Hindu Marriage Act में Custom and usage, Full blood and half blood, Sapinda relationship शब्द के अर्थ
Shadab Salim
12 July 2025 3:48 AM

इस एक्ट की धारा 3 के अनुसार इस अधिनियम में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की परिभाषाएं दी गई है। इन परिभाषाओं से उन शब्दों के संबंध में कोई संशय नहीं रहता है तथा सभी स्थितियां स्पष्ट हो जाती है।
Custom and usage
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3 के अनुसार रूढ़ि और प्रथा शब्द की परिभाषाएं दी गयी है। यदि किसी मामले में पारिवारिक रूढ़ि का सहारा लिया जाता है तो उसे सिद्ध भी किया जाएगा। रूढ़ि को सबूतों द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। इसके विभिन्न तत्व होते हैं। जैसे रूढ़ि और प्रथा अवैधानिक एवं लोकनीति के विरुद्ध न हो तथा उसका प्रचलन किसी जाति में आदिकाल से बिना किसी व्यवधान के हो तथा सबको मान्य हो तभी रूढ़ि को विधि की मान्यता प्राप्त होती है। रूढ़ि का सतत जारी रहना प्रमाणित करना आवश्यक है। रूढ़ियाँ लंबे समय से प्रचलित है और उसको लगातार पालन किया जा रहा है ऐसी परिस्थिति में रूढ़ि और प्रथाओं को मान्यता दी जाती है।
हरिप्रसाद सिंह बनाम बाल्मीकि प्रसाद सिंह एआईआर 1975 सुप्रीम कोर्ट 733 का एक प्रकरण उल्लेखनीय है। पति पत्नी माने जाने के लिए कुछ कर्म या अनुष्ठान का निर्वाह कर देना विवाह संपन्न कर देने के लिए पर्याप्त नहीं किंतु रूढ़ि या प्रथा का सिद्ध किया जाना और उसके अनुसार कर्म किया जाना सिद्ध किया जाना चाहिए।
रूढ़ि और प्रथा शब्द एक ऐसे नियम की ओर संकेत करता है जिसका एक लंबे समय से लगातार समानता पूर्वक अभ्यास किए जाने के परिणामस्वरूप उसे एक कानून का बल प्राप्त हो चुका है। विधिक दृष्टिकोण से उन्हीं रूढ़ियों को वैधता प्रदान की गई है जो युक्तियुक्त और कानूनी विधि के प्रतिकूल नहीं है और जिन्हें बिना किसी प्रतिबंध के आमतौर पर माना जाता है और जिनका अतिप्राचीन काल से लोगों के द्वारा अनुसरण किया जा रहा है।
Full blood and half blood
किसी एक ही पूर्वज से एक ही पत्नी द्वारा पैदा हुई संताने एक दूसरे के पूर्ण रक्त संबंधित कहे जाते हैं और एक ही पूर्वज से किंतु भिन्न-भिन्न पत्नियों के द्वारा पैदा हुए व्यक्ति एक दूसरे से अर्ध रक्त से संबंधित कहे जाते हैं।
जैसे किसी हिंदू पुरुष की दो पत्नियां है। इन दो पत्नियों से तीन संताने होती है। पहली पत्नी से राम और श्याम का जन्म होता है तथा दूसरी पत्नी से घनश्याम का जन्म होता है। ऐसी परिस्थिति में राम और श्याम तो पूर्ण रक्त होंगे परंतु घनश्याम और राम अर्द्ध रक्त होंगे।
जब कोई संताने एक ही मां और अलग-अलग पिता से जन्म लेती है ऐसी संताने आपस में एकोदर रक्त से संबंधित कहीं जाती है। एक उदर का अर्थ होता है एक ही उदर अर्थात पेट से पैदा होने वाले। इस परिस्थिति में कोई हिंदू स्त्री किन्ही संतानों को जन्म देती है यदि उन संतानों के पिता अलग अलग हो तो ऐसी संताने एकोदर रक्त से संबंधित मानी जाती है।
कभी-कभी यह परिस्थितियां होती है कि हिंदू स्त्रियां पूर्व पति से तलाक हो जाने या फिर उसकी मृत्यु के पश्चात किसी अन्य पुरुष से विवाह करती हैं वहां संतानों की उत्पत्ति भी होती है तथा संतानों के पिता अलग अलग हो जाते हैं। अब इन संतानों के बीच में जो रिश्ता होगा वह एकोदर रक्त संबंध कहलाएगा। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 3 में इस शब्द की परिभाषा प्रस्तुत की गई है।
Sapinda relationship
हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत सपिंड नातेदारी का अधिक महत्व है। विवाह के पश्चात एक दूसरे से सपिंड नहीं होना आवश्यक शर्त होती है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार 3 वस्तुओं में सपिंड संबंध का अत्यंत महत्व है- विवाह, उत्तराधिकार तथा जन्म व मृत्यु पर अशौच
विवाह के लिए पक्षों की पारिवारिक दूरी तथा उत्तराधिकार के लिए उत्तराधिकारी का निर्णय संबंध से होता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में सपिंड शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इस शब्द का महत्व केवल वैवाहिक क्षेत्र में वर्णित है। हिंदू विधि के अंतर्गत सपिंड का अर्थ है वह व्यक्ति जो पिंडदान करने की क्षमता रखते हो।
रामचंद्र बनाम विनायक एआईआर 1914 के पुराने प्रकरण में इस संबंध में विस्तृत व्याख्या की गई है। पति पत्नी को एक विशेष शरीर माना गया है इसलिए यह भी सपिंड है। सपिंड नातेदारी को परिभाषित करते हुए कोर्ट द्वारा निर्णय किया गया कि यह अपने पूर्वज अपनी पीढ़ी से नीचे पीढ़ी को शरीर केे अवयव के आने के कारण सपिंड नातेदारी होती है।
हिंदू विधि के अंतर्गत प्रतिषिद्ध तथा सपिंड संबंधों में विवाह की अनुमति न देने का एक तार्किक और वैज्ञानिक कारण शरीर विज्ञान के अनुसार रक्त से निकट संबंधियों में विवाह होने से संतान कमज़ोर तथा बीमार होती है। भारत में सामाजिक रुप से भी यह माना गया है कि जिन लोगों में आपसी मेल मिलाप हो उन लोगों में विवाह उचित नहीं है।
वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3(4) सपिंड के अंतर्गत सपिंड की गणना को पिता की ओर से पांच(5) तथा माता की ओर से तीन पीढ़ी निश्चित करता है। सपिंड रिलेशनशिप को वर्तमान हिंदू विधि के अंतर्गत भी मान्यता दी गई है। पिता की ओर से पांच पीढ़ियों तक के किसी व्यक्ति से विवाह शून्य होता है तथा माता की ओर से ऐसा 3 पीढ़ियों तक होता है।
धारा 3 (च) के अनुसार सपिंड सीमाओं के भीतर सहोदर, सोतेला, सगा संबंधी भी शामिल है।
हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत धारा 18 के अधीन यदि कोई सपिंड के नियम का उल्लंघन करता है और विवाह करता है तो 1 माह के साधारण कारावास और ₹1000 तक के जुर्माने दोनों से दंडित किया जा सकता है। सपिंड विवाह को कठोरता के साथ अपराध बनाया है, इससे यह भी तय होता है कि हिन्दू विवाह की प्रकृति अब भी संस्कार है क्योंकि सपिंड विवाह को अपराध के रूप में उपबंधित किया गया है।
Prohibited relationship
अधिनियम की धारा 3 के अनुसार प्रतिषिद्ध नातेदारी की परिभाषा देते हुए अधिनियमित किया गया है कि विवाह के पक्षकार को प्रतिषिद्ध संबंध में स्थित नहीं होना चाहिए। दो व्यक्ति प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत तब कहे जाते हैं जब यदि उनमें से दूसरे का पारस्परिक पूर्व पुरुष हो। यदि एक उनमें से दूसरे के पारस्परिक पूर्व पुरुष या महिला की पत्नी या पति रहा हो, यदि एक उनमें से दूसरे के भाई की या पिता अथवा माता के भाई की या पितामह अथवा पितामह के भाई की या मातामह या मातामह के भाई की पत्नी रही हो, यदि भाई और बहन ताया चाचा और भतीजी मामी और भांजी फूफी और भतीजा मौसी और भांजा भाई बहन के बच्चे हैं भाई भाई के बच्चे अथवा बहन बहन के बच्चे हैं तो यह प्रतिषिद्ध नातेदारी होगी।
लेकिन यदि दोनों पक्षकारों में कोई ऐसी प्रथा है जो ऐसे संबंधों में भी विवाह की अनुमति देती है तो उनमे विवाह हो सकता है। यदि ऐसी प्रथा केवल एक ही पक्ष में हो तो विवाह नहीं हो सकता। इसी प्रथा वैध होनी चाहिए अर्थात धारा 3 (क) प्रथा और रूढ़ि की आवश्यकता है वह पूरी होनी चाहिए। इस संबंध में बाबू स्वामी बनाम बालकृष्ण एआईआर 1956 मद्रास का मामला उल्लेखनीय है।
प्रतिषिद्ध नातेदारी से केवल इतना समझ लिया जाए कि किसी भी निकट के संबंधियों में हिन्दू विवाह संपन्न नहीं होगा।