जानिए कब पुलिस रिपोर्ट पर विचार करते हुए मजिस्ट्रेट के लिए अपराध की सूचना देने वाले (Informant) को सुनना होता है अनिवार्य
SPARSH UPADHYAY
18 Feb 2020 5:00 AM GMT
पिछले लेख में हमने जाना कि नाराजी याचिका (Protest Petition) क्या होती है और कौन कर सकता है इसे दाखिल। हम ने यह समझा कि "प्रोटेस्ट पिटीशन" (नाराजी याचिका) के सम्बन्ध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, भारतीय दंड संहिता, 1860 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 या किसी अन्य अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। हालाँकि, नाराजी याचिका की अवधारणा पीड़ित पक्ष या मामले की पुलिस को इत्तिला देने वाले पक्ष के लिए एक अहम् अधिकार के रूप में साबित हुई है।
हम यह कह सकते हैं कि जब पुलिस किसी आपराधिक मामले में मजिस्ट्रेट को अग्रेषित फाइनल रिपोर्ट (क्लोजर रिपोर्ट) में इस निष्कर्ष पर आती है कि अन्वेषण के दौरान अभियुक्त (या अभियुक्तों) के खिलाफ आरोप साबित होते हुए नहीं पाए गए हैं, तब मजिस्ट्रेट द्वारा अंतिम रिपोर्ट को लेकर अपने न्यायिक मत को लागू करने का निर्णय लेने से पहले, नाराजी याचिका के जरिये, victim/informant को इन निष्कर्षों के खिलाफ आपत्तियां उठाने का अवसर दिया जाता है।
मामले का संज्ञान न लेने का फैसला करने से पहले Informant को क्यों मिलना चाहिए सुनवाई का मौका?
जाहिर है, एक informant (जोकि स्वयं पीड़ित भी हो सकता है) जो प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दाखिल करके अन्वेषण की मशीनरी को गति में लाता करता है, उसे यह जानने का अधिकार होना चाहिए कि उसके द्वारा दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट के आधार पर शुरू किये गए अन्वेषण का परिणाम आखिर क्या है।
साफ़ है कि ऐसे informant की अन्वेषण के परिणाम में दिलचस्पी होती है इसलिए कानून की आवश्यकता यह है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट पर एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा की गई कार्रवाई उसके पास संप्रेषित की जाए और इस तरह के अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को धारा 173 की उप-धारा (2) (i) के तहत भेजी गयी रिपोर्ट की भी आपूर्ति की जाए।
जहां मजिस्ट्रेट यह तय करता है कि मामले में आगे की कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद नहीं हैं और कार्यवाही को वहीँ छोड़ दिया जाना चाहिए, या अदालत यह विचार करती है कि कुछ व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही के लिए सामग्री मौजूद है, वहीँ दूसरों के संबंध में अपर्याप्त आधार हैं, तो निश्चित रूप से मुखबिर/पीड़ित (informant/victim) को इस बात की सूचना दी जानी चाहिए।
वर्ष 2019 में राजेश बनाम हरियाणा राज्य AIR (2019) SC 478 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह माना गया था कि अगर पुलिस, FIR में नामजद सभी आरोपियों के बजाय, चार्जशीट में नामजद केवल कुछ आरोपियों का नाम ही अपनी रिपोर्ट में लेती है, तो भी मजिस्ट्रेट को मुखबिर/पीड़ित (informant/victim) को नाराजी याचिका दायर करने का मौका देना होगा।
यह मौका एवं सूचना इसलिए दी जानी आवश्यक है क्योंकि informant ही वह व्यक्ति है जिसने किसी अपराधिक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी थी, और यदि अदालत मामला बंद करने पर विचार कर रही है तो ऐसे मुखबिर द्वारा दर्ज की गयी रिपोर्ट पूर्ण या आंशिक रूप से अप्रभावी हो जाती है इसलिए ऐसा होने से पहले उसे सुनवाई का मौका दिया जाये।
सुप्रीम कोर्ट का इस मुद्दे पर क्या रहा है विचार?
सुप्रीम कोर्ट ने भगवंत सिंह बनाम पुलिस आयुक्त एवं अन्य [(1985) 2 SCC 537] के मामले में यह संकेत दिया था कि जहां मजिस्ट्रेट द्वारा किसी आपराधिक मामले का संज्ञान नहीं लेने का फैसला किया गया है (पुलिस रिपोर्ट प्राप्त करने के पश्च्यात), और आगे की कार्यवाही को बंद करने का विचार किया गया है, या प्रथम सूचना रिपोर्ट में उल्लिखित कुछ व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं पाया गया है, वहां informant को नोटिस और मामले में सुनवाई का अवसर दिया जाना अनिवार्य हो जाता है। इस मामले में कहा गया,
"... इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब धारा 173 के उप-धारा (2) (i) के तहत एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा बनाई गई रिपोर्ट पर विचार करने के पश्च्यात मजिस्ट्रेट अपराध और मुद्दे का संज्ञान लेने एवं प्रोसेस इशू करने का इच्छुक नहीं है, वहां informant को सुनवाई का एक अवसर दिया जाना चाहिए ताकि वह अपराध का संज्ञान लेने और प्रोसेस इशू करवाने के लिए मजिस्ट्रेट के सामने अपना पक्ष रख सके।
हम इस दृष्टिकोण के हैं कि ऐसे मामले में जहां मजिस्ट्रेट को पुलिस द्वारा धारा 173 के तहत एक रिपोर्ट अग्रेषित की जाती है, और जहाँ वह मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान नहीं लेता है और कार्यवाही को बंद करने का विचार करता है या यह विचार करता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित कुछ व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए कोई पर्याप्त आधार मौजूद नहीं है, वहां मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट के विचार के समय informant को सुने जाने की सूचना उसे देनी होगी ..."
यह साफ़ है कि भगवंत सिंह के मामले में निर्धारित कानून के अनुसार, अंतिम रिपोर्ट के विचार के समय informant को मजिस्ट्रेट द्वारा नोटिस जारी करना एक "आवश्यकता" है। हालांकि, इस तरह की आवश्यकता विशेष रूप से संहिता में प्रदान नहीं की गयी है, लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा तय किये गए तमाम वादों के अनुसार अब यह एक बाध्यकारी आवश्यकता बन चुकी है.
दूसरे शब्दों में, यदि आपराधिक मामले के अन्वेषण के पश्च्यात पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि कथित आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए कोई मामला नहीं बनता है और पुलिस द्वारा धारा के तहत अंतिम रिपोर्ट (क्लोजर रिपोर्ट) प्रस्तुत की जाती है तो informant को अपने मामले को आगे बढ़ाने और मामले को बंद करने के खिलाफ आपत्तियां उठाने का मौका दिया जाना चाहिए।
इसके अलावा गंगाधर जनार्दन म्हात्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य 2004 AIR SCW 5414 के मामले में यह साफ़ तौर पर कहा गया कि जब मजिस्ट्रेट किसी अपराधिक मामले में संज्ञान लेने का विचार करता है और मामले को आगे बढ़ाने का फैसला करता है तो informant का हित प्रभावित नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि informant द्वारा शुरू किये गए मामले में अदालत आगे की कार्यवाही करने के लिए आगे बढती है और इसलिए इस स्तर पर उसको सुना जाना जरुरी नहीं होता है।
लेकिन जहां मजिस्ट्रेट यह तय करता है कि मामले के साथ आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद नहीं हैं, और कार्यवाही को बंद कर दिया जाना चाहिए या यह विचार किया जाता है कि कुछ लोगों के खिलाफ कार्यवाही के लिए सामग्री मौजूद है और दूसरों के संबंध में अपर्याप्त आधार हैं, तो informant निश्चित रूप से प्रभावित होगा (और इसलिए ऐसे informant को सूचना दी जानी चाहिए)।
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने आलोक जोशी बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य CRM-M- 40231- 2017 के मामले में भी इस तरह की आवश्यकता को प्राकृतिक न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप बताया गया है और यह तय किया गया कि किसी भी प्रतिकूल आदेश को पारित करने से पहले, प्रभावित व्यक्ति को सुना जाना चाहिए।
अंत में, यह साफ़ है कि नाराजी याचिका के अंतर्गत informant/अपराधिक मामले की पुलिस को इत्तिला देने वाला व्यक्ति, पुलिस रिपोर्ट के खिलाफ (यदि वे इससे संतुष्ट नहीं हैं) एक याचिका अदालत में दाखिल कर सकता है। हालांकि, इस अनूठे प्रावधान (जिसका उल्लेख भारत के किसी अधिनियम में नहीं है) के बारे में जागरूकता की कमी जरुर है, परन्तु अब नाराजी याचिका दाखिल करने का मौका दिया जाना, अदालतों द्वारा अपनी एक जिम्मेदारी के रूप में देखा जाने लगा है।