जो कि अभियोजन के हित के लिए क्षतिपूर्ण हो।

    3. याचिकाकार को जब बुलाया जाए वह अन्वेषण अधिकारी के समक्ष उसकी रिपोर्ट करेगा।

    नारायण लाल बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2004 (3) क्राइम्स 609 राजस्थान के प्रकरण में अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/18, 8/29 के तहत मामला था। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत जमानत आवेदन की प्रार्थना की गई थी। अभियुक्त के एडवोकेट की ओर से यह तर्क दिया गया कि अभियुक्त से कोई बरामदगी नहीं हुई थी। अतः वह जमानत पर निर्मुक्त होने का हकदार है।

    अभियुक्त के अधिवक्ता के द्वारा हाई कोर्ट के आदेश दिनांकित 19.6.2003 जो कि एस.डी. क्रिमिनल मिसलेनियस बेल एप्लीकेशन क्रमांक 1907/2003 में पारित किया गया था, पर निर्भरता व्यक्त की। इस संदर्भित मामले में समान परिस्थितियों में न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत प्रदान की थी। इसके अलावा अन्य आदेश दिनांकित 20.1.2003 जो कि राजस्थान हाई कोर्ट की एस.बी. क्रिमिनल मिसलेनियस बेल एप्लीकेशन क्रमांक 3480 / 2002 में पारित किया गया था, पर निर्भरता व्यक्त की। कथित निर्णय में जमानत को इस आधार पर प्रदान कर दिया गया था कि सह अभियुक्त की साक्ष्य को साक्ष्य में ग्राह्य नहीं माना गया था और उस सह अभियुक्त की साक्ष्य के अलावा अन्य कोई साक्ष्य नहीं थी।

    एक अन्य आदेश दिनांकित 17.6.2003 जो कि एस.बी. क्रिमिनल मिसलेनियस बेल एप्लीकेशन क्रमांक 1890 / 2003 राजस्थान हाई कोर्ट का था उसमें यह पाया गया था कि अभियुक्त को सह-अभियुक्त के द्वारा की गई पूछताछ के आधार पर शामिल किया जाना चाहा गया था कोर्ट ने एडवोकेट के इस तर्क को स्वीकार किया था कि सह-अभियुक्त के द्वारा दी गई जानकारी का उपयोग अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य में ग्राह्य नहीं है और इसलिए जमानत प्रदान करने के लिए उपयुक्त मामला होना पाया गया था।

    वर्तमान मामले में अभियुक्त के अधिवक्ता ने न्याय दृष्टांत भिनियाराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1993 क्रि. लॉ रि. राजस्थान 609, मांगी लाल बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 1993 क्रि. लॉ रि. राजस्थान 778 पर भी निर्भरता व्यक्त की थी। राजस्थान उच्च न्यायालय ने अभियुक्त के अधिवक्ता के द्वारा संदर्भित सभी आदेशों का सावधानीपूर्वक अवलोकन किया। यह अभिमत दिया गया कि उपरोक्त संदर्भित न्याय दृष्टांतों में व्यक्त विचार को उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों में मान्यता नहीं दी गई है।

    राजस्थान उच न्यायालय ने न्याय दृष्टांत नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो बनाम दिलीप प्रहलाद नामदेव, 2004 (3) सु.को. के. 619:2004 (2) सुप्रीम 456 को संदर्भित किया और बताया कि इस मामले में अधिनियम की धारा 37 (1) (ख) के तहत प्रावधानित परिसीमा पर विचार किया गया था और यह अभिनिर्धारित किया गया था कि युक्तियुक्त आधार का अभिप्राय प्रथम दृष्टया आधार से कुछ और अधिक होने का है। यह सारवान संभाव्य कारण को वर्णित करने की स्थिति होती है जिसके आधार पर यह विश्वास होता हो कि अभियुक्त अभिकथित अपराध के लिए दोषी नहीं है और वह जमानत पर होने के दौरान कोई अपराध कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता है।

    आगे स्पष्ट किया गया कि जमानत के प्रक्रम पर अधिनियम के कतिपय प्रावधानों के अपालन के तकनीकी आधार को नहीं उठाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के द्वारा जमानत प्रदान करने के आदेश को तदनुसार निरस्त कर दिया था और अभियुक्त को अभिरक्षा में लिए जाने का निर्देश दिया गया था।

    राजस्थान हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य न्याय दृष्टांत यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेहबूब आलम को भी संदर्भित किया। इस न्याय दृष्टांत में यह अभिनिर्धारित किया गया कि सह-अभियुक्त को यदि जमानत प्रदान कर दी गई हो तो इस आधार पर अधिनियम के तहत अपराध में आवेदक अभियुक्त को जमानत पाने का अधिकार नहीं हो जाएगा।

    योगेश त्यागी बनाम स्टेट, 2004 (3) क्राइम्स 292 देहली के मामले में हेरोइन के संबंध में प्रतिशत मात्र उसकी शुद्धता और लिप्त क्षमता को इंगित करता है। यह वजन को इंगित करने की स्थिति नहीं होती है। यह स्पष्ट किया गया कि अधिनियम के प्रावधानों का अवलंब लेने के लिए डाइसेटेलमार्किंग (Diacety Imorphine) की शुद्धता का प्रतिशत असंगत होगा क्योंकि अधिनियम डाइसेटेलमार्फिन (Diacetylmorphine ) का आधिपत्य अविधिपूर्ण होने के लिए किसी न्यूनतम प्रतिशत की शुद्धता / क्षमता को विहित नहीं करता है परिणामतः फोरेंसिक साइंस लेबोट्री की रिपोर्ट जिसमें कि नमूनों में आइसेटेलमार्फिन (Diacety Imorphine) 112, 1.2 एवं 1.24 प्रतिशत पाया गया था की दशा में जमानत स्वीकार करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    प्रवीण कुमार बनाम स्टेट ऑफ यू.पी., 2011 क्रिलॉज 200 इलाहाबाद के मामले में किशोर अभियुक्त की जमानत अभियुक्त की प्रास्थिति किशोर अभियुक्त की थी उससे व्यवसायिक मात्रा में चरस की बरामदगी हुई थी। उसके द्वारा जमानत की मांग की गई थी। यह अभिमत दिया गया कि जमानत के संदर्भ में किशोर अभियुक्त का मामला किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत विचारयोग्य होगा और इसे स्वापक औषधि एवं मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 37 के अंतर्गत विचारयोग्य नहीं माना गया। यह अभिमत दिया गया कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की धार 12 स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 37 के ऊपर अधिभावी प्रभाव रखती है।

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12 में एक non obstant प्रावधान है जो यह दर्शाता है कि दंड प्रक्रिया संहिता अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अंतर्निहित किसी बात के होते हुए भी शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे स्पष्ट तौर पर इंगित होता है कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12 के प्रावधानों का न केवल दंड प्रक्रिया संहिता के ऊपर अपितु अन्य विधियों के ऊपर भी अधिभावी प्रभाव होगा।

    बलजीत सिंह बनाम स्टेट ऑफ आसाम, 2004 (3) क्राइम्स 433 गुवाहाटी के मामले में अधिनियम की धारा 37 का प्रावधान दर्शाता है कि दंड प्रक्रिया संहिता में अंतर्निहित किसी बात के होते हुए भी ऐसे प्रत्येक अपराध के संबंध में जो कि अधिनियम के अंतर्गत संज्ञान लिए जाने योग्य हो एवं 5 वर्ष या अधिक के निरोध से अपराध दंडित किए जाने योग्य हो व्यक्ति को जमानत पर निर्मुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि लोक अभियोजक को ऐसी निर्मुक्ति के संबंध में आवेदन पर विरोध करने का अवसर प्रदान न कर दिया गया हो और यदि लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है तो कोर्ट को यह संतुष्टि करना होगी कि यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार हैं कि व्यक्ति ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और वह जमानत पर रहने के दौरान कोई अपराध कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता है।

    अधिनियम की धारा 37 की उपधारा (2) अन्यथा यह प्रावधानित करती है कि जमानत प्रदान करने के संबंध में उपरोक्त शर्तें उन शर्तों के अतिरिक्त होगी जो कि दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन अथवा तत्समय प्रवृत्त अथवा अन्य किसी विधि के अधीन जमानत प्रदान करने के बाबत् प्रभावी हो, में हो।

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