भारतीय न्याय प्रणाली में अपराधों के समझौते की सीमाएँ और शर्तें : BNSS, 2023 की धारा 359
Himanshu Mishra
11 Feb 2025 11:55 AM

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita - BNSS), 2023 की धारा 359 अपराधों के समझौते (Compounding of Offences) की प्रक्रिया को निर्धारित करती है।
इस धारा का पहला भाग यह बताता है कि कौन से अपराध समझौतायोग्य (Compoundable) हैं और उनका समझौता कौन कर सकता है। हालांकि, धारा 359 का दूसरा भाग, विशेष रूप से उपधारा (3) से (9) तक, इस प्रक्रिया से जुड़े विस्तृत प्रावधानों को स्पष्ट करता है।
इस भाग में यह बताया गया है कि अपराध के उकसावे (Abetment) और प्रयास (Attempt) का समझौता कैसे किया जा सकता है, किन परिस्थितियों में कानूनी प्रतिनिधि (Legal Representatives) अपराध का समझौता कर सकते हैं, जब किसी अपराध का ट्रायल (Trial) चल रहा हो या अपील (Appeal) लंबित हो, तब समझौते पर क्या पाबंदियां हैं, और किन मामलों में समझौते की अनुमति नहीं दी जा सकती।
यह लेख धारा 359 के इन विस्तृत प्रावधानों का विस्तार से विश्लेषण करेगा और कुछ उदाहरणों के माध्यम से इसे और स्पष्ट करेगा।
अपराध के उकसावे (Abetment) और प्रयास (Attempt) का समझौता – धारा 359(3)
धारा 359(3) के अनुसार, जब कोई अपराध समझौतायोग्य (Compoundable) है, तो उसका उकसावा (Abetment) या ऐसा प्रयास (Attempt) जिसे स्वयं भी अपराध माना जाता हो, उसका भी उसी तरह समझौता किया जा सकता है।
यह प्रावधान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अपराध केवल मुख्य आरोपी द्वारा ही नहीं किए जाते, बल्कि कई बार अन्य लोग भी अपराध करने में मदद (Facilitate) करते हैं या अपराध को अंजाम देने का प्रयास करते हैं। इस स्थिति में, यदि मुख्य अपराध समझौतायोग्य है, तो इन सह-अपराधियों (Co-Accused) के लिए भी समझौते की अनुमति दी गई है।
उदाहरण:
अगर चोरी (Theft) का अपराध समझौतायोग्य है और किसी व्यक्ति ने चोरी करने वाले को भागने में मदद की है, तो इस सह-अपराधी का भी उसी तरह समझौता किया जा सकता है जैसे कि मुख्य चोर का। इसी प्रकार, अगर किसी ने चोरी करने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हुआ, तो वह भी समझौते का पात्र होगा।
हालांकि, यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि मूल अपराध (Principal Offence) ही समझौतायोग्य नहीं है, तो उसके उकसावे (Abetment) या प्रयास (Attempt) का भी समझौता नहीं किया जा सकता।
कानूनी प्रतिनिधियों (Legal Representatives) द्वारा समझौता – धारा 359(4)
अपराध का समझौता करने का अधिकार आमतौर पर उस व्यक्ति को होता है जो अपराध से प्रभावित हुआ है। लेकिन कई मामलों में, पीड़ित (Victim) खुद निर्णय लेने में सक्षम नहीं होता या उसकी मृत्यु हो चुकी होती है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए धारा 359(4) विशेष नियम प्रदान करती है।
धारा 359(4)(a) यह कहती है कि यदि समझौता करने के योग्य व्यक्ति नाबालिग (Minor) या मानसिक रूप से अस्थिर (Unsound Mind) है, तो उसकी ओर से कोई सक्षम व्यक्ति (Competent Person) अदालत की अनुमति से अपराध का समझौता कर सकता है।
उदाहरण:
यदि कोई नाबालिग लड़की गलत तरीके से कैद (Wrongful Confinement) कर ली जाती है, तो उसकी ओर से उसका अभिभावक (Guardian) अदालत की अनुमति से अपराधी के साथ समझौता कर सकता है। लेकिन अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि यह समझौता नाबालिग के हित में हो।
धारा 359(4)(b) यह प्रावधान करता है कि यदि अपराध का शिकार व्यक्ति (Victim) मृत (Deceased) हो चुका है, तो उसके कानूनी उत्तराधिकारी (Legal Heirs) अदालत की मंजूरी से अपराध का समझौता कर सकते हैं।
उदाहरण:
अगर किसी व्यक्ति के साथ धोखाधड़ी (Fraud) हुई और बाद में उसकी मृत्यु हो गई, तो उसके परिवार के सदस्य अदालत की अनुमति लेकर आरोपी के साथ समझौता कर सकते हैं।
ट्रायल (Trial) या अपील (Appeal) के दौरान समझौते पर प्रतिबंध – धारा 359(5)
धारा 359(5) कहती है कि यदि आरोपी का ट्रायल चल रहा है या उसे दोषी ठहराकर सजा दी जा चुकी है और वह अपील कर चुका है, तो इस स्थिति में अदालत की अनुमति के बिना अपराध का समझौता नहीं किया जा सकता।
इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी अपराधी मुकदमे के एक उन्नत (Advanced) चरण में आकर केवल समझौते का सहारा लेकर मुकदमे से बच न जाए।
उदाहरण:
अगर कोई व्यक्ति गलत तरीके से रोकने (Wrongful Restraint) के अपराध में दोषी पाया गया और उसने सजा के खिलाफ अपील दायर की, तो वह सीधे पीड़ित से समझौता नहीं कर सकता। इसके लिए अपील सुनने वाली अदालत की अनुमति आवश्यक होगी।
अदालत इस दौरान अपराध की गंभीरता, आरोपी का आपराधिक इतिहास (Criminal Record) और अन्य कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखेगी।
हाईकोर्ट (High Court) की विशेष शक्तियां – धारा 359(6)
धारा 359(6) के अनुसार, हाईकोर्ट (High Court) या सेशन कोर्ट (Session Court), जब वे पुनरीक्षण (Revision) अधिकारों का प्रयोग कर रहे हों, किसी व्यक्ति को अपराध का समझौता करने की अनुमति दे सकते हैं।
उदाहरण:
अगर किसी निचली अदालत ने गलत तरीके से किसी समझौते को अस्वीकार कर दिया है, तो पीड़ित हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) दायर कर सकता है। हाईकोर्ट मामले की समीक्षा कर सकती है और यदि उचित लगे तो समझौते की अनुमति दे सकती है।
पुनरावृत्ति अपराध (Repeat Offender) पर समझौते की रोक – धारा 359(7)
धारा 359(7) के अनुसार, यदि किसी आरोपी को पहले से ही किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है और इस कारण उसे कड़ी सजा (Enhanced Punishment) या अलग तरह की सजा मिलनी चाहिए, तो वह अपराध समझौतायोग्य नहीं होगा।
उदाहरण:
अगर किसी व्यक्ति को पहले चोरी (Theft) के लिए सजा दी जा चुकी है और उसने दोबारा चोरी की, तो दूसरी बार वह अपराध समझौतायोग्य नहीं होगा।
समझौते का प्रभाव (Effect of Compounding) – धारा 359(8) और धारा 359(9)
धारा 359(8) यह स्पष्ट करती है कि जब किसी अपराध का समझौता किया जाता है, तो आरोपी बरी (Acquitted) हो जाता है। इसका मतलब यह है कि समझौते के बाद आरोपी के खिलाफ किसी अन्य तरह की कानूनी कार्यवाही (Legal Proceedings) नहीं की जा सकती।
उदाहरण:
अगर किसी व्यक्ति पर मानहानि (Defamation) का आरोप था और वह पीड़ित से समझौता कर लेता है, तो उसे पूरी तरह से निर्दोष माना जाएगा और आगे उस पर कोई केस नहीं चल सकता।
धारा 359(9) यह कहती है कि केवल उन्हीं अपराधों का समझौता किया जा सकता है जिनकी अनुमति इस धारा में दी गई है।
धारा 359 के विस्तृत प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि अपराधों के समझौते की प्रक्रिया कानूनी रूप से पारदर्शी और निष्पक्ष रहे। यह धारा अपराधियों को मुकदमों से बचने का साधन न बनने पाए, इसके लिए जरूरी प्रतिबंध भी लगाती है।
हालांकि समझौते से अदालतों का बोझ कम होता है, लेकिन न्याय (Justice) सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। उचित न्यायिक देखरेख (Judicial Oversight) के साथ, यह प्रावधान आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।