जानिए फैमिली कोर्ट एक्ट से संबंधित प्रावधान
Shadab Salim
14 Oct 2024 10:17 AM IST
अलग अलग तरह की अदालतों की तरह ही एक कोर्ट फैमिली कोर्ट है, जो फैमिली से संबंधित मामलों को सुनती है और जनता के बीच न्याय करती है। फैमिली कोर्ट टाऊन एरिया में नहीं होती है, यह नगर के क्षेत्रों में होती है। इस कोर्ट को बनाने का उद्देश्य फैमिली से संबंधित मामलों का शीघ्र न्याय करना होता है। घर परिवारों में होने वाले विवादों में प्रमुख रूप से पति और पत्नी के बीच होने वाले विवाद होते हैं।
इन विवादों के मामले में फैमिली कोर्ट एक्ट आने के पहले सिविल न्यायालय को अधिकारिता होती थी लेकिन वर्ष 1984 में भारत सरकार द्वारा संसद में फैमिली कोर्ट एक्ट लाया गया। इस एक्ट के माध्यम से पारिवारिक विवाद निपटाने के लिए एक अलग से न्यायालय बनाया गया। सिविल न्यायालय में प्रकरण बहुत सारे होते हैं, इतने सारे प्रकरण होने के कारण किसी भी प्रकरण में जल्दी न्याय नहीं मिल पाता है। परिवार के विवाद भी सिविल न्यायालय में सालों साल अटके रहते थे और पक्षकारों को न्याय नहीं मिल पाता था। इस परेशानी से निपटने के उद्देश्य से ही सरकार द्वारा फैमिली कोर्ट एक्ट,1984 लाया गया।
क्यों है फैमिली कोर्ट विशेष
फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 समस्त भारत में जिला स्तर पर एक फैमिली कोर्ट के गठन का कार्य करता है। हालांकि ऐसा फैमिली कोर्ट भारत के सभी शहरों में नहीं है लेकिन लगभग लगभग एक बड़ी आबादी वाले शहरों में इसे स्थापित कर दिया गया है। किसी भी बड़ी आबादी के शहर में एक फैमिली कोर्ट की स्थापना होती है। यह उस शहर के लोगों के पारिवारिक विवाद को निपटाने के कार्य करते हैं। फैमिली कोर्ट के पीठासीन अधिकारी वहां के न्यायाधीश जिला न्यायाधीश की सभी शक्तियां रखते हैं। ऐसे पीठासीन अधिकारी को समझौता करवाने का अनुभव होना चाहिए और उन्हें समाज के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।
इस अधिनियम का मूल लक्ष्य है कि परिवार में उत्पन्न होने वाले विवादों को समझौते के माध्यम से निपटा दिया जाए और पक्षकारों को आपस में समझा दिया जाए। इसी के साथ पक्षकारों को शीघ्र से शीघ्र न्याय दे दिया जाए और उन्हें अधिक से अधिक समय तक न्यायालय के चक्कर नहीं लगाना पड़े।
इन मामलों को सुनती है फैमिली कोर्ट
फैमिली कोर्ट परिवार से संबंधित मामले सुनते हैं। इन परिवार से संबंधित मामलों में निम्न मामले प्रमुख रूप से सुने जाते हैं-
1. तलाक से संबंधित मामले
2. ज्यूडिशल सिपरेशन से संबंधित मामले
3. दांपत्य जीवन की पुनर्स्थापना से संबंधित मामले
4. भरण पोषण से संबंधित मामले
5. बच्चे की कस्टडी से संबंधित मामले
6. पति पत्नी के बीच होने वाले संपत्ति के विवाद से संबंधित मामले
फैमिली कोर्ट द्वारा इन मामलों को ही सुना जाता है और फैमिली कोर्ट में इन मामलों की ही अधिकता होती है। यह सभी मामले उन शहरों में जहां आबादी दस लाख से अधिक है, फैमिली कोर्ट द्वारा सुने जाते हैं। जिन शहरों में फैमिली कोर्ट की स्थापना नहीं की गई है, उन शहरों में इन मामलों को सिविल न्यायालय द्वारा सुना जाता है। जब सिविल न्यायालय इन मामलों पर सुनवाई करते हैं, तब उन की प्रक्रिया अलग होती है और फैमिली कोर्ट में सुनवाई होते समय प्रक्रिया अलग होती है।
सिविल मामलों की प्रक्रिया थोड़ी सी लंबी होती है, जिससे न्याय जल्दी नहीं मिल पाता है, जबकि फैमिली कोर्ट में किसी भी प्रकरण को दर्ज करने के बाद उस पर होने वाली सुनवाई से संबंधित प्रक्रिया बहुत जल्दी खत्म हो जाती है और पक्षकारों को त्वरित निर्णय मिल जाते हैं।
फैमिली कोर्ट में वकीलों की मनाही
फैमिली कोर्ट में किसी भी प्रकार की पैरवी करने के लिए एक अधिकार के रूप में वकील को पेश नहीं किया जा सकता। जैसा कि आपराधिक मामलों में एक एडवोकेट को पैरवी करने हेतु पेश करना अभियुक्त का अधिकार होता है, साथ ही पीड़ित का पक्ष अभियोजन अधिकारी द्वारा रखा जाता है।
सिविल मामलों में भी अधिकारपूर्वक एडवोकेट को नियुक्त किया जाता है जबकि फैमिली कोर्ट में एडवोकेट को एक अधिकार के रूप में पेश नहीं किया जाता है, पर अगर न्यायालय यह चाहता है कि कोई पक्षकार एक एमिक्स क्यूरी के रुप में वकील को नियुक्त करता है, तब ऐसे वकील के संबंध में न्यायालय आज्ञा दे देता है। आमतौर पर तो यह देखा जाता है कि आजकल फैमिली कोर्ट में भी वकील लोग पैरवी कर रहे हैं, इसका कारण यह है कि इतनी सरल प्रक्रिया भी पक्षकार समझ नहीं पाते हैं तथा उन्हें वकील की सहायता लेनी ही पड़ती है। वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपनी ओर से एडवोकेट को खड़ा करते हैं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लागू नहीं होना
फैमिली कोर्ट की कार्यवाही में भारतीय साक्ष्य अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं होता है। जैसे कि एक सिविल कोर्ट में भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानों की बहुत गहनता से पालन किया जाता है और कोई भी ऐसा दस्तावेज न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है, जिसे स्वीकार नहीं करने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में व्यवस्था दी गई है।
जबकि फैमिली कोर्ट में न्यायाधीश किसी भी सबूत को देख सकता है और किसी भी सबूत के आधार पर अपना निर्णय सुना सकता है। फैमिली कोर्ट अधिनियम के अंतर्गत इस प्रक्रिया को देने का कारण यह है कि न्यायाधीश को भी सरलता रहे तथा वह अपने स्तर पर अपने तर्क और बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए किसी भी मामले में निर्णय सुना सके।
गवाहों को ज्यों का त्यों नहीं लिखा जाना
फैमिली कोर्ट में पक्षकारों के बयानों को और मामले से संबंधित अन्य गवाहों के बयानों को वैसा का वैसा ही नहीं लिखा जाता है, बल्कि एक औपचारिक रूप से बयान दर्ज कर लिए जाते हैं और बयान की जो मूल बातें हैं केवल उन्हें दर्ज कर लिया जाता है, बाकी सभी बातों को सारहीन माना जाता है।
इस प्रक्रिया का भी उद्देश्य यह है कि न्यायधीश किसी भी गवाह के बयान पर मोटे तौर पर कोई एक मत बना ले, जबकि सिविल न्यायालय में और आपराधिक न्यायालय में गवाहों के बयानों को वैसा का वैसा ही लिखा जाता है जैसे बयान उनके द्वारा दिए जा रहे हैं।
नाममात्र की कोर्ट फीस
फैमिली कोर्ट में किसी भी प्रकरण को दर्ज करने हेतु नाम मात्र की कोर्ट फीस देना होती है। सिविल न्यायालय में किसी भी प्रकरण को दर्ज करने के लिए एक बहुत बड़ी धनराशि कोर्ट फीस के रूप में पक्षकारों को अदा करना होती है। लेकिन फैमिली कोर्ट में कोई बहुत अधिक राशि कोर्ट फीस के लिए नहीं ली जाती है। ऐसा माना जाता है कि जनता के आपस के मामले निशुल्क और जल्दी समय निपटाए जाएं इसलिए ही राज्य सरकार को जल्दी से जल्दी सभी जिलों में फैमिली कोर्ट की स्थापना करने का कहा गया है।
फैमिली कोर्ट की स्थापना का एक प्रमुख उद्देश्य समझौता करवाना भी है। परिवार भारत की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। संयुक्त परिवार जैसी अवधारणा भारत में सदियों पुरानी रही है। परिवार को एक पवित्र संस्था के रूप में माना गया है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए फैमिली कोर्ट की स्थापना की गई है।
ऐसा माना जाता है कि एक परिवार में सभी तरह के लोग रहते हैं, सभी की वैचारिकता अलग है, तब उन सभी के बीच किसी न किसी प्रकार का कोई न कोई विवाद उत्पन्न होना स्वभाविक है। पति और पत्नी के बीच होने वाले विवाद भी एक स्वभाविक विवाद है। लंबे समय तक साथ रहते हुए दो लोगों के बीच विवाद उत्पन्न हो ही जाते हैं।
फैमिली कोर्ट का यह पहला उद्देश्य होता है कि वह पक्षकारों के मध्य समझौता करवाएं और परिवारों को टूटने नहीं दे। जब भी कोई तलाक से संबंधित मामला प्रस्तुत किया जाता है तब सबसे पहले न्यायालय द्वारा पक्षकारों में समझौता करवाने के प्रयास किए जाते हैं। न्यायाधीश द्वारा यह देखा जाता है कि क्या पक्षकारों का आपस में समझौता हो सकता है, क्या गृहस्थी को पुनः बताया जा सकता है।
अगर न्यायधीश यह पता है कि अब पक्षकारों में किसी भी प्रकार का समझौता होने की कोई भी संभावना शेष नहीं है तब न्यायधीश आगे तलाक हेतु कार्यवाही को प्रारंभ करता है। ऐसा समझौता सभी प्रकार के प्रकरणों में करवाए जाने का प्रयास किया जाता है।
एक फैमिली कोर्ट एक दंड न्यायालय की भांति दंड देने के उद्देश्य से एक सिविल कोर्ट के भांति कोई भी डिक्री पारित करने के उद्देश्य से कार्य नहीं करता है अपितु फैमिली कोर्ट का कार्य एक पवित्र कार्य होता है, जो पक्षकारों के मध्य समझौता करवाने के लिए अग्रसर होता है।