संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 10 : संविदा अधिनियम के अंतर्गत शून्य करार (Void Agreements) क्या होते हैं और कौन से करारों का कोई अस्तित्व ही नहींं होता
Shadab Salim
23 Oct 2020 12:37 PM IST
यह आलेख संविदा विधि के भाग- 9 का शेष भाग है तथा इसके अंतर्गत उन करारों का उल्लेख किया जा रहा है जिन करारों को विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किया गया है। अब तक हमने धारा 26 के अंतर्गत विवाह अवरोधक करार धारा 27 के अंतर्गत व्यापार अवरोधक करारों के संबंध में चर्चा की है। अभी इस आलेख में उन करारों के संबंध में चर्चा की जा रही है जिन्हें विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किया गया है। पाठकगण यदि इस आलेख को समझना चाहते हैं तो उन्हें इस आलेख के पूर्व भाग- 9 का भी अध्ययन करना चाहिए यदि भाग-9 का अध्ययन किया जाएगा तो भाग- 10 को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
विधिक कार्यवाहियों के अवरोधक करार शून्य है (धारा-28)
भारत के संविधान ने किसी भी व्यक्ति को अपने संवैधानिक और सिविल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय का रास्ता दिया है। यदि किसी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति के कार्य या लोप द्वारा कोई क्षति होती है तो ऐसी क्षति के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष जाकर अनुतोष प्राप्त कर सकता है। कोई भी ऐसा करार जो किसी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों और सिविल अधिकारों में व्यवधान पैदा करता है वह शून्य होता है। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 28 में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी ऐसा करार जो किसी वैधानिक कार्यवाही में अवरोध पैदा कर रहा है इस प्रकार का करार शून्य होता तथा प्रारंभ से ही इस करार का कोई अस्तित्व नहीं होता।
यदि किसी करार के माध्यम से किसी अन्य व्यक्ति के मूल अधिकारों को रोका जा रहा है या उसे अपने मूल अधिकार प्रवर्तनीय करने से वंचित किया जा रहा है तो यह करार शून्य होगा।
फिरोज एंड कंपनी (2) जम्मू एंड कश्मीर 1962 के वाद में यह कहा गया है कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 25 के अनुसार विधिक कार्यवाही में बाधा पहुंचाने वाले करार शून्य होते हैं क्योंकि विधिक कार्यवाही विधिपूर्ण कार्यवाही मानी जाती है। अतः कोई भी करार जिसके कारण न्यायालय द्वारा पीड़ित व्यक्ति को अनुतोष न मिल सके इस प्रकार का करार माना जायेगा।
जहां किसी मकान मालिक ने किसी किराएदार के विरुद्ध एक पक्षीय डिक्री प्राप्त की है और डिक्री के निष्पादन हेतु अधिकृत व्यक्ति वहां गया और मकान मालिक को वह कब्जा दिलवाया गया और डिलीवरी वारंट पर किराएदार से यह प्रस्थापना की -
'मैं अब इस स्थान को छोड़ने के अधीन हूं और बिना किसी प्रकार की आपत्ति प्रकट किए हुए बिना कोई अग्रिम कार्यवाही निष्पादित कराने हेतु प्रयास किए मैं इस कार्य को पूर्ण अंतिम मानते हुए इस न्यायालय आदेश को अंतिम मानता रहूंगा'
बाद में उक्त किराएदार ने उक्त बेदखली के आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत की और उसने अपने द्वारा प्रस्तुत कथन की बाबत यह कहा कि वह करार शून्य है और वह आधिकारपूर्वक पुनरीक्षण वाद प्रस्तुत कर सकता है।
उपरोक्त मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ विचार करते हुए कहा कि,
तथ्यों और परिस्थितियों का अवलोकन करने और सिविल रिवीजन पर विचार करने से यह बात स्पष्ट होती है कि इस मामले में जो प्रश्न उभरकर आता है वह केवल प्रतिफल से संबंधित है। प्रतिफल का विधिक प्रभाव क्या है जिसका संबंध उक्त पृष्ठांकन से है जो याची द्वारा न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। उत्तरदाता के विद्वान अधिवक्ता ने अभिवचन प्रस्तुत किया कि जो उपरोक्त पृष्ठांकन उसने अर्थात याची ने किया है उससे वास्तविक पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत करने के आयोग्य बन जाता है न्यायालय सिविल याचिका को निरस्त कर देना चाहिए।
श्रीमान टीकम सिंह बनाम गैमन इंडिया लिमिटेड ए आई आर 1970 एस सी 740 यदि दो या दो से अधिक न्यायालयों को सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत ऐसे मामले की सुनवाई करने का क्षेत्र अधिकार प्राप्त है तो पक्षकारों के मध्य किया गया यह करार की उनमें से किसी एक न्यायालय द्वारा उसे निपटाए जाने हेतु वाद प्रस्तुत किया जाएगा विधि मान्य होगा परंतु किसी न्यायालय को सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार नहीं प्राप्त है तो किसी करार द्वारा उसे क्षेत्राधिकार नहीं प्रदान किया जा सकता है। वह परिणामस्वरूप यदि किसी न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं प्राप्त है और करार द्वारा उसे क्षेत्राधिकार प्रदान किया जाता है तो करार शून्य होगा।
अनिश्चितता के कारण करार शून्य हैं (धारा- 29)
भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 29 में अनिश्चितता का समावेश किया गया है। किसी भी संविदा के लिए अनिश्चितता घातक होती है। किसी भी प्रस्ताव और स्वीकृति में निश्चिता होनी चाहिए उसका प्रतिफल निश्चित होना चाहिए उसका काल और वचन निश्चित होना चाहिए। कोई भी अनिश्चितता को नहीं माना जा सकता यदि कोई निश्चित नहीं है ऐसी परिस्थिति में कोई करार संविदा नहीं बन सकता है इसलिए यह कहा जा सकता है कि कोई भी करार को संविदा होने के लिए उसमें निश्चितता होनी चाहिए उसमें स्थायित्व होना चाहिए यदि किसी करार में निश्चितता नहीं है उस में स्थायित्व नहीं है इस प्रकार का करार अनिश्चितता से भरा होगा।
जैसे कि किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति को 1 टन लकड़ी लाने को कहा। अब इतना वाक्य कि 1 टन लकड़ी लाना है परंतु किस स्थान पर लाना है, कौन सी लकड़ी लाना है उसके लिए मूल्य क्या होगा! इसका कोई उल्लेख नहीं है इतना कहा गया है कि 1 टन लकड़ी लाना है। यह कोई निश्चित संविदा नहीं है इस प्रकार की अनिश्चितता कहा जाता है तथा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 29 के अंतर्गत अनिश्चितता के कारण इस प्रकार की संविदा को घोषित किया गया है। किसी भी अभिमान संविदा के सर्जन के लिए करार का निश्चित होना नितांत आवश्यक है। करार निश्चित होना चाहिए और प्रतिफल वास्तविक होना चाहिए।
पुष्पा बल राय बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम एआईआर 1978 कोलकाता 228 में यह कहा गया है कि कोई करार जो किसी धनराशि के संदाय के बाबत था अनिश्चितता के कारण शून्य माना गया है।
चंद्रशेखर बनाम गोपीनाथ एआईआर 1963 इलाहाबाद 258 के प्रकरण में एक मकान मालिक एक किराएदार के मध्य करार हुआ कि किराएदार एक कमरे का निर्माण करवाएगा और खर्च को वह किराए में काट लेगा परंतु संविदा के समय यह निश्चित नहीं किया गया कि कितनी रकम किराएदार द्वारा उक्त संदर्भ में हर माह कटौती की जाएगी। इस मामले में न्यायालय ने निर्णय लिया कि चूंकि यह करार अनिश्चितता से युक्त था अर्थात निश्चित नहीं किया गया था कि कितनी राशि उक्त कमरे के निर्माण में किराएदार द्वारा खर्च की जाएगी और इस संविदा के समय यह भी निश्चित नहीं किया गया कि इस धनराशि को हर महीने कितने कितने भाग में कटौती की जाए। करार में संपूर्ण अनिश्चितता है इस कारण शून्य घोषित किया जाता है।
जहां किसी करार में यह बात उल्लेखित थी कि यदि घुड़सवारी का एक घोड़ा भाग्यशाली सिद्ध हो जाएगा तो ऐसी स्थिति में विक्रेता को क्रेता विक्रय मूल्य से पांच गुना अधिक देगा क्योंकि भाग्यशाली होना है ऐसी बात अनिश्चितता से युक्त थी अतः न्यायालय ने कहा कि अनिश्चितता के आधार पर यह करार शून्य है।
पंधम के तौर पर करार शून्य है (धारा- 30)
(Way of Wager)
जुआ और सट्टा किसी भी समाज के लिए घातक होता है। यदि जुआ और सट्टे पर कोई निर्बंधन नहीं लगाया जाए और खुले तौर पर इसे समाज में मान्यता दे दी जाए तो देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक होता है क्योंकि लोग उत्पादन को छोड़कर जुएं और सट्टे की गतिविधियों में लग जाएंगे, जिससे उत्पादन घट जाएगा। जुए को भारतीय आपराधिक विधानों में अपराध के तौर पर प्रस्तुत किया गया है तथा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 30 के अंतर्गत भी पंधम के तौर पर होने वाले करार को शून्य घोषित किया गया है। इस प्रकार के अंतर्गत कोई लेनदेन किया गया है तो इस प्रकार के लेनदेन की वसूली संविदा अधिनियम के अंतर्गत नहीं की जा सकती और इस प्रकार का करार प्रवर्तनीय नहीं है। यदि इस प्रकार का करार किया गया है तो उसे संविदा नहीं माना जाएगा। पंधम के तौर पर करार का तात्पर्य बाजी के करार से है। कोई भी बाजी अवैध है।
आज वर्तमान में क्रिकेट में चलने वाले सट्टा समाज के लिए घातक हो गया है तथा क्रिकेट मैचों के सट्टे लगाए जा रहे हैं। इस प्रकार के मैचों में लगाए गए सट्टे की वसूली के लिए कोई वाद नहीं लाया जा सकता। इस प्रकार के करार भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 30 के अंतर्गत शून्य घोषित किए जा चुके हैं।
बाजी की संविदा वह संविदा है जिसमें दो पक्षकार भविष्य में किसी अनिश्चित घटना के घटने या न घटने के बारे में करार करते हैं अर्थात वह घटना के विषय में विपरीत विचार रखते हुए संविदा करते हैं क्योंकि उनके मध्य किसी निश्चित घटना की बाबत कोई संविदा नहीं होती है। सट्टा में किसी विधिमान्य संविदा का सर्जन नहीं होता है अर्थात उक्त प्रकार की घटना में जितना घटित होने की संभावना रहती है उतना ही उस घटना के न घटने की संभावना बनी रहती है। बाजी के तौर पर होने के कारण शून्य होती है क्योंकि किसी प्रकार का हारना जीतना घटना के परिणाम पर निर्भर करता है। जीत सकता है परंतु हार नहीं सकता अथवा हार सकता है परंतु जीत नहीं सकता दोनों में सिर्फ एक ही बात होती है जो हारेगा या जीतेगा ऐसा नहीं है कि दोनों घटनाएं एक साथ घटित हो।
बीमा की संविदा बाजी की संविदा नहीं हैः
जब इस प्रकार के सट्टे की संविदा की बात होती है तो सर्वप्रथम ध्यान बीमा की संविदा की ओर ध्यान जाता है क्योंकि वहां पर भी बीमा निश्चित नहीं होती है पर असल में बीमे की संविदा सट्टे की संविदा नहीं क्योंकि इसमें किसी लाभ की संभावना नहीं रहती। मृत्यु, दुर्घटना, आगजनी की स्थिति में बीमा की राशि उन्हें मिलती है जहां बीमाकर्ता का जीवन बीमित वस्तु की बाबत कोई हित नहीं था वहां बीमा पालिसी को शून्य माना गया।
नारायण बनाम बेला स्वामी (1927) मद्रास के प्रकरण में मद्रास उच्च न्यायालय ने चिटफंड की संविदा को भी पंधम की संविदा नहीं माना है।
बाजी के करार के अंतर्गत पक्षकार के जीतने हारने की संभावना बनी होती है। करार के दोनों पक्षकारों को घटना के निर्धारण होने की संभावना होनी चाहिए। जीत सकता है परंतु हार नहीं सकता अथवा हार सकता है जीत नहीं सकता ऐसी स्थिति में यह बाजी करार है।
धारा 30 के अंतर्गत किसी करार के पंधम के करार के रूप में माने जाने के लिए कुछ बातें आवश्यक रूप से होना चाहिए जो निम्नलिखित हो सकती हैं:
किसी अनिश्चित घटना का मौजूद होना।
करार के संबंध में उक्त अनिश्चित घटना की बाबत पक्षकारों का विपरीत मत होना।
पक्षकारों में से किसी के जीतने हारने की संभावना का मौजूद होना।
पक्षकारों का घटना में दो या शर्त के अतिरिक्त कोई हित या हितार्थ स्वार्थ ना होना।
कार्लिक बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कंपनी के प्रकरण में भी धारा 30 का सहारा लेने का प्रयास किया गया था। कंपनी के वकील ने अपनी दलील प्रस्तुत की थी कि इस प्रकार संविदा तो अनिश्चितता के कारण सट्टे की संविदा होने के कारण शून्य है परंतु न्यायालय ने इस प्रकरण में यह कहा कि यहां पर वादी किसी भी प्रकार से कुछ भी नहीं हार रहा था यदि कुछ हारता तो फिर यह माना जा सकता था कि यह जुआ की संविदा है और जिसे पंधम के तौर पर शून्य घोषित किया जा सकता है।