एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 15: एनडीपीएस एक्ट के तहत होने वाले अपराधों की सहायता हेतु कमरा, भवन इत्यादि दिए जाने का परिणाम

Shadab Salim

10 Nov 2023 10:18 AM IST

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 15: एनडीपीएस एक्ट के तहत होने वाले अपराधों की सहायता हेतु कमरा, भवन इत्यादि दिए जाने का परिणाम

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 25 इस अधिनियम के तहत होने वाले अपराधों को कारित करने में भवन या कक्ष इत्यादि जिस व्यक्ति द्वारा जान बूझकर दिया जाता है उसे भी दंडित करने के प्रावधान करती है।

    इस धारा में महत्वपूर्ण यह है कि ऐसा भवन जानबूझकर दिया गया हो या फिर इस उद्देश्य से ही दिया गया हो कि यहां प्रतिबंधित कार्यवाही संचालित की जाएगी। इस आलेख में धारा 25 से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 25

    किसी अपराध के किए जाने के लिए किसी परिसर, आदि का उपयोग किए जाने की अनुज्ञा देने के लिए दंड- जो कोई, किसी गृह, कक्ष, अहाते, जगह, स्थान, जीव-जंतु या प्रवहण का स्वामी या अधिभोगी होते हुए अथवा उसका नियंत्रण या उपयोग करते हुए उसका किसी अन्य व्यक्ति द्वारा इस अधिनियम के किसी उपबंध के अधीन दंडनीय कोई अपराध करने के लिए उपयोग किए जाने की जानबूझकर अनुज्ञा देगा, वह उस अपराध बाबत् उपबंधित दंड से दंडनीय होगा।

    इस धारा में स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ (संशोधन) अधिनियम, 2001 (क्रमांक 9 वर्ष 2001) के द्वारा संशोधन किया गया है। इस संशोधन को दिनांक 2-10-2001 से प्रभावी किया गया है।

    'जानबूझकर' शब्द महत्वपूर्ण

    अनीमा प्रवाराव बनाम स्टेट, 1999 क्रिलॉज 2564:1999 (3) क्राइम्स 593 के मामले में अधिनियम की धारा 25 के तहत अभियुक्त को उस दशा में दोषी माना जाएगा जबकि यान के स्वामी अथवा यान पर नियंत्रण करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रास्थिति रखने वाले व्यक्ति ने अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध को कारित करने के संबंध में जानबूझकर यान को उपयोग करने की अनुमति दी हो। यह स्पष्ट किया गया कि 'जानबूझकर' शब्द को महत्व का समझा जाना चाहिए। यदि जानबूझकर कृत्य नहीं है तो अपराध नहीं होगा।

    शंकर लाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 2002 (3) म.प्र. लॉज. 309 म.प्र के मामले में स्थल को उपभाड़े पर देने वाला व्यक्ति भी दोषसिद्ध अपराध के लिए उपयोग किए जाने का तथ्य जानते हुए भी स्थल को उपभाड़े पर दिया गया था। प्रश्नगत स्थल से भारी मात्रा में गाँजा की बरामदगी हुई थी। ऐसी स्थिति में स्थल का स्वामी यह नहीं कह सकता कि उसे संव्यवहार के बारे में जानकारी नहीं थी।

    जप्त गाँजे की मात्रा 61 किलोग्राम थी और निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता था कि अभियुक्त इसमें व्यवहत कर रहा था और वह इस संव्यवहार में पक्षकार था। इस प्रकार उसकी आपराधिक मनःस्थिति होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। अपराध के लिए उपयोग में किए जाने के तथ्य को जानते हुए स्थल को उपभाड़े पर देने वाले व्यक्ति को भी दोषसिद्धि के लिए दायी माना गया।

    सभी न्यायिक व पदीय कृत्य सही व नियमित तौर पर किए जाने की उपधारणा

    सभी न्यायिक कृत्य व पदीय कृत्य सही व नियमित तौर पर किए जाने की उपधारणा की जाती है। न्यायालय से न्यायिक रिमाण्ड के संबंध में विस्तृत आदेश पारित करने की प्रत्याशा नहीं की जाती है।

    सह-अभियुक्त के द्वारा अभियुक्त लिप्त प्रभाव

    अब्दुल रसीद बनाम स्टेट ऑफ बिहार के मामले में सह-अभियुक्त के द्वारा अभियुक्त को लिप्त किए जाने के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्धि किए जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    स्वतंत्र साक्षी द्वारा समर्थन न करने का तर्क

    राकेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2006 (2) क्राइम्स 206 हिमाचल प्रदेश के मामले में जहां तक प्रथम आधार पर प्रश्न था यह तर्क दिया गया कि कि मामले के एकमात्र स्वतंत्र साक्षी अर्थात् बस का कंडक्टर अभियोजन साक्षी 1 अभियोजन साक्ष्य का समर्थन नहीं किया है एवं पुलिस अधिकारीगण एवं एक्साइज चपरासी की साक्ष्य खंडनकारी है। उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि वह उपरोक्त वर्णित तीनों शासकीय साक्षीगण की परिसाक्ष्य में कोई खंडन अथवा भिन्नता होना नहीं पाता है। दोनों मुख्य आरक्षकगण एवं एक एक्साइज चपरासी की साक्ष्य योग्य प्रकृति की मानी गई।

    उनकी साक्ष्य में कोई गंभीर भिन्नता अथवा संगतता होना नहीं पाई गई। इन सभी ने एक स्वर में यह बताया था कि वर्तमान अपीलांट व एक और यात्री बैगों को ले जाए जा रहे थे जो कि उनकी गोदी में रखे हुए थे उन बैगों की तलाशी किए जाने पर उनमें पोस्ता भूसा पाई गई थी। साक्षीगण ने यह भी बताया था कि बैग जो कि अपीलांट के द्वारा ले जाया जा रहा था उसमें 14 किलोग्राम पोस्ता भूसा थी जबकि उस बैग में जिसे कि अन्य यात्री उसकी गोदी में पकड़े हुए था 21 किलोग्राम पोस्ता भूसा थी।

    दोनों बैगों में से 2 नमूने प्राप्त किए गए थे और 4 पृथक् पार्सल बनाए गए थे व उन पार्सलों को सील किया गया था। जिस सील का उपयोग किया गया था उसे अंग्रेजी अंक H के इम्प्रेशन के साथ प्रस्तुत किया गया था एवं अपीलांट व अन्य से बरामद बैगों का भी पार्सल बनाया गया था। दोनों पार्सलों को समान सील से सील किया गया था। साक्षीगण ने यह भी बताया था कि जब्ती पत्रक तैयार किया गया था। मामले में उपलब्ध साक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए यह तर्क कि अपीलांट-अभियुक्त से पोस्ता भूसा अंतर्निहित करने वाले बैग की बरामदगी होना संदेहास्पद है को स्वीकार किए जाने योग्य नहीं माना गया।

    यह स्पष्ट किया गया कि अधिनियम की धारा 26 के तहत यदि अभियुक्त को दोषसिद्ध किया गया हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 (3) के प्रावधान अप्रयोज्य होंगे और दंडादेश निलंबित नहीं किया जा सकेगा। हालांकि यह स्पष्ट किया गया कि स्वापक ओषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 32 (क) के प्रावधान के उल्लंघन में दंडादेश का निलंबन नहीं हो सकेगा।

    कालिका प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1992 (1) म.प्र.वी. नो. 5 म.प्र.) के मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 20/26 के तहत मामले में गिरफ्तार किया गया था। अभियुक्त ने जमानत की मांग की थी। आधार यह बताया गया था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 की यथा अपेक्षा अनुसार गिरफ्तारी की दिनांक से 60 दिवसों के भीतर चालान प्रस्तुत नहीं किया गया था। उच्च न्यायालय ने तर्क स्वीकारयोग्य माना।

    इस मामले में स्वीकृत तौर पर याचिकाकार को 17-4-1991 को गिरफ्तार किया गया था और मामले में चालान 19-7-1991 को फाइल किया गया था। विचारण न्यायालय का यह निष्कर्ष था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के प्रावधान आकर्षित नहीं होंगे चाहे चालान को 60 दिवस की अवधि के भीतर प्रस्तुत न किया गया हो। उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निष्कर्ष को उचित नहीं माना। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 की अपेक्षा अनुसार 60 दिवस की अवधि के भीतर मामले में चालान प्रस्तुत नहीं किया गया था। परिणामतः अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त कर कर दिया गया।

    अनीमा प्रवाराव बनाम स्टेट, 1999 क्रिलॉज 2564: 1999 (3) क्राइम्स 593 के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 25 के तहत दोषसिद्ध किया था। दोषसिद्धि को चुनौती देने के लिए हाई कोर्ट में कार्यवाही की गई थी। हाई कोर्ट ने अभियुक्त की प्रार्थना स्वीकार की और उसकी दोषसिद्धि के निर्णय को दोषपूर्ण मानते हुए अपास्त कर दिया। उच न्यायालय ने अभियुक्त के विरुद्ध विचारण न्यायालय के द्वारा पारित अधिग्रहण के आदेश को भी अपास्त कर दिया।

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