एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 11: औषधियों के संबंध में अपराध

Shadab Salim

6 Nov 2023 5:52 PM IST

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 11: औषधियों के संबंध में अपराध

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 21 विनिर्मित औषधियों के संबंध में अपराध पर दंड का उल्लेख करती है। एनडीपीएस एक्ट ऐसा अधिनियम है जो हर तरह के नशीले पदार्थों को प्रतिबंधित करता है और उन पर दंड का प्रावधान करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत कैनाबिस एवं अफीम के पौधे तक ही अपराध नहीं है अपितु इन पदार्थों से विनिर्मित पदार्थ भी इस अधिनियम की जद में आते है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 21 जो विनिर्मित औषधियों से संबंधित है पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 21-विनिर्मित औषधियों और निर्मितियों के संबंध में उल्लंघन के लिए दंड

    जो कोई इस अधिनियम के किसी उपबंध या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या निकाले गए किसी आदेश या दी गई अनुज्ञप्ति की शर्त के उल्लंघन में किसी विनिर्मित औषधि का या किसी विनिर्मित औषधि को अंतर्विष्ट करने वाली किसी निर्मिति का विनिर्माण, कब्जा, विक्रय क्रय, परिवहन, अंतरराज्यिक आयात, अंतरराज्यिक निर्यात या उपयोग करेगा, वह

    (क) जहाँ उल्लंघन अल्पमात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है यहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि छह माह तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो कि दस हजार रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से:

    (ख) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा से कम मात्रा परन्तु अल्पमात्रा से अधिक मात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से जो कि एक लाख रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से;

    (ग) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा को अन्तर्गस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु बीस वर्ष की हो सकेगी, और जुर्माने से जो एक लाख रुपए से कम का नहीं होगा किन्तु दो लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा:

    परंतु न्यायालय ऐसे कारणों से, जो निर्णय में लेखबद्ध किए जाएंगे, दो लाख रुपए से अधिक का जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा। इस धारा में स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ (संशोधन) अधिनियम, 2001 (क्रमांक 9 वर्ष 2001) के द्वारा संशोधन किया गया है।

    दिलीप बनाम स्टेट, 2011 क्रिलॉज 334 देहली के मामले में उच्च न्यायालय को निर्देश में अधिनियम की धारा 21 को संदर्भित किया गया था जबकि अभिकथित बरामदगी चरस की थी। अधिनियम की धारा 21 मनःप्रभावी पदार्थ को व्यवहत करती है और इसका कैनाबिस(चरस, गांजा अथवा इनके मिक्चर) के संबंध में दंड देने का कोई संबंध नहीं है। अतः निर्देश में धारा 21 का जो संदर्भ था उसे अधिनियम की धारा 21 के लिए होने वाले संदर्भ को अधिनियम की धारा 20 के संदर्भ के रुप में होना माना गया।

    जमाल अली बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, 2006 क्रिलॉज 1981 कलकत्ता का हेरोइन का मामला था। मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान के अपालन का तर्क दिया गया था। अभियोजन साक्षी 1 ने मंजूर किया था कि उसकी प्रथम सूचना रिपोर्ट में उसने यह वर्णित नहीं किया था कि अभियुक्तगण को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में तलाशी करवाने के उनके अधिकार के बाबत अवगत करा दिया गया था।

    बीएसएफ के व्यक्ति अभियोजन साक्षी 6 अभियोजन साक्षी 7 व अभियोजन साक्षी 8 के रूप में उपस्थित होना बताए गए थे उन्होंने भी अभियुक्तगण को मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी करवाने के अधिकार के बाद सूचित किए जाने के संबंध में कुछ नहीं बताया था। मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का अपालन होना पाया गया। अभियुक्तगण को दोषमुक्त किया गया। एक अन्य मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का पालन उस दशा में ही होना माना जाएगा जबकि अभियुक्त को उसके अधिकार का उपयोग करने के संबंध में लिखित में सूचना दी गई हो।

    टी हमजा बनाम स्टेट ऑफ केरल, 1999 (6) सुप्रीम 584 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहा गया कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान की भावना यह है कि संबंधित व्यक्ति को नजदीकी राजपत्रित अधिकारी अथवा नजदीकी मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करवाने के विकल्प को प्रदान किया जाना चाहिए। वर्तमान मामले में असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस की उपस्थिति में होने वाली तलाशी में ऐसा विकल्प अभियुक्त को प्रदान नहीं किया गया है।

    प्रकरण में इस कमी को दूर करने के लिए यह तर्क दिया गया कि असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस की प्रास्थिति अपने आप में राजपत्रित अधिकारी की थी। इस तर्क को मान्य करने से अनिच्छा व्यक्त की गई। यह माना गया कि यह अलग बात है कि इस अधिकारी की प्रास्थिति राजपत्रित अधिकारी के रूप में थी। परंतु दोषसिद्धि इस आधार पर दूषित थी कि अभियुक्त को अधिनियम की धारा 50 के अनुसार विकल्प प्रदान नहीं किया गया था। अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। अभियुक्त को दोषी माने जाने से इंकार किया गया।

    सुरेश बनाम स्टेट ऑफ एमपी 1998 (1) म प्र लॉ ज 390 मप्र के मामले में अधिनियम की धारा 50 तलाशी के दौरान पुलिस अधिकारी के द्वारा दिए गए कथनों को व्यवहत करती है। अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान की प्रकृति आदेशात्मक मानी गई। यह स्पष्ट किया गया कि यदि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का अपालन होता है तो यह अभियोजन को घातक होगा।

    म.प्र. हाई कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि ऐसे मामले हो सकते हैं जहां कि औपचारिकताओं की आवश्यकता न हो क्योंकि प्रतिषिद्ध जब्त वस्तु उस मामले में यही मात्रा में हो। यह माना जा सकता है कि अभियुक्त को प्लांट करने के लिए पुलिस अधिकारी के द्वारा बड़ी मात्रा में वस्तुओं को ले जाने की स्थिति नहीं हो सकती है समान तौर पर ऐसी दशा में जबकि अभियुक्त के शरीर से मात्र कुछ पैकेटों की जब्ती हुई हो तो सभी पूर्व सावधानियों को लिया जाना आवश्यक होता है ताकि प्लाटिंग किए जाने की संभावना अथवा अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधानों के अपालन की संभावना को दूर किया जा सके। वर्तमान मामले में अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधानों का अपालन होना पाया गया था। अभियुक्त के विरुद्ध अपराध नहीं माना गया।

    मो मलेक बनाम प्रांजल बरदलाय, 2005 क्रि लॉ ज 2613 सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के समक्ष आपराधिक कार्यवाही अपास्त करने की प्रार्थना की गयी थी। इस आशय का अभिमत दिया गया कि हाई कोर्ट की आपराधिक कार्यवाही को आपस्त करने की असाधारण शक्तियों का उपयोग सीमित तौर पर किया जाना चाहिए। इसका उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए। इसका उपयोग विधिक अभियोजन का गला घोटने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

    इस तरह की शक्तियों का उपयोग उस तरह के मामले में की जाने की अपेक्षा की जाती है। जहाँ कि परिवाद किसी अपराध को प्रकट न करती हो और यह मिथ्या होकर तंग करने वाली हो। इस प्रक्रम पर मामले का गुणागुण पर परीक्षण नहीं हो सकेगा। वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय के द्वारा आपराधिक कार्यवाही को अपास्त करने से जो इंकारी की गयी थी उसे उचित माना गया।

    हुजुल अकबर बनाम स्टेट ऑफ एमपी आईएलआर 2011 मप्र 221 के मामले में अधिनियम की धारा 55 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। बिगाड़ किए जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता था। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    अब्दुल रशीद इब्राहीम मंसूरी बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 2000 सुप्रीम कोर्ट (नि) 496:2000 क्रिलॉज 1384 के मामले में अभियुक्तगण को अधिनियम की धारा 21 (ग) के तहत दोषसिद्ध किया गया था। उनमें से प्रत्येक पर 17 वर्ष का सश्रम निरोध व 1.5 लाख रुपए जुर्माना अधिरोपित किया गया था। दोषसिद्धि की अपील प्रस्तुत कर चुनौती दी गई। अपीलांट्स के तर्कों को श्रवण किया गया। अपीलीय न्यायालय ने व्यक्त किया कि विचारण न्यायालय ने अभियोजन की उस दुर्बलता पर विचार नहीं किया था जो कि अपीलीय न्यायालय के समक्ष इंगित की गई थी।

    अपीलीय न्यायालय ने व्यक्त किया कि इन सभी दुर्बलताओं को विस्तार से दोहराने की आवश्यकता नहीं है। अपील को इस आधार पर स्वीकार किए जाने योग्य माना गया कि अधिनियम की धारा 42 व 50 के प्रावधान का अपालन हुआ था। अपील स्वीकार की गई। दोषसिद्धि व दंडादेश अपास्त किया गया। जमाल अली के मामले में प्रकरण में यह तर्क दिया गया कि दोनों स्वतंत्र साक्षीगण जो कि तलाशी व जब्ती के संबंध में थे उन्हें अभियोजन ने पक्षद्रोही घोषित कर दिया था। इसमें से एक साक्षी ने उसके मुख्य परीक्षण में बताया था कि जब वह एक क्लब के सामने बैठी हुई अवस्था में था तो पुलिस ने उससे हस्ताक्षर करने के लिए कहा था और तदनुसार उसने इन कागजातों पर हस्ताक्षर कर दिए थे।

    अभियुक्तगण के द्वारा प्रतिपरीक्षण किए जाने पर इस साक्षी ने बताया था कि यह पेट्रापोले से 6 किलोमीटर की दूरी पर था और उसने उसके सामने कोई व्यक्ति अथवा वस्तु को नहीं पाया था व पुलिस ने उसके हस्ताक्षर सफेद कागजातों पर कराए थे। पुलिस ने उसे कुछ पैकेट अथवा किसी वस्तु को नहीं दर्शाया था। पक्षद्रोही घोषित किए गए तलाशी व जब्ती के अन्य साक्षी ने उसके मुख्य परीक्षण में यह बताया था कि वह मोतीगंज का निवासी था और बड़े गांव पीएस के पुलिस अधिकारीगण के निर्देश पर उसने 7-8 कागजातों पर हस्ताक्षर किए थे। उनमें से कुछ खाली थे और कुछ स्टाम्पड थे।

    अभियोजन के द्वारा किए गए प्रतिपरीक्षण में इस पक्षद्रोही साक्षी ने यह बताया था कि वह किसी जमाल अली एवं वृन्दावन को नहीं जानता था। उसने यह भी बताया था कि वस्तुतः चारों व्यक्तियों की व्यक्तिगत तलाशी उसकी उपस्थिति में नहीं हुई थी और न उसकी उपस्थिति में उनसे हेरोइन की जब्ती हुई थी। अभियुक्तगण के द्वारा प्रतिपरीक्षण किए जाने पर इस साक्षी ने यह बताया था कि पुलिस ने उसे कभी भी उन वस्तुओं को नहीं दिखाया था जो कि न्यायालय के समक्ष रखी हुई वस्तुएँ हैं एवं इस साक्षी ने अन्यथा यह बताया था कि उसने उसकी उपस्थिति में पुलिस के द्वारा किसी व्यक्ति को गिरफ्तार होते हुए नहीं देखा था।

    जब्त वस्तुओं के रासायनिक परीक्षण के संबंध में यह तर्क दिया गया कि न्यायालय में जब्त वस्तुओं के रजिस्टर की पावती को प्रस्तुत नहीं किया गया था व रिपोर्ट में परीक्षण के उपरांत वस्तुओं के वजन के बाबत वर्णन नहीं था। इस आधार पर रासायनिक परीक्षक की रिपोर्ट पर संदेह होने का तर्क दिया गया था।

    अपीलीय न्यायालय ने अभियुक्तगण के द्वारा दिए गए तर्कों पर विचार किया। अभिलेख की सामग्री का अवलोकन किया व अभियोजन के मामले की इंगित दुर्बलताओं को विचार में लिया अपीलीय न्यायालय ने व्यक्त किया कि विस्तार से सभी दुर्बलताओं को इंगित करना आवश्यक नहीं है। निष्कर्ष के तौर पर यह बताया गया कि मामले में जिस तरह की साक्ष्य व है उससे यह प्रमाणित होता है कि अधिनियम की धारा 42 व 50 के प्रावधानों का अपालन हुआ था। परिणामतः अभियुक्तगण को दोषमुक्त किया गया।

    बानो बी बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र, 2000 क्रिलॉज 589:1999 क्रि लॉ रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभियुक्त को अधिनियम की धारा 50 में वर्णित इस अधिकार से अवगत नहीं कराया गया था कि वह मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी देने का अधिकार रखता है। इसके प्रभाव की विवेचना की गई। इस अपालन के आधार पर अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया।

    रामास्वामी बनाम स्टेट ऑफ एम पी 2005 क्रिलॉज 1603 मध्यप्रदेश के मामले में जब अपीलांट की तलाशी ली गई थी तो अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत एक सूचना पत्र अभियुक्त की शर्ट की पॉकेट से बरामद हुआ था संपूर्ण अन्वेषण में इस बाबत कुछ इंगित नहीं था कि उस सूचना पत्र के संबंध में अन्वेषण अधिकारी ने क्या किया था। कथित सूचना पत्र को जप्त भी नहीं किया गया था एवं जप्ती पत्रक तैयार नहीं किया गया था। कथित सूचना पत्र को चार्जशीट के साथ फाइल भी नहीं किया गया था।

    कोर्ट ने व्यक्त किया कि यह संभव हो सकता है कि पूर्व में संदेह के कारण कतिपय अन्य पुलिस अधिकारीगण ने अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत सूचना देते हुए अपीलांट अभियुक्त की तलाशी ली हो। यह धारणा की जा सकती है कि चूंकि अभियुक्त के आधिपत्य से कोई प्रतिषिद्ध वस्तु बरामद नहीं हुई थी इसलिए उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई थी और बाद में पुनः वर्तमान अन्वेषण अधिकारी के द्वारा उसकी तलाशी लिए जाने की कार्यवाही की गई थी।

    कोर्ट का यह अभिमत रहा कि उचितता का यह तकाजा या कि अन्वेषण अधिकारी को अधिनियम की धारा 60 के अधीन के पूर्व सूचना पत्र को जप्त करना चाहिए था और इसे चार्जशीट के साथ प्रस्तुत करना चाहिए था। परिणामतः यह माना गया कि अभियोजन का मामला संदेहास्पद था, अभियुक्त को दोषमुक्त किया गया था। माल की सम्पत्ति के बिगाड़े जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता था। परिणामतः अभियुक्त को दोषी माना जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    रामास्वामी बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 2005 क्रिलॉज 1603 मध्यप्रदेश के मामले में ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को दोषी होना माना था। अपील प्रस्तुत की गई थी। अभियुक्त के अधिवक्ता के द्वारा यह तर्क दिया गया कि यदि अभियोजन के संपूर्ण मामले को विचार में लिया जाता है तो यह अभिनिर्धारित किया जाना कठिन है कि अभियुक्त ने अपराध कारित किया है। अधिवक्ता के द्वारा अन्यथा यह तर्क दिया गया कि अपीलांट चेन्नई निवासी होने से हिंदी नहीं समझता है।

    चूंकि पूरा अन्वेषण जिसमें कि अधिनियम की धारा 50 के तहत सूचना-पत्र भी शामिल है हिन्दी भाषा में संपादित था इसलिए अभियुक्त को दोषी माना जाना कठिन है। अपीलीय कोर्ट ने मौखिक व दस्तावेजी साक्ष्य का मूल्यांकन करना उचित समझा। अन्वेषण अधिकारी को 30.12.2001 को प्रदर्श पी./13 के माध्यम से 13.30 बजे सूचनादाता से यह जानकारी प्राप्त हुई कि दो व्यक्ति होटल बंजारा में कमरा नंबर 3 में रुके हुए हैं और उनके आधिपत्य में भारी मात्रा में ब्राउन शुगर है।

    इसके उपरांत उसने आरक्षक को दो साक्षीगण को बुलाने के लिए भेजा था। आवश्यक कार्यवाही करने के उपरांत पुलिस पार्टी साक्षीगण के साथ 15.20 बजे होटल बंजारा में आई थी। अभियुक्त को अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत प्रदर्श पी 16 का सूचना पत्र दिया गया था। अपीलांट ने उसकी तलाशी कथित प्रभारी स्टेशन ऑफीसर के द्वारा लिए जाने को अनुज्ञेय किया था। इसके उपरांत 16.20 बजे प्रदर्श पी. 17 का पंचनामा इस संबंध में बनाया गया था।

    पंचनामा प्रदर्श पी. 18 के पंचनामा द्वारा 17 बजे उन्हें तलाशी के बाबत पुलिस ने प्रस्ताव किया था। अभियुक्त अपीलांट की तलाशी लिए जाने पर अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत एक सूचना पत्र उसकी शर्ट जिसे कि वह पहने हुए था कि पॉकेट में पाया गया था एवं इसके उपरांत उसके आधिपत्य से एक बैग जप्त किया गया था। कथित बैग में एक "लुंगी" पाई गई थी। जिसमें एक पॉलीथिन में प्रतिषिद्ध वस्तु व 9,000 रुपए रखे हुए थे। प्रदर्श पी 19 का पंचनामा इस संबंध में तैयार किया गया था।

    अपीलांट अभियुक्त को समान दिन अर्थात् 30.12.2001 को 20 बजे पुलिस स्टेशन हनुमानगंज पर गिरफ्तार कर लिया गया था। स्टेशन ऑफीसर के प्रभार में होने वाले साक्षी एवं अन्य साक्षीगण अर्थात् अभियोजन साक्षी 5 एवं दो स्वतंत्र साक्षीगण अ सा 6 एवं अ सा 8 के अनुसार यह दिखाई देता है कि संपूर्ण कार्यवाही दोपहर 1.30 बजे से रात्रि 8 बजे के मध्य आरंभ हुई थी। हालांकि होटल बंजारा के मैनेजर अभियोजन साक्षी 4 के अनुसार रात्रि 11 बजे पुलिस पार्टी होटल में आई थी और इसके उपरांत संपूर्ण कार्यवाही हुई थी।

    इस साक्षी के अनुसार कार्यवाही देर रात्रि तक जारी रही थी। इस संबंध में इस साक्षी के द्वारा पद 5 व 7 में दिया गया कथन सुसंगत है। पद 7 में इस साक्षी ने विनिर्दिष्ट तौर पर इस बात से इंकार किया था कि पुलिस पार्टी होटल में दोपहर को 2 या 2.30 बजे आई थी। इस साक्षी ने पुष्टिपूर्वक यह बताया था कि रात्रि 11 बजे पुलिस पार्टी ने अपीलांट को गिरफ्तार किया था। इस प्रकार कथित अपराध में अपीलांट्स की लिप्तता के गंभीर संदेह उत्पन्न होना माना गया।

    होटल मैनेजर की साक्ष्य की जाँच- पड़ताल करने पर यह प्रकट होना पाया गया कि एक व्यक्ति एस रमण कमरा नं. 3 में ठहरा हुआ था। इस संबंध में होटल रजिस्टर की सुसंगत प्रविष्टि प्रदर्श पी / 5 है। परंतु इस साक्षी ने यह नहीं बताया था कि कथित व्यक्ति होटल से कब चेक आउट हुआ था। पद 7 में परिसाक्ष्य में साक्षी ने बताया था कि जब पुलिस पार्टी ने ग्राहक एस रमन जो कि कमरा नं 3 में ठहरा हुआ था गिरफ्तार किया था और उसे ले गई थी तो उसने होटल रजिस्टर में इस संबंध में कोई सुसंगत प्रविष्टि नहीं थी।

    म.प्र हाई कोर्ट ने आगे व्यक्त किया कि साक्ष्य का अन्य महत्वपूर्ण अंश जिसे कि हासिये पर नहीं रखा जा सकता और जिसके आधार पर भी अभियोजन कथा की सत्यता में बिगाड़ होना पाया जाता है वह गवर्नमेंट ओपियम एंड अलकालोइड वर्क्स नीमच की रिपोर्ट प्रदर्श पी 9 है। यह रिपोर्ट दिनांकित 22.1.2002 की है। रिपोर्ट में इस आशय की प्रविष्टि है कि प्रयोगशाला में नमूना 5.1.2002 को प्राप्त हुआ था।

    हालांकि अ सा 2 पुलिस स्टेशन के आरक्षक के अनुसार जो कि प्रतिषिद्ध वस्तु के सीलबंद नमूने को नीमच रासायनिक परीक्षण के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था के अनुसार यह नीमच 7.1.2002 को पहुँचा था और उसने इस दिनांक को प्रतिषिद्ध वस्तु का नमूना जमा किया था। यह साक्षी के मुख्य परीक्षण में इस संबंध में पूरी तरह सुसंगत रहा था। जिसमे उसने कहा था कि इस संबंध में उसे एक पावती प्रदर्श पी 4 के रूप में दिनांक 7.1.2002 को दी गई थी।

    म.प्र. उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि यदि प्रतिषिद्ध वस्तु को इस साक्षी के द्वारा दिनांक 7.1.2002 को जमा कराया गया था तो ऐसी स्थिति में नीमच की प्रयोगशाला प्रतिषिद्ध वस्तु का दो दिवस पूर्व अर्थात् 5.1.2002 को विश्लेषण कैसे कर सकती थी। परिणामतः इस बाबत भारी संदेह होना पाया गया कि रासायनिक परीक्षक के द्वारा 5.1.2002 को जो प्रतिषिद्ध वस्तु प्राप्त की गई थी वह दिनांक 7.1.2002 को आरक्षक के द्वारा जमा की जाने वाली प्रतिषिद्ध वस्तु नहीं थी।

    रासायनिक परीक्षक की रिपोर्ट में यह वर्णित किया गया था कि प्रतिषिद्ध वस्तु 5.1.2002 को प्राप्त हुई थी। यह अ. सा. 2 आरक्षक के कथन जिसने कि सीलबंद प्रतिषिद्ध वस्तु प्राप्त की थी और जिसे 7.1.2002 को जमा कराया था, के कथन के सामीप्य में माना गया। अतः उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि यह सुरक्षापूर्वक कहा जा सकता है कि प्रयोगशाला के द्वारा 5.1.2002 को जो प्रतिषिद्ध वस्तु प्राप्त की गई थी यह दिनांक 7.1.2002 को अ सा 2 आरक्षक के द्वारा जमा कराई जाने वाली प्रतिषिद्ध वस्तु नहीं थी।

    निष्कर्ष के तौर पर यह बताया गया कि अभियोजन सभी संभव संदेह से परे मामला प्रमाणित करने में विफल रहा था। परिणामतः दोषसिद्धि अपास्त की गई अभियुक्त को तत्काल निर्मुक्त करने का आदेश दिया गया। अभियुक्त से जप्त 9,000 रुपए की राशि भी इसे लौटाए जाने का निर्देश दिया गया।

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